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भुतहा सड़क का रहस्य (कहानी)

                                                                                                             


        अगस्त माह का प्रथम सप्ताह था। शहर में लॉक डाउन खत्म होने के बाद अचानक मिले एक प्राइवेट केस से निवृत होने के बाद प्राइवेट डिटेक्टिव रमेश रंजन शर्मा ने चैन की साँस ली थी। वह बुरी तरह उलझे हुए उस केस को सुलझाने के बाद तफ़री से अपना मूड ठीक करने के उद्देश्य से अपने मित्र आशुतोष खन्ना के यहाँ आया हुआ था। आशुतोष दूसरे शहर इंटोला में रहता था जो रमेश के अपने शहर विवेकपुर से क़रीब 205 कि.मी. की दूरी पर था। इंटोला प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत क़स्बा था। इंटोला के आस-पास की वादियों में भ्रमण और फिर अपने इस करीबी दोस्त का साथ पा कर तथा भाभी (मित्र की पत्नी) के हाथ की लज़्ज़तदार डिशेज़ खा कर रमेश का मन प्रफुल्लित हो गया था। यहाँ आये तीन दिन हो गए थे, सो आज वापस लौटने का उसका मन हो गया।
  "अभी रात को क्यों निकल रहे हो यार, कल सुबह चले जाना।" -मित्र ने सलाह दी।
 "नहीं दोस्त, अब मूड बन गया है तो निकल ही जाने दो।" -मुस्करा कर रमेश बोला।
   वहाँ से विदा ले कर अपनी BMW कार निकाल कर रमेश चल पड़ा अपने शहर की ओर जाने वाली सड़क पर। रात के आठ बजने वाले थे। इस सड़क पर मात्र तीन घंटे की यात्रा से विवेकपुर पहुँचा जा सकता था, जबकि एक अन्य सड़क से वहाँ पहुँचने में पाँच घंटे लग जाते थे। अधिकांश यात्री फिर भी लम्बा वाला रूट ही पसंद करते थे। कहा जाता था कि शॉर्ट रूट वाली यह सड़क अभिशप्त थी। रमेश रंजन स्वभाव से निर्भीक तो था ही; रोमांचक घटनाओं से रूबरू होना व आगे बढ़ कर ख़तरों से खेलना उसकी हॉबी थी। जानते हुए भी कि इस हाईवे पर बहुत दुर्घटनाएँ होती हैं, उसने रात होते हुए भी यही रास्ता चुना।
   सुनसान सड़क पर कार सामान्य रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी। रमेश की ड्राइवर साइड वाली विंडो खुली हुई थी। साँय-साँय करती हवा कार की खिड़की में प्रवेश कर डरावना शोर पैदा कर रही थी और उसकी ठंडक बदन में सिहरन भी पैदा कर रही थी। रमेश ने विंडो बंद कर दी। कार के म्यूज़िक सिस्टम से धीमी आवाज़ में प्रसारित हो रही पुराने गाने की धुन विंडो बंद कर देने से अधिक स्पष्ट व मधुर लगने लगी थी। रमेश स्थिर दृष्टि से ड्राइव कर रहा था, किन्तु उसके कान उस स्वर-लहरी की ओर थे। शाम को हुई वर्षा से भीगी हुई सड़क अभी भी पूरी तरह से नहीं सूखी थी। सड़क के दोनों ओर कतारों में सजे पेड़ कार की गति की विपरीत दिशा में भागते प्रतीत हो रहे थे। कार सामान्य गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती जा रही थी।
   अनायास ही रमेश ने सहम कर तेज़ी से ब्रेक लगाया, जिससे कार के पहिये एक दर्द भरी आवाज़ के साथ कुछ दूरी तक फिसल गये। गनीमत यह रही कि सीट-बेल्ट बंधा हुआ था और रमेश संतुलन स्थापित करने में भी समर्थ रहा। उसने देखा, एक सियार पेड़ों के बीच से निकल कर सामने की तरफ जाने के लिए कार के आगे आ गया था। सियार को तो बचा लिया था, किन्तु उसकी इस हरकत ने रमेश की सांसें ऊपर-नीचे कर दी थीं। कुछ संतुलित हो कर रमेश ने कार आगे बढ़ाई। घड़ी में समय देखा, सवा नौ बज रहे थे, जबकि अभी तक 60 कि.मी. का फ़ासला ही तय हुआ था। स्वभाव के विपरीत उसने कार की गति बढ़ा कर 80 कि.मी./ घंटा कर दी। थोड़ी दूर ही चला था कि एक बार फिर हलके-से ब्रेक के साथ वह स्टीयरिंग की ओर झुक आया। इस बार एक चमगादड़ पेड़ों के झुरमुट से निकल कर कार के फ़्रंट ग्लास से आ टकराया था।
  सिर के बालों पर हाथ फिराते हुए रमेश के चेहरे पर एक स्मित उभर आई, 'दुर्घटना होने के लिए तो ऐसी छुट-पुट घटनाएँ ही काफ़ी हैं, बेचारी सड़क क्या करे!'
