मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है। बहार आएगी कभी, ये भरोसा नहीं रहा, पतझड़ का आलम बहुत लम्बा हो गया है। रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र का सिलसिला बेइन्तहां हो गया है। या तो मैं हूँ, या फिर मेरी ख़ामोशी है यहाँ, सूना - सूना सा मेरा जहां हो गया है। यूँ तो उनकी महफ़िल में रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा हो गया है। *****
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 सितंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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"पांच लिंकों का आनन्द" के पटल पर मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार भाई रवीन्द्र जी! मैं अवश्य उपस्थित होऊँगा
हटाएंशानदार
जवाब देंहटाएंआभार महोदया!
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2022) को "भंग हो गये सारे मानक" (चर्चा अंक 4554) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद शुभा जी!
हटाएंचर्चा मंच के पटल पर मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार डॉ. शास्त्री जी! मैं अवश्यमेव उपस्थित होऊँगा
जवाब देंहटाएंवाह! गागर में सागर भर दिया है। इन चंद पंक्तियों में हिंदी के प्रति प्रेम और भक्ति झलक रही है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार महोदया!
हटाएंसच कहा सर आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर भाव।
सादर प्रणाम
प्रणाम आ. अनीता जी... आभार!
हटाएंहिंदी के प्रति अप्रतिम भाव ।
जवाब देंहटाएंजी, हार्दिक धन्यवाद!
हटाएंभावप्रवण सुंदर लघु रचना।
जवाब देंहटाएंहिन्दी तो स्वयं मां सरस्वती है ... बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंजी, धन्यवाद!
हटाएंवाह !!!
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब।
हार्दिक आभार सुधा जी!
हटाएंबहुत ही सुंदर भाव...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय जी!
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