ग़ज़ल कैसे कह दूँ, तुझे चाहा नहीं था, धोखा खुद को अब, दिया नहीं जाता। बढ़ गया है तुझसे फ़ासला इतना, कि मुझसे अब तय, किया नहीं जाता। ज़माने के पहरे हैं, सांसों पे मेरी, कदम कोई अब, लिया नहीं जाता। बन चुका है छलनी, दिल ये मेरा, ज़ख्म अब मुझसे, सीया नहीं जाता। समन्दर तो मिलते हैं हर कदम पे, पर पानी उनका, पीया नहीं जाता। हर कूचे, हर गुंचे में, नूर है तेरा, किसी और पे अब, हिया नहीं जाता। जीना तो मैंने चाहा था लेकिन, क्या करूँ तुझ बिन,जीया नहीं जाता। *******