   रमेश फिर सावधानी से ड्राइव करने लगा।
 ग्यारह बजने वाले थे और विवेकपुर अब करीब चार कि.मी. दूर रह गया था। उसी समय एक कार पीछे से तेज़ गति से आई और उसे ओवर टेक कर आगे कुछ ही दूरी पर स्थित घुमाव पर से मुड़ गई। यह इस सड़क का अब तक का पहला मोड़ था और आगे विवेकपुर तक की सड़क लगभग सीधी थी। रमेश ने अनुमान लगाया, उस कार की रफ़्तार 110 कि.मी. से ऊपर ही रही होगी। मोड़ पर उस कार के ड्राइवर ने रफ़्तार कम अवश्य कर दी थी। रमेश ने भी मोड़ को पार किया। मोड़ के आगे सड़क के किनारे वाले सभी पेड़ दूर-दूर लगे हुए थे। रमेश ने देखा, आगे वाली कार ने अपनी गति पुनः तेज़ कर ली थी।
   विवेकपुर अब तीन कि.मी. दूर ही रहा होगा और आगे वाली कार रमेश की कार से करीब पौन कि.मी. दूर होगी। कुछ ही क्षणों में एक तेज़ आवाज़ उस सुनसान वातावरण में गूँजी। रमेश ने देखा आगे वाली कार सड़क से लगभग दस फीट ऊपर उछली और धमाके की आवाज़ के साथ वापस सड़क पर गिर कर आग का गोला बनती हुई पास में स्थित गहरी खाई में लुढ़क गई। इसी दौरान एक चीख भी वातावरण में गूंजती सुनाई दी। कार में बैठी सवारियों का क्या हश्र हुआ होगा, कल्पना ही की जा सकती थी।
  हतप्रभ रमेश ने कार सड़क की साइड में रोक दी। वह बुरी तरह से घबरा गया था। उसने अनुमान लगाया, शायद उस कार का टायर बर्स्ट हो गया होगा, किन्तु कार का यूँ उछलना उसकी समझ से परे था। उसने अपनी कार धीरे-धीरे आगे बढ़ाई व दुर्घटना-स्थल के पास ला कर रोक दी। कार किनारे लगा वह नीचे उतरा और सड़क के किनारे खड़े हो कर नीचे की ओर देखा, ढ़लान वाली उस खाई में कार क्षत-विक्षत पड़ी थी। उसमें से आग की लपटें निकल रही थीं अतः अन्धेरे में भी दिखाई दे रही थी। कार में अब किसी जीवित व्यक्ति की सम्भावना मानना किसी अतिआशावादी या विक्षिप्त मनुष्य की सोच ही हो सकती थी, यह विचार कर रमेश पुनः कार में आ बैठा और आगे बढ़ा। उसने देखा, पीछे पौन-एक कि.मी. की दूरी पर एक और कार तेज़ गति से आ रही थी।अभी आधा कि.मी. ही चला होगा कि फिर से वैसा ही धमाका! आगे तो कुछ भी नहीं हुआ था, अलबत्ता बैक व्यू मिरर में जो कुछ दिखाई दिया, उसे देख कर रमेश जैसे कठोर कलेजे वाले व्यक्ति की भी रूह काँप उठी। एक और कार लगभग उसी स्थान पर आग का गोला बन कर खाई में गिर रही थी।
    रमेश की हिम्मत नहीं हुई कि वह पीछे लौट कर देखे। ऐसा क्यों हुआ और अब तक क्यों होता आ रहा है, यह उसकी समझ से परे था। इस सड़क पर पिछले आठ-नौ माहों से हो रहे ऐसे हादसों के बारे में उसने सुना था, अखबारों में भी पढ़ा था और आज प्रत्यक्ष देख भी लिया।
   रमेश की ज़िन्दगी में यह ऐसा पहला वाक़या था जिसे समझने में वह स्वयं को असहाय महसूस कर रहा था।
  घर पहुँच कर, कार पार्क कर दरवाज़े का इंटरलॉक खोला और भीतर जा कर कपड़े बदल कर सीधे ही बेडरूम में चला गया। पत्नी जूही गहरी नींद सो रही थी सो उसे डिस्टर्ब न कर, वह भी सो गया। बड़ी देर बाद उसे नींद आई।
