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धर्मनिरपेक्षता - एक आवरण (उद्बोधन)

हम सब जानते हैं कि लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तत्कालीन विधर्मी शासकों के द्वारा भारत के कई हिंदुओं का बलपूर्वक धर्मांतरण करवाया गया था। परिणामतः कई लोगों ने भयवश धर्म बदल लिया, लेकिन कई धर्मप्राण, दृढ़प्रतिज्ञ हिन्दुओं ने भीषण अत्याचार सह कर भी अपने धर्म की रक्षा की। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने धर्म तो मन ही मन बदल लिया, किन्तु न तो अपने नाम बदले और न ही अपना रहन-सहन। हाँ, उनकी मानसिकता अवश्य विधर्मी हो गई। पीढ़ियाँ गुज़र गईं, लेकिन वह मानसिकता अब भी ज़िन्दा है।  कालान्तर में यह अवसरवादी लोग स्वयं को प्रगतिशील व आदर्श मानने लगे और धर्मनिरपेक्ष कहलाने में गर्व महसूस करने लगे।  धर्मनिरपेक्षता वस्तुतः एक सात्विक आचरण का नाम है, किन्तु दुर्भाग्यवश अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता अपना विकृत रूप लिए राजनीति में भी समाविष्ट हो गई है।  *****  

ख़्वाब / हकीकत (प्रहसन)

   मैं भी न दोस्तों, कैसे-कैसे अजीब सपने देखने लगा हूँ! कल सपने में मैं आह-आह पार्टी में था और वाह-वाह पार्टी को भला-बुरा कह रहा था। आज के सपने में देखा कि वाह-वाह पार्टी में शामिल हो कर आह-आह पार्टी को गालियाँ दे रहा हूँ 🙂🙃।

छलावा (कहानी)

  प्रवेश की सुगमता की दृष्टि से शहर का ‘गवर्नमेंट कॉलेज’ विद्यार्थियों की पहली पसंद था। समृद्ध पृष्ठभूमि की लड़की धर्मिष्ठा उस कॉलेज में फाइनल ईयर आर्ट्स में पढ़ती थी। पढाई में तो वह ठीक थी ही, सुन्दर भी बहुत थी। बोलती, तो लगता जैसे आवाज़ में मिश्री घुली हो। कॉलेज में सब के आकर्षण का केन्द्र थी वह। कई लड़के उसके दीवाने थे, किन्तु वह उन्हें घास भी नहीं डालती थी। मितभाषी लड़की मधुमिता उसकी विश्वसनीय सहेली थी जिससे वह अपनी हर बात साझा करती थी और सामान्यतः कॉलेज में उसके साथ ही रहती थी। मधुमिता के अलावा प्रायः चार-पाँच सहपाठियों के साथ ही वह मिलती-जुलती थी। इस तरह से बहुत ही छोटी मित्र-मंडली थी उसकी। उसके उन मित्र सहपाठियों में एक शर्मीला लड़का सोमेश भी था, जो पढ़ने में बहुत होशियार था। सुन्दर नहीं, तो बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था उसे। हाँ, एक सुगठित बदन व सौम्य स्वभाव का मालिक अवश्य था वह। कॉलेज में पढाई करते अच्छा वक्त गुज़र रहा था उन सब का।  एक दिन कॉलेज में क्लास ख़त्म होने के बाद सोमेश कॉलेज कम्पाउण्ड में पहुँचा ही था कि उसने अपने पीछे से आती एक सुरीली आवाज़ सुनी- “अकेले-अकेले कहाँ जा...

बँटवारा (लघुकथा)

केशव अपने कार्यालय से थका-मांदा घर आया था। पत्नी अभी तक उसकी किटी पार्टी से नहीं लौटी थी। बच्चे भी घर पर नहीं थे। चाय पीने का बहुत मन था उसका, किन्तु हिम्मत नहीं हुई कि खुद चाय बना कर पी ले। मेज पर अपना मोबाइल रख कर वहाँ पड़ी एक पत्रिका उठा कर ड्रॉइंग रूम में ही आराम कुर्सी पर बैठ गया और बेमन से पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। एक छोटी-सी कहानी पर उसकी नज़र पड़ी, तो उसे पढ़ने लगा। एक परिवार के छोटे-छोटे भाई-बहनों की कहानी थी वह। कुछ पंक्तियाँ पढ़ कर ही उसका मन भीग-सा गया। बचपन की स्मृतियाँ मस्तिष्क में उभरने लगीं।   'मैं और छोटा भाई माधव एक-दूसरे से कितना प्यार करते थे? कितनी ही बार आपस में झगड़ भी लेते थे, किन्तु किसी तीसरे की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि दोनों में से किसी के साथ चूँ भी कर जाए। दोनों भाई कभी आपस में एक-दूसरे के हिस्से की चीज़ में से कुछ भाग हथिया लेते तो कभी अपना हिस्सा भी ख़ुशी-ख़ुशी दे देते थे। ... और आज! आज हम एक-दूसरे को आँखों देखा नहीं सुहाते। दोनों की पत्नियों के आपसी झगड़ों से परिवार टूट गया। दो वर्ष हो गये, माधव पापा के साथ रहता है और मैं उनसे अलग। पापा के साथ काम कर...