  अगले दिन सबसे पहले रमेश ने अपने एक मित्र को फोन किया जो तीन दिन पहले ही इंटोला जा कर लौटा था। उसकी कुशलता के समाचार जानने के बाद वह कुछ आश्वस्त हुआ। जूही को सारा मामला बता कर रमेश जल्दी ही घर से निकला। वह सीधे एस.पी. खांडेकर साहब के ऑफ़िस में पहुँचा। उसका कार्ड देखते ही उन्होंने उसे बुला लिया।
  "आओ भाई रमेश रंजन जी, आज कैसे रास्ता भूल गये?" -एस.पी. साहब ने बेतकल्लुफी से पूछा।
"सर, आपने तो मुझे याद किया ही नहीं अभी-अभी, सो मैं ही चला आया। दरअसल सर, विवेकपुर-इंटाला हाईवे पर निरन्तर हो रही दुर्घटनाओं के बारे में कुछ जानकारी लेने आया था।" -मुस्कराते हुए रमेश ने जवाब दिया।
 "भई रमेश जी, ऊपर से तो कोई आदेश है नहीं इस मामले में, तो मैं आपकी फ़ीस तो दे नहीं सकूँगा और वैसे भी हमारा विभाग इसकी छानबीन कर चुका है।"
"किस नतीजे पर पहुँचे हैं आप?"
"नतीजा तो कुछ विशेष संतोषप्रद नहीं है। कुछ अधिकारी कहते हैं कि किसी शातिर बदमाश या आतंककारी का दिमाग इसके पीछे काम कर रहा है, तो कुछ कहते हैं कि कोई अलौकिक शक्ति यह काम कर रही है।"
"लेकिन सर, मकसद! इसके पीछे मकसद क्या हो सकता है? आपका कानून तो मकसद के सहारे ही आगे चलता है न?"
  एस.पी. साहब कुछ क्षण खामोश रहे, फिर बोले- "हाँ रमेश जी, सही कह रहे हो। बिना मकसद कोई अपराध नहीं हुआ करता। अब हम करें भी तो क्या? काम भी इतना ज़्यादा है कि इस ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा सका। आप तो जानते ही हो कि कोरोना वायरस के कारण चल रहा लॉक डाउन अभी हाल ही ख़त्म हुआ है। उसमें कितना बिज़ी था हमारा स्टाफ़! अब देखते हैं, क्या हो सकता है?"
 "सर, अगर मैं बिना फ़ीस अपनी सेवाएं दूँ तो आपको कोई ऐतराज़ होगा? आप से तो काम वैसे भी मिलता ही रहता है।" -रमेश ने एक तरह से अपना प्रस्ताव रखा।
 "नेकी और पूछ-पूछ! अरे, इसमें हमें क्या ऐतराज़ हो सकता है? मैं आज ही उच्चाधिकारियों से परमिशन ले कर जाँच का आदेश आपके नाम कर देता हूँ।"
  रमेश को एक घंटे में ही आदेश प्राप्त हो गया। उसने स्वयं ने कल जो कुछ देखा था, उसके कारण उसके दिमाग़ में जासूसी के कीड़े कुलबुला रहे थे। वह इन भयावह हादसों की तह तक जाना चाहता था।
  नज़दीक वाले कॉफी-हाउस में जा कर उसने अपने लिए एक कॉफी का ऑर्डर दिया। कॉफी की सिप लेते-लेते वह गम्भीरता से इस विषय में सोचने लगा। वह अभी कॉफी ख़त्म भी नहीं कर पाया था कि पास की टेबल पर एक पुराने परिचित को कॉफी पीते देखा। नज़र मिलते ही उसने रमेश को पहचान लिया और अपना कप ले कर रमेश की टेबल पर आ गया। हाय-हेलो के बाद एक-दूसरे के बारे में जानकारी प्राप्त करने का सिलसिला चला। रमेश के दिमाग़ में आया कि उस सड़क पर हो रही दुर्घटनाओं के विषय पर उससे बात कर के देखा जाए।
 "चन्दन जी, विवेकपुर-इंटोला हाईवे पर इन दिनों जो दुर्घटनाएँ हो रही हैं, उनके विषय में आपका क्या ख़याल है?"
"ओह, तो आपके भीतर का जासूस इसमें भी कुछ तलाश रहा है। मुझे तो इस सिलसिले में कोई जानकारी नहीं है। वैसे मैंने सुना है कि उस इलाके के थानेदार ने काफी खोजबीन की है, लेकिन कुछ हाथ नहीं लगने से चुप हो कर बैठ गया है।"
 'थानेदार! अरे, मुझे तो उसका ध्यान पहले ही आ जाना चाहिए था।', रमेश ने सोचा और फिर चन्दन जी से औपचारिक विदा ले कर वहाँ से सीधा थाने पर पहुँचा। थानेदार किसी अभियुक्त से सवाल-जवाब कर रहा था सो उसे कुछ देर इन्तज़ार करना पड़ा। इसी दौरान घर से जूही का फोन  आ गया। 
 "सुनो जी! कब तक आओगे ? दो बज गये हैं, लंच नहीं लेना है क्या आज?" -जूही बोल रही थी। 
"आज तो तुम्हें लंच अकेले ही करना होगा डार्लिंग! मैं थोड़ा व्यस्त हूँ तो बाहर ही कर लिया है मैंने।" -रमेश ने झूठ बोला।
"तुम भी ना!" -झुंझला कर जूही ने फोन काट दिया। 
थानेदार ने भीतर बुलवा लिया और हाथ मिला कर रमेश से वहाँ आने का मकसद पूछा। 
"थानेदार साहब, मैं आपका ज़्यादा समय नहीं लूँगा। क्या आप मुझे विवेकनगर-इंटोला हाई वे की दुर्घटनाओं के बारे में कुछ बता सकेंगे? एक्चुअली, एस.पी. साहब ने मुझे इस केस में अनुसन्धान के लिए कहा है।"
'आ गया स्साला अपनी टांग घुसेड़ने के लिए।', मन में गुस्साते हुए थानेदार प्रकट में बोला- "शर्मा जी, अभी मैं थोड़ा एक केस में बिज़ी हूँ इसलिए समय नहीं दे सकूँगा। आप इस इलाके में हुई दुर्घटनाओं से सम्बंधित फाइल देख लीजिये। मैं फाइल आपको दिलवा देता हूँ। आप ए.एस.आई. के रूम में बैठ कर इसकी स्टडी कर सकते हैं।"
  रमेश रंजन ने ए.एस.आई. के रूम में जा कर फाइल देखना प्रारम्भ किया। फाइल में पिछले वर्ष में हुई समस्त दुर्घटनाओं का क्रमवार ब्यौरा था। उसने विवेकनगर-इंटोला हाई वे पर हुई दुर्घटनाओं वाले पृष्ठों पर फ्लैग लगा कर सिलसिलेवार देखना प्रारम्भ किया। उसने नोटिस किया कि इन दुर्घटनाओं की शुरुआत गत दिसम्बर  के मध्य से हुई थी और दिसम्बर से मार्च तक में कुल 12 कार दुर्घटना-ग्रस्त हुई थीं। प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा देखी गईं तीन घटनाओं का विस्तृत ब्यौरा पढ़ने पर रमेश ने पाया कि तीनों दुर्घटनाओं में घटनाक्रम लगभग कल उसकी आँखों के सामने हुई दुर्घटना जैसा ही था। तेज़ गति से आ रही कारें उस एक ही स्थान पर आ कर दुर्घटनाग्रस्त हुई थीं। शेष दुर्घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी कोई नहीं था, केवल कारों के खाई में गिरने का ही जिक्र था। कुछ फोटोग्राफ़्स भी फाइल में नत्थी किये हुए थे, जिनमें खाई में पड़ी कारें नज़र आ रही थीं।
    सहसा उसकी नज़र 18,दिसम्बर को अख़बार में छपे दुर्घटना के एक विवरण पर पड़ी जिसमें कोई कार तो दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुई थी, लेकिन उसके अनुसार इस हाईवे पर विवेकनगर से दो कि.मी. दूर झोपड़ी में रहने वाला एक आदिवासी तेज़ गति से आती कार के लपेटे में आ कर मारा गया था। उसकी लाश उस समय नहीं मिली थी। दिसम्बर की 16 तारीख को हुई एक दुर्घटना के कारण एक कार के खाई में गिर जाने की सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा खाई में उतर कर की गई तलाशी के दौरान इस मौत का पता लगा था। मृतक का कंकाल भी खाई में कार से कुछ दूरी पर पड़ा मिला था। पोस्टमार्टम-रिपोर्ट व फोरेंसिक जाँच के अनुसार यह कंकाल लगभग एक माह पहले मरे व्यक्ति का होना माना गया था और मौत किसी तीव्र गति से आ रहे वाहन, सम्भवतः कार की टक्कर से कारित होना माना गया था। अगले दिन पूछताछ के बाद उस आदिवासी के एक रिश्तेदार ने कंकाल के गले में पहने तांबे के एक गहने के आधार पर बताया था कि वह आदिवासी युवक वहाँ सड़क के दूसरी ओर कुछ अंदर की तरफ बनी एक झोपड़ी में रहता था और झोपड़ी के पास की अपनी ज़मीन में खेती करता था। उसने शादी नहीं की थी और वह अकेला ही वहाँ रहा करता था। मृतक के रिश्तेदार ने यह भी बताया कि मृतक के द्वारा पूर्व में यह इच्छा व्यक्त की गई थी कि जब भी वह मरे, उसे उसकी झोपड़ी में ही दफ़नाया जाए। तदनुसार सरकार की विशेष स्वीकृति ले कर प्रशासन ने उसका कंकाल उसकी झोपड़ी में ही दफ़ना दिया था। 
   रमेश को इस घटना ने सोचने को विवश कर दिया। पाँच मिनट के लिए उसने अपनी आँखें बंद कीं। गहनता से सोचने का उसका यही तरीका था। 
  सहसा उसके दिमाग़ में कुछ कौंधा, उसने आँखें खोलीं और फिर आधा घंटा वहाँ और रुक कर कुछ नोट्स बनाये। ए.एस.आई और फिर थानेदार को धन्यवाद कह कर वह वहाँ से लौट आया। थानेदार ने उसके अध्ययन का परिणाम जानना चाहा था, किन्तु उसने 'कुछ विशेष नहीं' कह कर टाल दिया। 
  रमेश ने घर जाने से पहले रेस्तरां में जा कर खाना खाया, क्योंकि उसने जूही को कह दिया था कि वह लंच बाहर कर चुका है। 
  अगले दिन सुबह सो कर उठने तक सारा चित्र उसके दिमाग़ में स्पष्ट हो चुका था। 
 यद्यपि रमेश अलौकिक शक्तियों या घटनाओं में यक़ीन नहीं करता था, तथापि इस केस में उसका दिमाग उसे इसी दिशा में सोचने को विवश कर रहा था। वह कार से उस सड़क से सकुशल आया था और अभी तीन दिन पहले ही उसका एक मित्र भी उसी हाई वे से हो कर सुरक्षित लौटा था। दोनों मामलों में कॉमन बात यह थी कि वह स्वयं और उसका मित्र कार तेज़ गति से नहीं चलाते हैं। रमेश ने स्वयं ने देखा था कि दुर्घटनाग्रस्त होने वाली उसके आगे जाने वाली कार और पीछे आ रही कार, दोनों ही बहुत तेज़ गति से चल रही थीं और बिना किसी कारण-विशेष के सड़क पर एक ही जगह से उछल कर वापस सड़क पर गिरीं और फिर खाई में जा गिरी थीं। 
  अनुमान लग रहा था कि इस तरह की घटनाओं के पीछे उस मृतक आदिवासी की कुपित आत्मा ही है। सम्भवतः वह आदिवासी अपनी झोपड़ी के पास ही सड़क पर किसी तेज़ रफ़्तार से आ रही कार की टक्कर से मारा गया था और फिर कार-चालक द्वारा उसकी लाश को खाई में फेंक दिया गया होगा। 
  '... और उसके बाद से जो भी कार उस सड़क पर तेज़ गति से आती है, उसका उसी जगह पर वही अंजाम होता है जैसा मैंने स्वयं ने अपनी आँखों से देखा है। वह कुपित आत्मा अपनी मौत का प्रतिशोध हर तेज़ गति से चल रही कार से लेती है। जो कारें 100 कि.मी./ घंटा की रफ़्तार से कम गति से उस सड़क से आती हैं, वही सुरक्षित रह पाती हैं।', रमेश रंजन ने निष्कर्ष निकाला। 
  अगले ही दिन प्रातः रमेश रंजन एस.पी. साहब से मिला। उसने अपनी अवधारणा से उन्हें अवगत कराया। 
एस.पी. खांडेकर ने मुस्करा कर प्रशंसा भरी नज़रों से रमेश की ओर देखा और बोले- "मान गये रमेश जी आपको! आप अपराधियों के ही नहीं, अब तो भूतों के कैसेज़ हल करने में भी पारंगत हो गए हो। अच्छा अब यह बताओ, इस समस्या का समाधान क्या होगा? हम लोगों को यूँ मरने तो नहीं दे सकते।" -कहते-कहते खांडेकर सोचने लगे। 
 "सर, एक काम कर सकते हैं। आप इस हाईवे के विवेकपुर छोर पर और इंटोला छोर पर बड़े-बड़े अक्षरों में एक सूचना-पत्र लगवा दें कि इस हाई वे पर 90 कि.मी./घंटा की गति से वाहन चलाना मना है। अवज्ञा करने वाले से 5000 रुपया जुर्माना वसूला जायगा।"
 "मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रहा था, किन्तु यदि दुर्घटनाओं के मामले में आपकी सोच सही है तो तेज़ गति से आने वाला वाहन-चालक तो जुर्माना देने से पहले ही अल्लाह को प्यारा हो जाएगा रमेश जी!" -मुस्कराते हुए एस.पी. साहब बोले। 
 "फ़िलहाल तो यह उपाय कर के देख लें सर! फिर एकाध सप्ताह में मेरे एक परिचित अघोरी बाबा से कुछ उपचार करवाता हूँ, अगर कुछ हो सका तो।" -रमेश ने एस.पी. साहब की आँखों में झाँक कर कहा। 
 "ठीक है शर्मा जी! आप अपने हिसाब से काम कीजिए। आपको जो सुविधा चाहिए, मुहैया करवा दी जाएगी। इधर मैं सूचना-बोर्ड बनवा कर आज-कल में ही लगवाने की व्यवस्था करवाता हूँ।... और हाँ, मैं आपको इस केस में भी फ़ीस दिलवाने का पूरा प्रयास करूँगा। बहुत बड़ा काम किया है आपने।" -एस.पी. साहब पुनः मुस्कराये। 
   एस.पी. खांडेकर से विदा ले कर रमेश वापस घर लौटा। अघोरी बाबा नित्यानंद विवेकपुर से 53 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक गाँव के पास अपनी एक कुटिया में रहते थे। रमेश आज ही उनसे संपर्क करने का निश्चय कर लंच के बाद बाबा से मिलने निकल गया। बाबा की कुटिया के पास मैदान में कार पार्क कर वह बाबा के पास पहुँचा। बाबा धूनी रमाये कुछ साधना में लीन थे। उनके चेले नारायण ने रमेश को कुछ देर इन्तज़ार करने के लिए कह कर बैठने के लिए आसन दिया। 
  बाबा ने साधना पूरी होने के बाद आँखें खोलीं और रमेश को देख कर मुस्कराये। रमेश ने प्रणाम किया और अपने आने का उद्देश्य सविस्तार बताया। 
 बाबा ने कुछ देर के लिए अपनी आँखें बंद की और पुनः खोल कर बोले- "मंगलवार की सुबह पांच बजे आ जाओ। हमें सात बजे के पहले वहाँ पहुँच जाना होगा। अभी तीन दिन हैं तुम्हारे पास। तब तक तुम उस प्रेत के कंकाल को झोपड़ी से निकलवाने के आदेश करवा लो। वहां तंत्र-साधना के लिए आवश्यक सामग्री नारायण से लिखवा लो। हमें कंकाल भी हमारे वहाँ पहुँचने से पहले ही निकला हुआ तैयार मिलना चाहिए। हम ठीक साढ़े सात बजे अपना काम शुरू कर देंगे।"
  बाबा को पुनः अभिवादन कर रमेश नारायण से सामग्री की सूची बनवा कर अपने साथ ले आया। एस.पी. साहब से मिल कर झोपड़ी से प्रेत का कंकाल निकलवाने के लिए उचित आदेश करवाने व दो गार्ड्स की सुरक्षा में कंकाल झोपड़ी पर मंगलवार की सुबह तैयार मिले, ऐसा करने हेतु रमेश ने अनुरोध किया। एस.पी. साहब ने आश्वासन दिया कि ऐसी तैयारी कर ली जाएगी। संतुष्ट हो कर रमेश लौट गया। 
  मंगलवार को सुबह रमेश सामग्री के साथ बाबा की कुटिया पर पहुँच गया। चेले को साथ ले कर बाबा रमेश के साथ निर्धारित समय पर हाईवे पर झोपड़ी के पास पहुँच गये। टूटी-फूटी झोपड़ी में दो गार्ड कंकाल के साथ बैठे थे। 
  अब बाबा की कार्यवाही शुरू हुई। सड़क के किनारे आसन बिछा कर चेले ने हवन-मंडप तैयार कर दिया और मंडप के पास कंकाल को सुला दिया। 
  बाबा ने मंत्रोच्चार प्रारम्भ किया। रमेश भी एक ओर बैठा  मौन रह कर यह सब देख रहा था। तंत्र-विद्या के मन्त्रों का उद्घोष एवं हवन से उठ रहा धुआँ उस शांत वातावरण को भयावह बना रहा था। 
   आधे घंटे के तांत्रिक कर्म के बाद अचानक एक अट्टहास वातावरण में गूंजा और बाबा का चेला नारायण अपनी जगह पर गिर कर खाई की तरफ खिंचा जाता दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसका हाथ पकड़ कर जबरन खाई की ओर ले जा रहा है। दोनों गार्ड्स ने फुर्ती से नारायण को थामने की कोशिश की, किन्तु उसे रोक पाना सम्भव नहीं हो रहा था। बाबा ने घबरा कर एक मन्त्र पढ़ कर चम्मच से घी हवन-कुण्ड में छोड़ा, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। नारायण चीखता हुआ खाई की ओर खिंचता जा रहा था। गार्ड्स ने उसके दोनों पाँव अभी भी पकड़ रखे थे। नारायण की गर्दन खाई की तरफ झुक गई थी और वह और आगे की ओर जाता जा रहा था। 
  बाबा को अचानक एक उपाय सूझा और उन्होंने शीघ्रता से कंकाल के दोनों हाथों को पत्थर से तोड़ दिया। पुराने हो गये कंकाल के दोनों हाथों वाले भाग टूट कर अलग हो गये। आश्चर्यजनक रूप से नारायण का खाई की तरफ खिसकना बंद हो गया। गार्ड्स नारायण को उठा कर थाम कर आसान तक वापस ले आये। 
  कंकाल से उठती हुई एक दर्द भरी आवाज़ वातावरण में गूँजी- "क्यों परेशान कर रहे हो मुझे?... छोड़ दो मुझे।"
"छोड़ देंगे, लेकिन तुम इस लोक को छोड़ कर चले जाओ। तुम कितने ही लोगों को मार चुके हो।" -बाबा ने कहा। 
"मुझे भी तो सड़क पार करते समय तेज़ी से आती कार ने कुचल कर मार डाला था। मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था?"
"देखो, उस एक आदमी की ग़लती के लिए तुम कई लोगों को सज़ा दे चुके हो। हम वादा करते हैं कि अब  यहाँ से कोई गाड़ी तेज़ रफ़्तार से नहीं निकलेगी। निर्दोष लोगों को अब सज़ा मत दो और मेहरबानी कर के चले जाओ। मैं तुम्हारी मुक्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ।" -कहते हुए बाबा ने एक मन्त्र पढ़ा और हवन-कुण्ड में घी छोड़ा। 
   पाँच मिनट तक सब ने प्रतीक्षा की। कंकाल से फिर कोई आवाज़ नहीं आई। आत्मा मुक्त हो चुकी थी। 
  वहाँ मौजूद हर व्यक्ति ने चैन की सांस ली। 
  वह हाईवे अब उस प्रेतात्मा के कोप से मुक्त हो चुका था। 
  
                                                                   ***********



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                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह