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वक्त की लकीरें (कहानी)


(1)

सिनेमाघर में सेकण्ड शो देख कर एक रेस्तरां में खाना खाने के बाद घर लौट रहे प्रकाश ने जैसे ही मेन रोड़ पर टर्न लिया, देखा, सड़क पर बायीं तरफ एक युवती भागी चली जा रही है। प्रकाश को भी उधर ही जाना था। स्कूटर बढ़ा कर वह युवती के पास पहुँचा। भागते-भागते थक जाने के कारण वह हाँफ़ रही थी और ठंडी रात होने के बावज़ूद पसीने से भरी हुई थी। स्कूटर धीमा कर उसने युवती से भागने का कारण पूछा तो उसने कहा- "वह मेरा पीछा कर रहा है। प्लीज़ मुझे बचा लो।"

प्रकाश ने पीछे मुड़ कर देखा, एक बदमाश-सा दिखने वाला व्यक्ति उनकी तरफ दौड़ा चला आ रहा था, जो अब केवल दस कदम की दूरी पर था। प्रकाश ने फुर्ती से स्कूटर रोक कर युवती को पीछे बैठ जाने को कहा। युवती स्कूटर पर बैठती, इसके पहले ही वह बदमाश उनके पास पहुँच गया। प्रकाश स्कूटर से उतर कर युवती व बदमाश के बीच खड़ा हो गया। एक-दो राहगीर उस समय उनके पास से गुज़रे, किन्तु, रुका कोई नहीं। बदमाश ने चाकू निकाल कर प्रकाश के सामने लहराया और बोला- "बाबू, तुम हमारे झमेले में मत पड़ो। इस लड़की को मुझे सौंप दो।"

वह बदमाश पेशेवर गुण्डा प्रतीत हो रहा था, किन्तु मज़बूत कद-काठी का व कसरती बदन वाला प्रकाश उससे डरा नहीं, कड़क कर बोला- "खैरियत चाहते हो तो उल्टे पाँव यहाँ से दफा हो जाओ।"

बदमाश को प्रकाश से इतनी हिम्मत की उम्मीद नहीं थी, उसने क्रोध में आकर आक्रमण के लिए चाकू वाला हाथ ऊपर उठाया। प्रकाश ने अविलम्ब उसकी कलाई थाम कर मरोड़ दी। चाकू उसके हाथ से छिटक कर सड़क पर जा गिरा। बदमाश को और अवसर न दे कर प्रकाश ने एक बलशाली घूँसा उसके जबड़े पर जमा दिया। वह लड़खड़ा कर पीछे हटा। प्रकाश ने उसे सम्हलने का अवसर भी नहीं दिया और तड़ातड़ उस पर घूंसों की बरसात कर दी। बदमाश अब बुरी तरह से जख़्मी हो कर सड़क पर पड़ा था। प्रकाश ने उसे उठने की स्थिति में न देख कर युवती की तरफ देखा। युवती के लिए अभी वाला घटनाक्रम अविश्वसनीय था। वह आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से उसकी तरफ देख रही थी। प्रकाश ने स्कूटर स्टार्ट कर युवती को बैठने को कहा। 

प्रकाश का घर अभी तीन किलोमीटर दूर था। उसने स्कूटर की स्पीड बढ़ा दी और पूछा- "तुम कौन हो? वह बदमाश तुम्हारा पीछा क्यों कर रहा था?"

"मेरा नाम केतकी है। दसवीं तक पढ़ी हूँ। मुझे कोठे पर बैठने के लिए इन लोगों ने मजबूर कर रखा था। यह मुस्टण्डा कोठे की मालकिन का गुर्गा है और हम लोगों की चौकसी करता है। सारी कहानी मैं आप को बताऊँगी, पर उस बदमाश ने आपके स्कूटर का नंबर देख लिया होगा। आप कौन हैं, वह लोग आपके पीछे पड़ जायँगे।" 

"चिंता मत करो, मेरा स्कूटर नया है। अभी इस पर नंबर लिखा हुआ नहीं है। मेरा नाम प्रकाश वेदपुरा है। तुम मुझे अपना भाई समझ सकती हो।"

"नहीं प्रकाश जी, मेरे भाई मत बनो। मुझे 'भाई' शब्द से नफ़रत है।"

प्रकाश चौंक पड़ा। बात बदल कर उसने पूछा- "तुम्हें कहाँ छोड़ूँ? तुम्हारा घर कहाँ है?"

"मेरा कोई घर नहीं है प्रकाश जी! मेरा घर होता तो मैं कोठे पर क्यों होती?"

"देखो, मेरी पत्नी अभी उनके पीहर गई हैं और मैं घर में अकेला हूँ। और कोई व्यवस्था होने तक मेरे घर पर रहने में तुम्हें ऐतराज़ तो नहीं होगा न?"

"ऐतराज करने का हक़ वेश्या के पास कहाँ होता है प्रकाश जी? आपकी बहुत मेहरबानी होगी, अगर इस बदनसीब औरत को आप अपने यहाँ शरण देंगे।"

प्रकाश ने अब कुछ नहीं कहा। तीन मोड़ों के बाद उसकी कॉलोनी आ गई थी। घर पहुँचने के बाद उसने केतकी को एक कमरे में ठहराया। केतकी ने देखा, कमरे में पलंग, आदि सब सुविधाओं के साथ ही वॉशरूम भी था। यह कमरा कम ही काम में आता था, लेकिन कमरे में हर चीज़ करीने से सजाई गई थी। केतकी ने अनुमान लगा लिया कि प्रकाश की पत्नी निश्चित ही एक सुघड़ गृहिणी है। कमरे में एक आलमारी में रखी तस्वीर में प्रकाश के साथ एक औरत दिखाई दे रही थी। ‘बहुत सुन्दर है प्रकाश जी की पत्नी’, उसने मन ही मन कहा। 

"तुम्हें भूख तो नहीं लग रही? क्या कुछ खाने के लिए लाऊँ? -प्रकाश ने पूछा। 

"नहीं, खाना मुझे वहाँ मिल गया था।"

प्रकाश खाना तो खा कर आया था, लेकिन अब उसे चाय की तलब लग रही थी। उसने किचन में जा कर दो कप चाय बनाई व चाय ले कर केतकी के कमरे में आ कर कुर्सी पर बैठ गया व एक कप केतकी को देते हुए बोला- "चाय पीओ केतकी। हम लोग ठण्ड में आये हैं और तुमने कुछ गर्म कपड़ा भी नहीं पहन रखा है।"

"बहुत मेहरबानी! सच में ही मुझे इस समय चाय की ज़रुरत थी।" -चाय हाथ में ले केतकी ने कृतज्ञ दृष्टि उस पर डाली। वह जानती थी कि कोठे की मालकिन खाने-पीने का ध्यान तो सब का रखती थी, पर अगर वह अभी कोठे पर होती तो मांगने पर भी उसे इस समय तो चाय नहीं ही मिलती। 

चाय ख़त्म कर प्रकाश ने केतकी से विदा लेते हुए कहा- "गुड नाइट केतकी! अब तुम सोओ। कल सुबह  मिलते हैं।"

लगभग साढ़े बारह का समय था। दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुन कर केतकी जाग गई। उसने दरवाज़ा खोल कर देखा, प्रकाश खड़ा था। आँखें मसल कर मुस्कुराई केतकी और एक ओर हट कर बोली- "आइये  प्रकाश जी!" 

"सॉरी केतकी, तुम्हारी नींद में खलल डाला, लेकिन...।"

"लेकिन नींद नहीं आ रही थी, यही न?  रात का समय...पत्नी मायके गई हो और एक जवान औरत घर में हो, वह भी मेरे जैसी, तो नींद कैसे आ सकती है? आखिर मर्द ही तो हो। रहा सवाल मेरी नींद का, तो हम जैसी औरतों को सोने कौन देता है प्रकाश बाबू?" -केतकी ने कहा और ठहाका लगा कर हँस पड़ी।

(2)

"बकवास बंद करो केतकी!" -प्रकाश चिल्लाया। केतकी विस्फारित नेत्रों से उसे देखने लगी। कुछ ही क्षणों में स्वयं को संयत कर प्रकाश ने पुनः कहा- “अगर किसी मजबूर लड़की के साथ ज़्यादती करने को मर्दानगी कहते हैं तो रेपिस्ट घृणा के पात्र नहीं होते, इज़्ज़त से देखे जाते। ऐसे नारकीय पुरुष तो नामर्द कहलाने लायक होते हैं।”

“मुझे क्षमा करो प्रकाश जी! मैंने आपके बारे में ग़लत सोच लिया।”

“इसमें तुम्हारी ग़लती नहीं है। दरअसल पुरुष कहलाने वाले कुछ जानवरों ने ही पुरुष की छवि ऐसी बना दी है। मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूँ केतकी और उसके अलावा किसी और के साथ सम्बन्ध की कल्पना भी नहीं कर सकता। अभी सर्दी बढ़ गई है। मुझे रजाई में भी ठण्ड लगने लगी थी, तो मुझे तुम्हारा ख्याल आया और तुम्हें एक अतिरिक्त कम्बल निकाल कर देने के लिए चला आया था। तुमने मुझे अपनी बात पूरी करने का मौका ही नहीं दिया और कुछ भी बोलती चली गईं।” -कमरे में आलमारी को खोल कर उसमें से एक कम्बल निकाल कर केतकी को देते हुए प्रकाश ने अपनी बात समाप्त की। 

“मैं एक बार फिर आपसे क्षमा चाहती हूँ।” -अवाक् केतकी ने रुंधे गले से कहा व आगे बढ़ कर प्रकाश के पाँवों में गिर पड़ी।  

“उठो केतकी! सो जाओ अब, कल सुबह मिलते हैं।” -कह कर प्रकाश अपने कमरे में चला गया। 

केतकी बहुत देर तक अपने भविष्य के बारे में सोचती रही और फिर नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया। अगले दिन नींद खुलने पर सामने दीवार घड़ी पर उसकी नज़र गई तो चौंक पड़ी, सुबह के आठ बज रहे थे। एक लम्बी अंगड़ाई ले कर वह उठी और वॉशरूम में घुस गई। फ्रैश हो कर, वहाँ उपलब्ध टूथपेस्ट अपनी उंगली पर ले कर मंजन किया और स्नान करने के बाद अपने वही वस्त्र पुनः पहन कर कमरे से बाहर निकली। प्रकाश बरामदे में बैठा अख़बार पढ़ रहा था। केतकी को देख वह मुस्कुरा कर बोला- “अच्छे से नींद आई केतकी?”

“जी हाँ प्रकाश बाबू,  कई दिनों बाद आज जी भर कर सोई हूँ।”

“गुड, तुम बैठ कर अख़बार देखो, मैं चाय बना कर लाता हूँ।” 

केतकी ने चारों ओर नज़र घुमाई। बरामदे की मुंडेर पर विभिन्न सजावटी पौधों वाले गमले रखे थे। बाहरी आँगन में पेड़-पौधे दिखाई दे रहे थे। रात को जब वह यहाँ आई थी, अपनी तनावग्रस्त मनःस्थिति के कारण यह मनोरम दृश्य नहीं देख पाई थी। वह उठ कर मुंडेर के पास जा कर खड़ी हो गई। चंपा, सदाबहार, हरसिंगार, आदि खूबसूरत पेड़-पौधों से सजे आँगन को देख उसका मन प्रफुल्लित हो उठा। वह अपने मन की समस्त पीड़ा भूल कर गुनगुनाने लगी- ‘आज मदहोश हुआ जाए रे… मेरा मन, मेरा मन; बिना ही बात मुस्कुराये…  

पांच-सात मिनट में प्रकाश पानी और चाय के कप लिए वापस बरामदे में आ गया। पदचाप सुन कर, गुनगुनाना बंद कर वह पलटी और आ कर कुर्सी पर बैठ गई। 

प्रकाश चाय की घूँटों के साथ अख़बार पढ़ने का आनंद लेता रहा। चाय पीने तक दोनों तक़रीबन खामोश रहे। चाय की आखिरी सिप के बाद कप टेबल पर रख कर प्रकाश केतकी की की ओर उन्मुख हुआ। तब तक केतकी ने भी अपनी चाय ख़त्म कर ली थी। 

“मैं अपनी उत्सुकता का दमन नहीं कर पा रहा, इसलिए पूछ रहा हूँ केतकी! तुमने रास्ते में ऐसा क्यों कहा था कि तुम्हें ‘भाई’ शब्द से नफरत है।”  

“बताती हूँ। कहानी कुछ लम्बी है, आप सुन सकेंगे?”

“अवश्य सुनना चाहूँगा। आज रविवार है और कल भी ऑफिस की छुट्टी है, तो फ्री ही फ्री हूँ।”

“अपने माता-पिता की हम दो संतानें हैं- एक मैं और एक मेरा बड़ा भाई नीतीश। हम दोनों की उम्र में पांच वर्ष का अंतर है। जैसा कि कई घरों में हुआ करता है, मेरे बचपन से ही मम्मी-पापा मेरे भैया को मुझसे अधिक तवज्जो देते थे। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, यह अलग बात है, पर खान-पान से ले कर सभी मामलों में मुझसे भेद-भाव किया जाता था। इसके प्रमाण में कुछ ही घटनाएँ बताने लगी तो भी मेरी कहानी उपन्यास बन जाएगी। इसलिए जैसे फिल्मों में कभी-कभी बचपन की कहानी बताने के बाद स्क्रीन पर लिखा हुआ आता है- ‘बीस साल बाद’ और छोटा बच्चा अचानक जवान हीरो के रूप में दिखाई देता है, उसी तरह मैं अपनी पन्द्रह वर्ष की उम्र से अपनी कहानी की शुरुआत करती हूँ।…मैंने पंद्रह वर्ष की उम्र में दसवीं बोर्ड की परीक्षा पास की थी। भैया दो बार फेल हुए थे, इसलिए उस साल कॉलेज के सेकण्ड ईयर में थे। मेरी पढ़ाई रोक दी गई और भैया आगे पढ़ते रहे। मैं हमेशा फर्स्ट डिवीज़न से पास होती थी। मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं भी आगे की पढ़ाई करूँ, लेकिन मुझे साफ़ मना किया गया यह कह कर कि लड़कियों के लिए पढ़ना ज़रूरी नहीं है। माँ ने दबी जबान से मुझे सपोर्ट किया, लेकिन पिताजी ने उनकी एक न सुनी। मैं मन मसोस कर रह गई।” -केतकी इतना कह कर रुकी और गिलास से दो घूँट पानी पीया। प्रकाश ख़ामोशी से सुन रहा था। 

“आप बोर तो नहीं हो रहे प्रकाश बाबू?” -केतकी ने अपनी कहानी आगे बढ़ने से पहले पूछा। 

“नहीं, नहीं, तुम इत्मीनान से बोलती रहो।” -प्रकाश की उत्सुकता बढ़ रही थी। 

“मैं तीन साल तक घर बैठी रही। मेरी शक्ल-सूरत तो साधारण ही है, जैसी कि आप देख रहे हैं। मेरी शादी के लिए कोशिशें हुईं, लेकिन या तो मैं लड़के वालों को पसंद न आती या फिर लेन-देन पर बात अटक जाती। घर वालों को मैं बोझ लगने लगी थी। मुझे बाहर कहीं जाने की इज़ाज़त नहीं थी। करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर एक परचूनी की दुकान थी। पिताजी और भैया के व्यस्त होने पर कभी-कभी कुछ सामान लेने मुझे वहाँ भेजा जाता था। मैं ज़्यादा सुन्दर भले ही न थी, लेकिन जवान तो हो ही रही थी, तो आते-जाते लोग अन्य लड़कियों की तरह मुझे भी घूरते ही थे। हमारे मोहल्ले का एक लड़का रोहित मुझे वहाँ आते-जाते देखता रहता था। उसने मुझसे कई बार बात करने की कोशिश की। शुरू में तो मैंने उसे लिफ्ट नहीं दी, लेकिन बाद में उससे बातें होने लगी। आप यह तो समझ ही सकते हैं कि जब घर में इंसान को प्यार और अपनापन नहीं मिलता तो वह बाहर कहीं प्यार तलाशता है। मेरे साथ भी वही हुआ प्रकाश बाबू! जल्दी ही हम दोस्त बन गए। हालांकि हमारी मुलाकात कभी-कभार ही होती थी, लेकिन फिर भी कुछ ही दिनों की हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई।” -केतकी ने एक लम्बी सांस ली। 

(3)

“उस लड़के की उम्र क्या थी?”

“मेरा हमउम्र ही था।“

सिर को हल्की-सी जुम्बिश दे कर प्रकाश केतकी के बोलने की प्रतीक्षा करने लगा। केतकी ने कुछ पल विश्राम ले कर फिर कहना शुरू किया- “मैं बहुत सतर्क थी अतः रोहित से मेरी घनिष्ठता के बारे में मेरे घर वालों को हवा तक नहीं लगी।… एक दिन रोहित ने मुझसे कहा- ‘केतकी, तुम घर पर रह कर कुछ भी नहीं कर पा रही हो। तुम्हारा जीवन कुएँ के मेंढक जैसा हो गया है। तुम अपने भविष्य के बारे में क्यों नहीं सोचती हो? मुझे तो तुम्हारे बारे में सोच कर बहुत दुःख होता है यार।’ उसने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था। उसकी बात सुन कर मेरी आँखों में आँसू आ गये, बोली- ‘क्या करूँ रोहित, तुम ही बताओ। शायद मेरी किस्मत में यही लिखा है।’

‘इंसान अपनी किस्मत खुद बनाता है केतकी!…मेरी बात ध्यान से सुनो। एक अंकल से मेरी बहुत अच्छी पहचान है। वह एक पहुँचे हुए डांस-आर्टिस्ट हैं, लेकिन साथ ही बहुत अच्छे इंसान भी हैं। ज़रूरतमंदों की मदद के लिए वह हमेशा तैयार रहते हैं। तुम कहो तो तुम्हारे लिए बात करूँ उनसे।’

‘वह मेरी क्या मदद करेंगे।’

‘अरे, वह तुम्हें डांस सिखाएँगे और एक दिन तुम डांस में माहिर हो जाओगी।’

‘उससे क्या होगा? डांस सीख कर क्या करूँगी मैं? और फिर सीखने के दौरान मैं रहूँगी कहाँ?’

‘केतकी, डांस सीख कर तुम एक डांस-स्कूल खोल सकती हो या फिर थोड़ी एक्टिंग भी सीख कर फिल्म-इंडस्ट्री में घुस सकती हो। अच्छी डांसर के लिए बॉलीवुड में बहुत स्कोप है। मदनगिरि अंकल की वहाँ भी अच्छी पैठ है, वह तुम्हारी ज़रूर मदद करेंगे। पाँच-सात लड़के-लड़कियों को वह फिल्म-इंडस्ट्री में भेज चुके हैं। टी.वी. आर्टिस्ट अंजना भी उनकी ही शिष्या थी।… और हाँ, रहने की जगह के लिए तुम्हें चिंता करने की कोई ज़रुरत नहीं है। अपने घर में दो कमरे उन्होंने बाहर से आने वाली शिष्याओं के ठहरने के लिए ही रखे हुए हैं। उन का सारा खर्च भी वही उठाते हैं। उन्हें इस नेक काम के लिए कई लोगों से डोनेशन मिलता रहता है। बस यूँ समझ लो कि वह इस धरती के फरिश्ता हैं।’

रोहित ने जो आइडिया दिया वह लुभावना तो बहुत था, लेकिन इतना बड़ा कदम लेना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मैंने कहा- ‘रोहित बॉलीवुड में एन्ट्री मिलना इतना आसान नहीं है, जितना तुम बता रहे हो। मुझे किसी ने बताया था, मुंबई में कई लड़के-लड़कियाँ इस कोशिश में अपनी ज़िन्दगी बिगाड़ लेते हैं।… और फिर मैं इतनी सुन्दर भी तो नहीं कि कोई मुझे फिल्मों में लेने की बात सोचे भी।’

‘तुम अपने को इतना नाकाबिल क्यों मानती हो? कौन कहता है, तुम सुन्दर नहीं हो? अगर तुम सुन्दर नहीं होती, तो क्या मैं तुम्हारे पीछे इतना दीवाना होता। केतकी, फिल्मों में चांस नहीं भी मिला तो तुम और मैं मिल कर एक डांस-स्कूल तो खोल ही सकते हैं। फिर हम शादी कर लेंगे और फिर लाइफ में ऐश ही ऐश है।’

‘और हमारे घर वाले? क्या इतनी आसानी से हम अपनी मनमर्जी कर सकेंगे?’

‘इतना सोचती हो तो छोड़ो यार, तुमसे नहीं होगा। क्या घर वालों को बता कर ऐसे फैसले लिए जाते हैं? मैं भी क्या फ़िज़ूल की माथापच्ची कर रहा हूँ। बनी रहो कुएँ की मेंढक और सड़ती रहो घर में।’ -नाराज़गी दिखाता हुआ वह चला गया। मैं घर आने के बाद सोचती रही। मुझे लगने लगा कि अगर मुझे अपनी ज़िन्दगी में कुछ करना है तो उसकी बात मान लेनी चाहिए…।”

केतकी की बात ध्यान से सुन रहे प्रकाश ने उसको बीच में ही टोका- “पर केतकी, जब तुम्हें पता था कि यह सब  इतना आसान नहीं होता, तो तुम्हें रोहित की बात मानने की क्यों सूझी?”

“क्या करती मैं? घर में रहना भी तो मेरे लिए दुश्वार हो रहा था। मेरी उम्र के अन्य बच्चों की तरह मैं भी एक सुनहरे भविष्य के आकर्षण में बंध गई और दो दिन बाद जब उससे मिलना हुआ तो मैंने उसे अपनी स्वीकृति दे दी। फिर एक दिन तय समय पर घर से दो जोड़ी कपड़े एक बैग में ले कर एक अनजाने रास्ते पर रोहित के साथ चल पड़ी। रोहित मुझे उन मदनगिरि अंकल के घर ले गया। बहुत अच्छा घर था उनका। रोहित ने शायद उनको पहले से ही मेरे बारे में बता रखा था। मुझे उनसे मिलवा कर वह बोला- ‘अंकल, यही है मेरी दोस्त केतकी। अच्छे, लेकिन गरीब घर की है। आपसे डांस सीखना चाहती है।’

‘ठीक है रोहित! आज का तो क्लास का टाइम निकल गया है। अब कल से शुरू करेंगे।… केतकी बेटी, कल से तुम रोज सुबह दस बजे आ जाना। बारह बजे तुम्हारी क्लास ख़त्म हो जाया करेगी।’

मैंने चौंक कर रोहित की तरफ देखा। रोहित ने मुझे आँखों से इशारा कर के तसल्ली दी और अंकल से बोला- ‘अंकल, केतकी का यहाँ कोई घर नहीं है, आपको कोई दिक्कत न हो तो यह आपके यहाँ ही रहेगी।’

‘मुझे क्या दिक्कत है, यह इन बच्चों का ही तो घर है। एक बच्ची यहाँ और भी है, लेकिन एक सप्ताह के लिए उसे कत्थक ट्रेनिंग सेंटर भेजा है। कल वह भी आ जाएगी। इन दोनों की दोस्ती हो जायगी और डांस भी साथ-साथ सीखती रहेंगी।… लेकिन केतकी, तुम्हें यहाँ तीन महीने रहना होगा और मेहनत भी खूब करनी पड़ेगी। तभी तुम अच्छी डांसर बन सकोगी।’ मैंने राजी-खुशी अपनी स्वीकृति दे दी। रोहित मुझे वहाँ छोड़ कर दो-तीन दिन बाद आने का कह कर चला गया।

मदनगिरि अंकल ने मुझे मेरा कमरा दिखा दिया। उसमें एक लोहे की निवार वाली चारपाई और एक कुर्सी-टेबल रखी थी। दीवार पर एक कांच टंगा था। स्नानघर कमरे के बाहर था। एक इंसान के रहने लायक कामचलाऊ कमरा था वह। उन्होंने मुझे बताया कि वह दूसरी लड़की भी मेरे साथ इसी कमरे में रहेगी। उन्होंने यह भी बताया कि पास वाले कमरे में वह डांस सिखाते हैं और दोनों समय का खाना भी वहीं मिलेगा। 

शाम को सात बजे एक आंटी साथ वाले कमरे में खाना खाने के लिए मुझे बुलाने आई। वहाँ एक दरी बिछी हुई थी। मेरी थाली वहीं लगा दी गई थी। वह भी एक तरफ बैठ गईं। कुछ ही देर में बाहर से अंकल जी की आवाज़ आई- ‘चांदनी, केतकी खाना खा ले फिर मेरे पास आना।’

 ‘जी सा’ब!’ -आंटी ने जवाब दिया। 

‘आप अंकल को ‘साब’ बोलती हो। क्या आपके यहाँ पति को साब कह के बुलाते हैं?’ -मैंने आश्चर्य से पूछा। 

‘वह मेरे मर्द नहीं हैं। उनकी बीवी की तो मौत हो चुकी है।’ -उसने इतननी रूखी आवाज़ में कहा कि आगे और कुछ पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैंने अनुमान लगाया कि शायद वह खाना बनाने वाली होगी। खाना खा कर मैं अपने कमरे में चली आई। 

(4) 

अगले दिन मैं समय पर उठ गई। नहा-धो कर तैयार हुई और डांस के लिए ठीक दस बजे पास वाले कमरे में पहुँच गई। चाय नहीं मिली थी तो थोड़ा अखरा था मुझे। खाने के पहले नाश्ता न तो घर पर मिलता था न ही यहाँ मिला। यह नाश्ते वाली बात शायद पैसे वालों के घर का चोंचला होता है। वो कहते हैं न - ‘दान की गाय के दाँत नहीं देखे जाते’, तो जो मिल रहा है वही बहुत है, यह सोच मैंने मन को तसल्ली दी। थोड़ी देर में वही कल वाली औरत आई और बोली- ‘आज सा’ब कहीं बाहर गये हैं। बोला है, कल उस दूसरी लड़की के साथ ही सिखाएंगे। तुम आज कमरे में आराम करो और दोपहर एक बजे खाना खाने यहीं आ जाना।’

‘घर पर भी तो बैठी ही रहती थी, उल्टे काम और करना पड़ता था, यहाँ आराम तो मिल रहा है, अच्छा है’, मन में सोचा मैंने और चारपाई पर पसर गई। दोपहर में खाना खाने के बाद मुझे नींद आ गई। शाम को अंकल बाहर से आये और मुझे बुला कर कहा- ‘रत्ना आज आई नहीं ट्रेनिंग सेण्टर से। मैं कल सुबह उसे बुलवाता हूँ। कल से तुम्हारी क्लास चालू हो जाएगी।’ मैंने सिर हिला दिया और अपने कमरे में चली आई। अगले दिन सुबह… “

“एक मिनट केतकी, मुझे भूख लग आई है, तुम्हें भी लगी ही होगी। मैं बाहर से कुछ नाश्ता ले कर आता हूँ। तब तक तुम यह अख़बार देखो।” -प्रकाश ने कहा और नाश्ता लेने बाज़ार चला गया। 

‘क्या बिना स्वार्थ के प्रकाश जैसा उपकार कोई अन्य इंसान कर सकता था? मेरे जैसी लड़की को घर में शरण दे सकता था ? कोई बिरला ही इंसान प्रकाश जैसा हो सकता है।’, मन ही मन केतकी सोच रही थी। 

प्रकाश ने बाज़ार से लौटने के बाद दो कप चाय बनाई और फिर दोनों ने साथ-साथ नाश्ता किया। नाश्ते के बाद प्रकाश ने कहा- “हाँ तो केतकी, आगे की बात बताओ। रत्ना क्या दूसरे दिन आ गई थी, डांस की क्लास उस दिन हो सकी?”

“बताती हूँ प्रकाश बाबू! दूसरे दिन सुबह खाना खाने के बाद मदनगिरि ने मुझे फिर बुलाया और कहा- ‘केतकी बिटिया, पता नहीं रत्ना आज भी आएगी या नहीं। मैं उसे खुद ले आता हूँ। एक काम करो, कपड़े बदल लो और तुम भी साथ चलो, ट्रेनिंग सेण्टर दिखा लाता हूँ। कल को तुम्हें भी कत्थक सीखना ही है।’ मैं तैयार हो कर आ गई और वह मुझे कार में साथ ले गये। कार मदनगिरि खुद चला रहे थे।” 

प्रकाश ने केतकी के मुँह से ‘अंकल’ की बजाय केवल ‘मदनगिरि’ शब्द सुना तो चौंका, लेकिन कहा कुछ नहीं। 

केतकी का बोलना जारी था- “एक पुरानी-सी बस्ती में एक छोटी हवेली जैसे मकान के पास आ कर कार रुकी। दरवाज़े पर कॉलबेल बजाने पर एक मज़बूत आदमी ने दरवाज़ा खोला व मदनगिरि को नमस्कार किया। हम लोग भीतर गये। ड्योढ़ी व दो बरामदों के बाद दायें, बायें व सामने की तरफ दरवाज़े थे। दायीं तरफ वाले एक बड़े हॉल में हम पहुँचे। वहाँ दो लड़कियों को डांस सिखाया जा रहा था। डांस सिखाने वाले आदमी के अलावा एक अन्य आदमी जाजम पर बिछे एक बड़े गद्दे पर बैठा हुआ था। हॉल के दरवाज़े के दोनों तरफ दो फूलों वाले गुलदस्ते सजे थे और हॉल मदमाती गंध से महक रहा था। मैंने चारों तरफ देखा इस हॉल में कोई खिड़की नहीं थी। मदनगिरि ने गद्दे के एक कोने पर मुझे बैठने के लिए कहा व खुद भी बैठ गये। लड़कियों द्वारा किया जा रहा डांस मुझे कत्थक जैसा नहीं लगा। मैंने मदनगिरि से दबी आवाज़ में पूछा- ‘अंकल, मैंने टीवी में कत्थक डांस देखा है, यह लड़कियाँ तो कुछ अलग ही तरह का डांस कर रही हैं।’

‘हाँ, अभी इन्हें कत्थक के पहले वाला नृत्य सिखा रहे हैं। दो दिन बाद कत्थक सिखाया जाएगा।’ -उन्होंने जवाब दिया और फिर उठ कर उन दो आदमियों में से एक से धीमी आवाज़ में कुछ कहा और जवाब में उसने भी कुछ कहा। वापस आ कर मुझे मदनगिरि ने मुझे बताया कि रत्ना अभी कत्थक की क्लास में है और आधे घंटे बाद फ्री होगी, तब हमारे साथ आ सकेगी। पांच मिनट गुज़रे होंगे कि एक आदमी हॉल के दरवाज़े पर आ कर मदनगिरि को आवाज़ लगा कर बोला- ‘आपको गुरूजी ने बुलाया है।’ वह उठ कर जाने लगे तो मैं भी उठ खड़ी हुई, लेकिन उन्होंने कहा- ‘बिटिया, तुम यहीं बैठो, मैं कत्थक वाले गुरुजी से मिल कर पांच मिनट में आता हूँ।’ जाने के दस-बारह मिनट बाद भी वह नहीं आये तो मैंने गद्दे पर बैठे आदमी से कहा- ‘अंकल अभी तक आये नहीं, उन्हें बुलवाइए न!’ उस आदमी ने धीरे-से अपना सिर हिलाया। डांस करने वाली लड़कियों को थोड़ा ब्रेक दिया गया था। वह जाजम पर ही बैठ कर आपस में बतियाने लगी थीं। तभी मदनगिरि वापस आये और मुझसे बोले- ‘चलो केतकी, तुम्हें रत्ना से मिलवाता हूँ।’

मैं उठ कर उनके साथ चल दी। वह हॉल के सामने वाले कमरे में ले गये। उस कमरे में ही दायीं और एक और दरवाज़ा था, जिसमें हो कर एक पतली गली जैसा घुमावदार रास्ता निकल रहा था। हम लोग उस रास्ते पर चलने लगे। मुझे यह सब-कुछ एक तिलिस्म जैसा लग रहा था, लेकिन मदनगिरि के कहे अनुसार चलती चली जा रही थी। करीब बीस कदम चलने के बाद हम एक कमरे के पास पहुँचे। कमरे का दरवाज़ा खुला था। भीतर जाने पर देखा वह एक सुसज्जित कमरा था। यहाँ भी भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी। कमरे में एक बेशकीमती सोफ़ा, खूबसूरत पलंग व सुन्दर कसीदेदार कवर चढ़ी एक बड़ी सेण्टर टेबल के अलावा एक दीवार के पास चार कुशन वाली कुर्सियाँ रखी थीं। सेण्टर टेबल पर बीचोंबीच विलायती फूलों से सजा निहायत ही खूबसूरत काँच का एक गुलदस्ता रखा था। कमरे में एक और छोटा दरवाज़ा भी था। हम लोग दो कुर्सियों पर बैठ गये। कमरे में और किसी को न देख मैंने उत्सुकता से मदनगिरि की और देखा। उन्होंने मेरी ओर देखते हुए अपनी आँखों की पलकों को झुकाया और वापस सामने देखने लगे। 

कुछ ही मिनट में कमरे का भीतरी दरवाज़ा खुला और एक रौबीले चेहरे वाली प्रौढ़ औरत निकल कर कमरे में आई। मदनगिरि ने उसे देख खड़े हो कर नमस्कार किया तो मैंने भी खड़े हो कर नमस्कार किया। उस औरत ने जवाब में अपने चेहरे को हल्की-सी जुम्बिश दी। 

‘इस बार तो बहुत दिनों बाद तशरीफ़ लाये मदन जी!’

‘जी, जौहरा बाई, अभी समय ठीक नहीं चल रहा है।’ फिर मेरी तरफ इशारा करते हुए बोले- मैंने जिस नई शिष्या के लिए कहा था, वह यह है केतकी। इसे रत्ना से मिलवा दीजिए।’’

‘ओह, अभी बुलवाती हूँ।’, यह कह कर जौहरा बाई ने जोर से ताली बजाई। एक आदमी उसी भीतरी दरवाज़े से आया। जौहरा बाई ने उसे रत्ना को लाने के लिए कहा। वह सिर झुका कर चला गया। 

मुझे मामला अब कुछ पेचीदा और गड़बड़ लगने लगा था। अज्ञात भय ने मेरे दिमाग को जकड़ लिया था। मुझे मदनगिरि के साथ यहाँ आने का पछतावा हो रहा था। असमंजस था, लेकिन कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थी। वह आदमी एक सुन्दर सांवली लड़की को साथ ले कर उसी दरवाज़े से वापस आया। वह लड़की मात्र एक ब्लाउज और लहंगे में थी। जौहरा बाई ने मदनगिरि को पास बुला कर रुपयों की एक गड्डी दी, जिसे उसने अपनी जेब में रख लिया। यह देख मेरी समझ में आ गया कि मदनगिरि इस औरत का दलाल है और उसने मुझे इसके हाथ बेच दिया है’, मैं भय के मारे सिहर उठी और बिना विचारे दरवाज़े की ओर भागी।

(5)

 दरवाज़े से बाहर निकल कर पांच-सात कदम ही पहुँची थी कि उस लड़की के साथ आये आदमी ने पीछे से आ कर मुझे पकड़ लिया और वापस कमरे में ले आया। मैं मदनगिरि की ओर देख कर बिफर पड़ी- ‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा किया तूने! तू तो मुझे बिटिया कहता था साले दलाल!’ प्रतिक्रिया में मदनगिरि ने तो कुछ भी नहीं कहा, बेशर्म की तरह मुझे देख कर केवल हँसता रहा, लेकिन जौहरा बाई ने मुझे बाल पकड़ कर अपनी ओर खींचा और थप्पड़ मार कर बोली- ‘बहुत जबान चलती है रे तेरी! देखना, कैसे ठीक करती हूँ तुझे!’

“मुझे ताज्जुब है केतकी, बहुत देर बाद तुम्हें इस खतरे का एहसास हुआ।” -प्रकाश यह सब सुन कर दुखी था। 

“मदनगिरि तो एक अनजान आदमी था। मैंने रोहित पर विश्वास किया, वहीं से मेरी बर्बादी की कहानी की  शुरूआत  हो गई थी प्रकाश बाबू!” 

“केतकी, बहुत तकलीफ हो रही है मुझे! अब आगे कुछ सुनने की हिम्मत नहीं है मुझमें।” 

“प्रकाश जी, पहली बार अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिला है, प्लीज़ मुझे बोलने दें।”

“बोलो, केतकी बोलो! सुनूँगा मैं तुम्हारी पूरी कहानी।”

“थैंक यू प्रकाश जी!... उसके बाद मदनगिरि मेरी तरफ बेशर्मी से देखते हुए जौहरा बाई को नमस्कार कर लौट गया। जौहरा बाई फिर मुझसे बोली- ‘देख छोरी, तू सीधी-सीधी रहेगी तो सुख पाएगी, वरना मैं क्या कर सकती हूँ, इस रत्ना से पूछ लेना। तू मिलना चाहती थी न रत्ना से? मैं तुझे इसके पास वाला कमरा दे रही हूँ। खूब बातें करना इससे।…और हाँ, तेरी शादी हो गई है या अभी तक पाक-साफ़ है?’ मैंने कोई जवाब नहीं दिया। जौहरा ने मुझे खा जाने वाली नज़रों से देखा और अपने आदमी से बोली- ‘कलुआ, इसको ले जा रत्ना के पास वाले कमरे में और अपने तरीके से इसका मुँह खुलवा।’ मैं उसकी बात सुन कर बहुत डर गई, बोली- ‘नहीं हुई है मेरी शादी।’ 

मेरा जवाब सुन कर वह खिल उठी- ‘तबियत खुश कर दी मेरी जान तूने तो।’ फिर कलुआ से बोली- ‘परसों आनंदी लाल जी का फोन आया था न! तू आज ही उनको फोन कर के बोल देना, मुझ से आ कर मिलें। वही आज तो इस नई छोरी की नथ उतारेंगे।’ मैं उसकी नथ उतारने वाली बात का मतलब तो नहीं समझ सकी, पर अपने पर आने वाले संकट की आहट मुझे ज़रूर मिल गई थी।  

जौहरा बाई के हुक्म से कलुआ मुझे रत्ना के साथ भीतरी चौक में ले गया, जिसमें चारों तरफ कमरे थे और बीच में एक पेड़ था। मैं चौकन्नी तो थी ही, मैंने सरसरी तौर पर गिना, कुल चौदह कमरे थे। एक कमरे के दरवाज़े के पास खड़ी आपस में ठिठोली कर रही चार लड़कियों ने मुझे देख कर आपस में कुछ बात की और हँस पड़ीं, फिर मेरी तरफ देख कर एक लड़की ज़ोर से बोली- ‘आ जा मेरी नई बुलबुल! गुमसुम क्यों है यार, दो-चार दिन में तू भी हमारी तरह ही मस्ती करेगी।’ रत्ना के लिए शायद यह एक सामान्य बात थी, वह मुस्कुरा दी, लेकिन मुझे उनकी ढींठ हरकतें देख कर घृणा हो आई और सामने देखती चुपचाप चलती रही। सामने की लाइन में बायीं ओर से दूसरा कमरा रत्ना का था और उसके पास वाला तीसरा कमरा कलुआ ने मेरे लिए खोल दिया।… तो इस तरह मिल गया मुझको कोठे में मेरा नया आशियाना। मेरा सबसे पहला परिचय रत्ना से हुआ था और साथ ही उसका कमरा मेरे पड़ोस में था, इसलिए उससे मेरी अच्छी पटने लगी। पुरानी लड़कियों में से एक चंदा, जिस पर सबसे ज़्यादा कमाई होने के कारण जौहरा बाई विशेष मेहरबान थी, की भी रत्ना से अच्छी दोस्ती थी। मेरे उस कोठे में पहुँचने के चार-पांच दिन बाद रत्ना ने मुझे बताया कि मेरी पहली रात के ग्राहक आनंदी लाल से जौहरा बाई ने दस हज़ार रुपये लिये थे। उसने मुझे यह भी बताया कि जौहरा बाई कोठे की सभी लड़कियों को हर माह कुछ हाथ-खर्च भी देती है। 

मेरे और रत्ना के अलावा उस कोठे में जौहरा बाई के लिए टकसाल बनी आठ बदनसीब लड़कियाँ और थीं। मैं और रत्ना, दो ही लड़कियाँ  ऐसी थीं, जिन्हें वह भड़वा मदनगिरि वहाँ लाया था और हम दोनों ही कोठे से छुटकारा चाहती थीं। अन्य सभी लड़कियाँ वहाँ के माहौल से रवाँ हो चुकी थी और इसीलिए उनकी आपस में बनती भी अच्छी थी। लगभग एक साल हो गया था मुझे उस नर्क में रहते हुए, जब एक दिन मैंने वहाँ से भागने की कोशिश की थी, लेकिन पकड़ी गई और फिर बेरहमी से मुझे पीटा गया। पिट कर भी मुझे इस बात की खुशी थी कि एक सप्ताह तक, जब तक मेरी हालत ठीक नहीं हुई, मैं दरिन्दगी से बची हुई थी।… प्रकाश जी, वैसे तो हर रात मेरे लिए जहन्नुम की रात होती थी, पर एक रात ऐसी आई जब मुझे अपने पैदा होने का भी बेहद अफ़सोस हुआ।”

एक मिनट के लिए रुक कर केतकी ने गहरी सांस ली। प्रकाश की निगाहें उसके चेहरे पर टिकी हुई थीं। केतकी ने फिर कहना प्रारम्भ किया- “मैं उस रात अपने कमरे में सोई उनींदी हालत में थी। तभी मेरे कमरे का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया। मैंने बेमन से दरवाज़ा खोला, रत्ना खड़ी थी। उसने कहा- ‘यार एक खड़ूस ग्राहक से अभी ही निपटी हूँ और एक और आ गया है। मुझमें अब हिम्मत नहीं बची है यार! क्या तू मेरी खातिर उससे निपट लेगी प्लीज़?’

‘कहाँ है वो?’

‘मेरे कमरे में बैठा है।’

‘लेकिन वह तो एल्बम में तुझे पसंद कर के आया होगा, फिर मुझे…’

‘मैंने पूछा था उससे, बोला कि कोई भी चलेगी।’

‘स्साला मरदूद!... चल भेज दे उसे। जौहरा भेजती तो उसे मना कर सकती थी क्या, फिर तुझे…’

‘थैंक यू डियर!’ -कह के रत्ना चली गई। 

मैं मुँह फेर कर पलंग पर बैठ गई। रत्ना के भेजे आदमी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं अपने चेहरे पर नकली मुस्कान ला कर पलटी। एक-दूसरे को देखते ही हम दोनों बुरी तरह से चौंक पड़े। प्रकाश बाबू, वह आदमी और कोई नहीं, मेरा भाई नीतीश था। 

(6)

हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला- ‘तुम!’ एक सेकण्ड भी रुके बिना वह हाथों में अपना मुँह छिपा कर कमरे से बाहर निकल गया।

‘काटो, तो खून नहीं’ जैसी हालत हो गई थी मेरी। मैं औंधे मुँह बिस्तर पर लुढ़क गई। 

मुझे तो भाग्य कोठे पर ले आया था, लेकिन पापा ने नीतीश भैया को शिक्षा क्या कोठे पर आने के लिए दिलाई थी? पापा की तरह ही भैया भी मेरी आगे की पढ़ाई के विरुद्ध था और यही कारण था कि उसने मुझे कभी सपोर्ट नहीं किया। कहता था, ज़्यादा पढ़ के केतकी बिगड़ जाएगी। उच्च शिक्षा ले कर क्या वह इस तरह से घर का नाम रोशन कर रहा है? मेरा मन उसके प्रति वितृष्णा से भर गया। मुझे पहली बार लगा कि मेरा भाई तो मुझसे भी गया-गुज़रा है। बस, एक आस ज़रूर पैदा हुई मन में कि भैया ने जब मुझे यहाँ देख लिया है तो किसी न किसी तरह मुझे यहाँ से निकालने की कोशिश ज़रूर करेगा। 

एक सप्ताह निकला, पखवाड़ा निकला और महीना भी निकल गया, लेकिन किसी ने मुझे उस नर्क से नहीं निकाला। दो ही कारण हो सकते थे इसके। एक तो यह कि कोठे पर खुद के जाने की बात शर्म के मारे नीतीश कह ही न सका हो और दूसरा यह कि उसने कहा हो तो भी मेरे प्रति उपजी घृणा और समाज के डर से मेरे माता-पिता ने मृत के समान मान कर मुझे भुला देना ही उचित समझा हो। जो भी कारण रहा हो, कोठे का जीवन मेरा भविष्य बन रहा था और उस भविष्य को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था। मैं जौहरा बाई को खुश रखने लगी, ताकि उसका मुझ पर विश्वास बना रहे। 

कल रात जब आपने मुझे सड़क पर कोठे के उस बदमाश से बचाया था, उसके एक घंटे पहले मुझे रत्ना से पता चला कि जौहरा बाई एक लड़की को ले कर कहीं गई है और कोठे के दो रखवालों में से एक रफ़ीक शराब की बोतलें खरीदने गया हुआ था। मैंने और रत्ना ने कुछ देर तक सोचने के बाद अपनी किस्मत आज़माने का फैसला किया और और अपने-अपने पास अब तक इकट्ठे किये हुए रुपये साथ ले कर दबे पाँव वहाँ से मुख्य दरवाजे के पास आईं। पहरेदार और दूसरा रखवाला कलुआ हॉल के पास बैठे गांजा पीते हुए बातों में मशगूल थे। हम सावधानी से उन दोनों की नज़रों से बचते हुए सावधानी से हवेली से बाहर निकल आईं। थोड़ी दूर ही जा सकी थीं कि रफ़ीक की नज़र हम पर पड़ गई। वह शराब की बोतलों से भरा थैला पास की एक दूकान पर रख कर हमारे पीछे दौड़ा। रत्ना उसके हाथ लग गई और वह उसको साथ ले कर कोठे की तरफ गया और शायद उसी से खबर मिलने पर कलुआ मेरे पीछे लग गया।… और उसके बाद आप मुझे मिल गए। आपके कारण मैं तो सुरक्षित बच गई, लेकिन बदनसीब रत्ना बेचारी का पता नहीं क्या हाल हुआ होगा!... आपने पूछा था कि मुझे ‘भाई’ शब्द से नफ़रत क्यों है, तो वह तो आप अब तक समझ ही गए होंगे और उसके साथ ही पिता और दोस्त जैसे शब्दों या यूँ कहिये कि सम्बोधनों से मेरी नफ़रत की वजह भी आप जान गये होंगे।” -केतकी ने एक दर्दभरी साँस ले कर अपनी कहानी का समापन किया। 

प्रकाश केतकी की कहानी तो सुन ही रहा था, उसका मस्तिष्क केतकी के भावी जीवन के विषय में भी तीव्र गति से चलायमान था। केतकी की कहानी पूरी होने के बाद वह बोला- “बहुत दर्दभरी कहानी है तुम्हारी केतकी! अब तुमने अपने अगले जीवन के बारे में क्या सोचा है?”

“सोचने का समय ही कहाँ मिला है। वैसे भी कटी पतंग अपना भविष्य स्वयं तो निर्धारित कर ही नहीं सकती न प्रकाश बाबू!’

“हम्म! चलो, अब कुछ खाने-पीने का इन्तज़ाम करते हैं। तुम थक गई होगी अपनी कहानी कहते-कहते और भूख भी लगी होगी। हम दोनों ने नाश्ता भी तो नहीं किया है।”

“प्रकाश बाबू, अगर मेरे हाथ का बना खाना खाने में आप को ऐतराज़ न हो तो मैं बना देती हूँ। बहुत अच्छा खाना बनाती हूँ मैं। घर पर रहती थी तो यह काम तो अपनी मम्मी से अच्छे से सीख लिया था मैंने।” -केतकी ने मुस्कुराते हुए कहा। 

“मैं सोच रहा था, बाज़ार से ऑर्डर कर के कुछ मंगवा लूँ , पर तुमने जब ऐतराज़ वाली बात कह दी है तो अब मैं चाहूँगा कि खाना तुम ही बनाओ। मैं तुम्हें किचन की सारी व्यवस्था बताये देता हूँ।” -प्रकाश ने केतकी को किचन में ले जा कर सभी सामान व फ्रिज में रखी सब्ज़ियाँ, वगैरह बता दीं व केतकी हाथ धो कर खाना बनाने में लग गई। केतकी खाना बना रही थी, लेकिन उसका दिमाग़ पूरी तरह स्थिर नहीं था। पिछले समय की विभीषिका और आने वाले समय से सम्बंधित आशंकाएँ उसके मन को उद्वेलित कर रही थीं। इन सब के मध्य रोहित का विश्वासघात उसके हृदय को बारम्बार झकझोर देता था। कहाँ उसके द्वारा ‘फरिश्ता’ कह कर बतलाया गया नराधम मदनगिरि और कहाँ यह सचमुच का फरिश्ता प्रकाश!, जैसे ही उसके मस्तिष्क में प्रकाश का चेहरा उभरता, एक शीतल अहसास उसके जलते तन-मन में प्राण-वायु का संचार कर देता था। 

ड्रॉइंग रूम में बैठे प्रकाश ने केतकी के भविष्य के लिए एक रूपरेखा अपने मन में तैयार कर ली थी। केतकी द्वारा खाना तैयार हो जाने की सूचना मिलने पर उसकी मदद से प्रकाश ने डाइनिंग स्पेस में तैयार भोजन व प्लेट्स, आदि टेबल पर लगा दिये। खाने के दो-तीन ग्रास उदरस्थ होने के तुरंत बाद प्रकाश ने कहा- “इतना स्वादिष्ट भोजन या तो मेरी पत्नी बनाती है या फिर तुमने बनाया है केतकी!”

“आप मुझे लज्जित कर रहे हैं। कहाँ वह देवी और कहाँ मैं पतिता! इतना बढ़ा-चढ़ा कर न कहें प्रकाश जी कि मैं शर्म के मारे ज़मीन में ही गड़ जाऊँ।”

“नहीं केतकी, मैं सत्य कह रहा हूँ।... मुझे यह तो बताओ कि इतनी सुन्दर भाषा तुम कैसे बोल लेती हो?”

“माँ सरस्वती की कृपा से मेरी हिन्दी शुरू से ही अच्छी रही है।” -लजाते हुए केतकी बोली। प्रकाश उसके चेहरे पर आये लज्जा-भाव को देख चकित रह गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि इतनी सौम्यता और लज्जाशीलता एक ऐसी युवती के चेहरे पर भी हो सकती है, जो हाल ही वेश्या का जीवन जी चुकी है। ‘वेश्या शब्द का अर्थ कितना घिनौना है, जबकि वेश्या के रूप में जीवन-यापन करने वाली स्त्रियों में से कितनी ही मासूम अबलाएँ केतकी की तरह ही विवशता के साथ जी रही होंगी।’, इस विचार के साथ ही प्रकाश का मन आर्द्र हो आया। 

खाना खा लेने के बाद प्रकाश ने कहा- “केतकी, तुम अब अपने कमरे में आराम करो। मैं भी एकाध घंटे के लिए आराम करूँगा।”  

“जी” कह कर केतकी अपने कमरे में चली गई। 

शाम को प्रकाश अपने बैडरूम से बाहर आया तो देखा, केतकी बरामदे में बैठी पूरे मनोयोग से लॉन को निहार रही थी। प्रकाश के क़दमों की आहट भी केतकी की तन्मयता को भंग नहीं कर सकी थी। 

“किन विचारों में खो रही हो केतकी?” -प्रकाश ने उसके क़रीब पहुँचने के कुछ क्षणों बाद पूछा। 

“अरेएए, प्रकाश बाबू?… क्षमा करें, आप खड़े हैं, मुझे पता ही नहीं चला।”

“हाँ, तुम बहुत विचार-मग्न थीं।”

“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। मैं तो बस यूँ ही… ” -केतकी ने कहा और मुस्कुरा दी। 

प्रकाश कुर्सी पर बैठ गया और बोला- “केतकी, मैंने तुम्हारे बारे में बहुत सोच-विचार करने के बाद कुछ निश्चय किया है।”  

केतकी ने प्रश्नसूचक निगाहों से उसकी तरफ देखा।

(7)

“मुझे एक ही जगह तुम्हारे लिए अच्छी और सुरक्षित दिखाई दे रही है केतकी!...और वह है ‘महिला आश्रम’। अगर तुम सहमत हो तो मैं आज ही समाज कल्याण अधिकारी से बात करता हूँ। मेरे बड़े भाई के मित्र होने के नाते उनसे थोड़ा परिचय भी है।”

“मेरी सहमति की क्या बात हुई प्रकाश जी? मेरा और कोई ठिकाना है ही कहाँ?”… और फिर मेरे लिए आप से अधिक बेहतर और कौन सोचेगा?”

 “फिर एक-दो वर्ष बाद तुम्हारी शादी के लिए भी प्रयास करेंगे।”

“मेरी शादी? मुझसे शादी कौन करेगा? क्यों मेरा उपहास कर रहे हैं प्रकाश बाबू? मेरा अतीत हर जगह मेरा पीछा नहीं करेगा?… और फिर अब मैं शादी कर के क्या करूँगी? कैसे न्याय कर सकूँगी उसके साथ और अपने साथ भी?”

“तुम बहुत अच्छी लड़की हो केतकी! अपने आत्मविश्वास को कमज़ोर मत होने दो।…और हाँ, तुम अगर साथ चलो तो दो-एक रेडीमेड ड्रैसेज़ खरीद लें तुम्हारे लिए।” -विषय बदल कर प्रकाश ने कहा। 

“इन कपड़ों में आपके साथ बाहर कैसे जा सकूँगी? मैं अपनी नापें और पैसा दे देती हूँ, आप ही ले आएँ न प्लीज़!”

“ठीक है, मैं ही ले आता हूँ, तुम नाप दे दो। पैसे की चिंता मत करो, हैं मेरे पास।”

“मैं अपने इकट्ठे किये हुए पैसे साथ ले कर आई हूँ। पैसे तो मुझसे लेने ही होंगे आपको। वैसे भी आपने क्या कुछ नहीं किया है मेरे लिए।”

“ठीक है, ठीक है।” -प्रकाश ने हँसते हुए कहा। 

प्रकाश घर से निकल कर रविवार होने के कारण सीधा समाज कल्याण अधिकारी श्री जगन मोहता के घर गया। श्री मोहता घर पर ही थे। उन्होंने देखते ही प्रकाश का स्वागत किया- “आओ प्रकाश! आज कैसे रास्ता भूल गये?”

“बस भाई साहब, कुछ काम आन पड़ा था, सो कष्ट देने चला आया।” -प्रकाश ने मुस्कुरा कर प्रत्युत्तर दिया। 

“आओ, भीतर आओ!”

प्रकाश को सोफे पर बैठाने के बाद मोहता जी ने पूछा- “पहले यह बताओ कि चाय-कॉफ़ी लोगे या कुछ ठंडा?”

“भाई साहब, फिर कभी। थोड़ा जल्दी में हूँ, आज क्षमा चाहूँगा।”

मोहता जी ने अधिक आग्रह नहीं किया, बोले- “हाँ, तो बताओ। मुझसे क्या मदद चाहते हो?”

प्रकाश ने बिना वक्त गवांये केतकी से सम्बंधित आवश्यक बातें संक्षेप में बता कर कहा- “तो भाई साहब, केतकी का और कोई आश्रय-ठिकाना नहीं है। यदि महिला आश्रम में जगह मिल जाए तो उस बेचारी पर आपका बहुत उपकार होगा।”

मोहता जी ने तुरन्त महिला आश्रम के मैनेजर को फोन लगाया। उनकी फोन पर हो रही बात सुन कर प्रकाश के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर रही थीं। 

“तुम्हारा काम हो गया प्रकाश! केतकी का भाग्य अच्छा है। एक जगह खाली मिल जाएगी उनके वहाँ।”

“आप कहते हैं तो मान लेता हूँ भाई साहब कि एक बदनसीब का भी भाग्य अच्छा हो सकता है।” -फीकी मुस्कान के साथ प्रकाश ने कहा। 

“सही कह रहा हूँ प्रकाश! मैनेजर ने बताया था कि रिनोवेशन के चलते चार औरतों को कल वहाँ से किसी अन्य जगह शिफ्ट किया गया जाना है। केतकी की ख़ातिर वह चार के बजाय पांच औरतों को शिफ्ट कर देंगे। हाँ, केतकी को वहॉँ अपना आचरण ठीक रखना होगा।”

“जहाँ तक मैं केतकी को समझ सका हूँ, मुझे उस पर पूरा भरोसा है। केतकी का भाग्य इस मायने में अच्छा है कि आपकी मेहरबानी से काम हो रहा है।”

“मेहरबानी काहे की? सरकार से हमें वेतन ही इसी बात का मिलता है कि हम ज़रूरतमंद लोगों के काम कर सकें।”

“तो कल ले जाऊँ केतकी को वहाँ?”

“इन एनी केस प्रकाश!” -मोहता जी ने जवाब दिया। प्रकाश मोहता जी को धन्यवाद दे कर रेडिमेड स्टोर पर गया व केतकी के नाप के दो सलवार सूट (एक आसमानी और एक हल्के गुलाबी रंग का) खरीद कर घर आ गया। बचे हुए पैसे केतकी को लौटा कर वह बोला- “एक बार एक सूट पहन कर फिटिंग चैक कर लो। दोनों एक ही नाप के हैं।”

“जी”, कह कर केतकी अपने कमरे में गई और आसमानी सूट पहन कर बाहर आई। प्रकाश ने उसे सूट में देखा तो अवाक् रह गया। सूट केतकी को बहुत सूट कर रहा था। उसकी सराहनायुक्त नज़रें भांप कर केतकी ने उत्साहपूर्वक कहा- “फिटिंग भी एकदम सही है प्रकाश बाबू, थैंक यू सो मच।”

प्रकाश मुस्कुरा दिया, बोला- “केतकी, बधाई! हम कल महिला आश्रम जा रहे हैं।”

“ओह, काम हो गया प्रकाश जी?”

“हाँ, समाज कल्याण अधिकारी जी के प्रयास से काम हो गया।”

सोमवार को प्रकाश के ऑफिस की छुट्टी थी। वह केतकी को साथ ले स्थानीय महिला आश्रम के कार्यालय के लिए निकला। रास्ते में केतकी ने स्कूटर रुकवा कर अपने साथ लाया एक पैकेट सड़क के किनारे रखी कचरा-पेटी में फेंका और वापस स्कूटर पर बैठ गई। 

“यह क्या फेंका केतकी तुमने?” -प्रकाश ने पूछा। 

“मेरे पिछले पापी जीवन की निशानी, मेरी वहाँ की ड्रैस।” -केतकी ने ठण्डे स्वर में जवाब दिया। 

(8)

 फॉर्म भरने की फॉर्मेलिटी के बाद वहाँ के मैनेजर ने भी केतकी के पूर्व जीवन को देखते हुए इस बात का आश्वासन चाहा कि केतकी अपना आचरण आश्रम में अच्छा रखेगी। प्रकाश के द्वारा इस बात का लिखित में प्रमाणीकरण दिये जाने के बाद केतकी को महिला आश्रम में प्रवेश दिया जा कर एक कमरा दे दिया गया। 

मैनेजर को धन्यवाद दे कर प्रकाश जब महिला आश्रम के गेट की तरफ बढ़ा तो उसने देखा, केतकी भी पीछे-पीछे चली आ रही थी। जैसे ही वह रुका, केतकी ने डबडबाये नेत्रों से उसकी ओर देखा और झुक कर उसके पाँवों के निकट की एक चुटकी धूल ले कर अपने माथे पर चढ़ाई। 

“अरे, ऐसा मत करो केतकी।”

“भगवान को शायद किसी ने नहीं देखा होगा, लेकिन मैंने देख लिया है। आप मेरे लिए साक्षात् भगवान हैं प्रकाश बाबू !”

केतकी के जीवन की दर्दभरी कहानी के कारण प्रकाश दुखी तो था ही, किन्तु आज उसकी आँखों से आंसू भी छलक पड़े- “नहीं केतकी, मैंने तो एक छोटा-सा मानव-धर्म निभाया है। भगवान कह कर मुझे लज्जित मत करो। अब जाओ अपने कमरे में और बेफिक्र हो कर आराम करो।”

पाँव जम रहे थे केतकी के, पर उसे लौटना था। एक तीव्र आसक्ति-भाव ने उसके ह्रदय को जकड़ लिया था। ‘यह किस तरह की आसक्ति है? क्यों मेरा दिल खिंचा चला जा रहा है प्रकाश जी के साथ? क्या यह प्यार है? नहीं, नहीं; ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा तो सोचना भी पाप है। प्रकाश जी सिर्फ़ मेरे रहनुमा हैं, मेरे मुक्तिदाता हैं, इसके सिवा और कुछ नहीं।’… हृदय में उमड़ रहे पीड़ा के ज्वार को बमुश्किल थाम कर, वह कातर स्वर में बोली- “अपनी पत्नी को इस अभागिन का प्रणाम ज़रूर कहना प्रकाश जी! अधिकार तो नहीं है, पर एक याचना अवश्य करूँगी। क्या कभी-कभार यहाँ आ कर आप मेरी सुध ले सकेंगे?”

आश्वासन की मुद्रा में सिर हिला कर बोझिल क़दम लिए प्रकाश आश्रम के बाहर आया। केतकी की दास्तां ने प्रकाश को बहुत विचलित कर दिया था। एक ही विचार उसके मस्तिष्क को बारम्बार कुरेद रहा था कि कैसे दुर्भाग्य एक अच्छे भले इंसान की ज़िन्दगी को नर्क बना देता है! 

सुबह उसे पत्नी को लेने रेलवे स्टेशन जाना था, अतः वह जल्दी ही बिस्तर पर चला गया, किन्तु प्रयास करने पर भी देर रात तक उसे नींद नहीं आई। प्रातः उठा, तो घड़ी देख कर वह हड़बड़ा गया। ‘उफ्फ़, आठ बज गए। दिव्या की ट्रेन आठ पैंतीस पर स्टेशन पर आ जाएगी, मुझे जल्द ही पहुँचना होगा’ -वह बड़बड़ाया और वॉशरूम में घुस गया। 

 प्रकाश दिव्या को रिसीव करने रेलवे स्टेशन पहुँचा तो वह स्टेशन के बाहर टैक्सी वाले से बात करती दिखाई दी। दिव्या उसके देर से आने के कारण कुछ नाराज़ थी, किन्तु उसे देख कर बरबस ही मुस्कुरा दी। घर आते समय दिव्या ने नोटिस किया, प्रकाश कुछ खामोश-खामोश सा है।

 दिव्या ने उसकी मनःस्थिति भांप कर पूछा- “प्रकाश, तुम इतने अनमने क्यों नज़र आ रहे हो? मुझे लेने आने में भी इतनी देर कर दी।”

“कुछ भी तो नहीं दिव्या! आज सुबह उठने में कुछ देर हो गई थी।” -प्रकाश ने मुस्कुरा कर जवाब दिया। वह सोच रहा था कि शाम को ऑफिस से आने के बाद तसल्ली से दिव्या को केतकी के बारे में बताएगा। 

घर पहुँचने के बाद फ्रैश हो कर दिव्या ने फुर्ती से खाना तैयार किया और दोनों ने साथ में ही खाना खाने बैठे। खाना खा कर प्रकाश ऑफिस के लिए दरवाज़े से बाहर निकला तो दिव्या ने कहा- “प्रकाश, आज तो रोज़ाना की खास बात ही भूल गये।”

प्रकाश ने चौंक कर देखा, दिव्या के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी। वह दिव्या का आशय समझ कर वापस लौटा और उसके होठों पर चुम्बन अंकित कर मुस्कुराते हुए हाथ हिला कर ऑफिस के लिए निकल गया। 

शाम को जब वह ऑफिस से लौटा, तो दिव्या ने अपना मुँह फुला कर रखा हुआ था। प्रकाश ने उससे गुस्से का सबब पूछा तो वह जवाब दिये बिना बैडरूम में चली गई। वह जूते खोल कर भीतर गया और उसे अपनी बाँहों में भर कर बोला- “क्या बात है दिव्या, किस बात से नाराज़ हो?”

“मेरी एब्सेंस में कौन औरत आई थी घर में?” -दिव्या ने सीधे ही प्रहार किया?”

“तुम्हें कैसे पता चला?” -प्रकाश ने हँसते हुए दिव्या के प्रश्न का जवाब प्रश्न से ही दिया। 

“ओह, तो तुम्हें इस पर भी कोई शर्म भी नहीं है कि मुझे पता चल गया है।” -दिव्या ने क्रोध मिश्रित अचरज से उसकी ओर देख कर कहा। 

पलंग पर उसके निकट बैठते हुए प्रकाश गम्भीर स्वर में बोला- “दिव्या, तुम्हें बुरा तो लगेगा, किन्तु सोचता हूँ, जब तुम्हें पता लग ही गया है, तो बता देना ही ठीक होगा।” 

दिव्या उसकी बात सुन कर मौन रही। वह अन्दर ही अन्दर डूबी जा रही थी।

“मैं सुबह जल्दी में होने के कारण तुम्हें कुछ बता नहीं पाया था, सोचा था कि शाम को यह बात बताऊँगा। तुमने मुझसे मेरी कैफ़ियत पूछी, पर मेरे प्रश्न का जवाब नहीं दिया कि तुम्हें पता कैसे चला।” -प्रकाश अभी भी गम्भीर था। 

“मैं किसी काम से गेस्ट रूम में गई थी, तो मुझे बिस्तर में तकिये पर एक लम्बा बाल दिखाई दिया था।” -दिव्या ने लगभग रुआँसे स्वर में जवाब दिया। 

“उसका नाम केतकी है। बहुत अच्छी लड़की है।”

“होगी मेरी बला से, आगे बोलो।” -कुछ प्रकृतिस्थ हो कर दिव्या ने कहा। वह मन ही मन आगे आने वाली स्थिति के लिए स्वयं को तैयार कर रही थी। 

“शनिवार की रात मैं मूवी देख कर लौट रहा था, तो वह सड़क पर बेतहाशा दौड़ती हुई मुझे दिखाई दी थी। एक बदमाश उसका पीछा कर रहा था।” -प्रकाश ने कहना जारी रखा। 

“और तुमने उस बदमाश को साउथ के हीरो की तरह उछल-उछल कर खूब मारा होगा, यही न! अब आगे बताओ।”

(9)


“जाहिर है कि तुम मुझसे नाराज़ हो, सो चाय नहीं पिलाओगी, लेकिन मुझे तो चाय की जबर्दस्त तलब लग रही है। तुम्हें तो पता ही है कि मुझे ऑफिस से आते ही चाय चाहिए। अगर चाय तुम नहीं बनाओगी तो मुझे ही किचन में जाना पड़ेगा।”

“बुला लाओ अपनी केतकी को चाय बनाने के लिए, जहाँ भी हो वह।” -दिव्या ने रूखेपन से जवाब में कहा।  

प्रकाश ने उठने का उपक्रम किया तो वह झल्ला कर उठी और चाय बनाने किचन की ओर बढ़ चली। दिव्या जब किचन से लौट कर आई तो उसके हाथ में पकड़ी ट्रे में केवल एक कप था। एक कोने में रखी टेबल को प्रकाश के पास ला कर उसने चाय का कप टेबल पर रख दिया और पलंग पर बैठ गई। हमेशा के विपरीत दिव्या आज केवल एक कप चाय बना कर लाई थी। 

“तुम्हारी चाय कहाँ है?” -प्रकाश ने पूछा। 

“मेरी इच्छा नहीं है।”

“हा हा हा हा…!” -प्रकाश ने ठहाका लगाया और बोला- “चाय तो मैं तभी पीयूँगा, जब तुम भी साथ दोगी।”

“मैंने कहा न, मुझे चाय नहीं पीनी है।” -रूखे स्वर में दिव्या ने कहा। 

प्रकाश खिसक कर दिव्या के पास आया और उसके कन्धे पर हाथ रख कर बोला- “दिव्या, वह लड़की कोठे से भाग कर आई मुसीबत की मारी एक वेश्या है।”

अपने कन्धे से प्रकाश का हाथ झटक कर दिव्या ने अपनी भौहें चढ़ा कर व्यंग्य किया- “ओह, तब तो आपने बहुत पुण्य का काम किया है। अब मुझे तलाक दे कर उसकी मांग में सिन्दूर भी भर दो। बहुत बड़े समाज-सेवी भी कहलाओगे।”

“अरे मेरी रानी, बिगड़ो मत! किसी लड़की की मदद क्या इसी उद्देश्य से की जाती है? गुस्सा थूंक दो और मेरी बात शांति से सुनो।”

पति के इस कथन के बावज़ूद दिव्या के मन का सन्देह मिट नहीं सका, फिर भी उसने जिज्ञासा भरी दृष्टि से उसकी तरफ देखा। 

प्रकाश ने केतकी से जुड़ी सारी बात संक्षेप में, किन्तु सिलसिलेवार दिव्या को बताई। 

दस-बारह मिनट लग गये प्रकाश को सारी बात कहने में। सामने की खिड़की से बाहर उसकी दृष्टि गई, साँझ होने जा रही थी। अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए उसने दिव्या की ओर नज़र घुमाई। अब तक ख़ामोशी से सुन रही दिव्या बोली- “मुझे क्षमा करो, मैंने तुम्हें ग़लत समझा। लेकिन प्रकाश, तुम पहली बार में ही मुझे स्पष्ट बात बता सकते थे, जब मैंने अपना शक जाहिर किया था। तुम घुमा-फिर कर बात क्यों करते रहे?”

“तुम्हारे मजे कैसे लेता फिर मैं?” -ठहाका लगा कर प्रकाश ने जवाब दिया।

“तुम बहुत ख़राब हो। तुम्हारे इस मज़ाक़ ने मेरी तो जान ही सांसत में डाल दी थी।”

“मुझ पर पूरा भरोसा होता, तो तुम यूँ विचलित नहीं होती दिव्या! ऐसे तो कभी कोई कुछ भी कह देगा मेरे बारे में और तुम विश्वास कर लोगी।” -अपनी आँखें दिव्या की आँखों में डाल कर प्रकाश ने कहा। 

“नहीं, ऐसा नहीं होगा।” -मुस्कुरा कर दिव्या ने जवाब दिया। प्रकाश अपनी जगह से उठा और दिव्या का हाथ पकड़ कर उसे बरामदे की ओर ले गया। 

“कहाँ ले जा रहे हो प्रकाश?” -विस्मयपूर्वक दिव्या ने पूछा। प्रकाश मौन रहा। बरामदे की दोनों सीढ़ियाँ उतर कर वह उसे लॉन में ले आया। 

“ओह, यह नया खिला हुआ गुलाब? यह तो मैंने दोपहर में देख लिया था।” -दिव्या ने हँसते हुए कहा। 

“नहीं दिव्या! उधर पश्चिम में देखो। अस्तांचल की ओर जा रहे सूर्य को देख रही हो?” प्रकाश ने पूछा। दिव्या ने प्रकाश की ओर दृष्टि डाली। उसकी आँखों में पुनः विस्मय था।  

“वह अभी अस्त हो जाएगा। कल फिर वह उदय होगा या नहीं?” -प्रकाश ने पुनः पूछा। 

“कैसा सवाल है? उदय क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा।” -

“जितना यकीन तुम्हें इस बात पर है, उतना ही यकीन इस बात का भी कर लो दिव्या कि मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे अलावा कोई और हो ही नहीं सकता, किसी हालत में नहीं।” -दिव्या की आखों में आँखें डाल कर प्रकाश ने कहा और फिर अस्त होते सूर्य की ओर देखने लगा। 

दिव्या ने स्निग्ध दृष्टि से प्रकाश की ओर देखा। उसकी आँखें भर आईं। अपनी अपरिपक्व सोच पर उसे आक्रोश हो आया। कुछ क्षणों के लिए वह भी प्रकाश के साथ अस्त होते सूर्य की छटा निहारती रही। जैसे ही सूर्य विलोपित हुआ, दोनों भीतर लौटे। प्रकाश बरामदे में दीवार पर लगे दर्पण के पास जा खड़ा हुआ और दिव्या को अपने पास बुलाया। अब दिव्या दर्पण में कभी स्वयं को तो कभी प्रकाश को देख रही थी। वह  नहीं जान सकी कि प्रकाश क्या कहने वाला है। 

“दिव्या, जानती हो तुम कितनी सुन्दर हो? तुम बहुत सुन्दर हो। अगर तुम सुन्दर नहीं भी होती, तो भी मेरी नज़रें किसी दूसरी औरत की ओर नहीं उठतीं।”

दिव्या ने पलट कर प्रकाश के गले में अपनी बाहें डाल दीं और अनुनय भरे स्वर में बोली- “मैं इस सच्चाई को अच्छी तरह से जान गई हूँ। मुझे और अधिक विश्वास दिलाने की आवश्यकता नहीं है। मेरे अपराध के लिए मुझे कब तक लज्जित करोगे प्रकाश?”

बाँहों में भर कर प्रकाश ने उसके होठों पर प्यार का चिह्न अंकित कर दिया। दिव्या एक बेल की तरह बेसाख़्ता उससे लिपट गई। उसके आँसू  प्रकाश के सीने को भिगोने लगे। 

लगभग एक पखवाड़े के बाद, जब प्रकाश व दिव्या डिनर के बाद टीवी देख रहे थे, न्यूज़ चैनल पर महिला आश्रम का रिनोवेशन कार्य समाप्त हो जाने के कारण वहां से अन्य अस्थायी आवास में भेजी गई महिलाओं को पुनः महिला आश्रम में लाये जाने से सम्बन्धित समाचार आ रहा था। इस समाचार के साथ ही प्रकाश को केतकी का ध्यान हो आया।  उसने दिव्या से कहा- “दिव्या, सोचता हूँ, एक बार केतकी को मिल आया जाए। तुम भी साथ चलोगी तो उसे बहुत खुशी होगी।”

“तुम कहते हो तो चली चलूँगी, पर क्या मेरा वहाँ चलना उचित होगा?”

“इसमें बुरा भी क्या है? नहीं चलना चाहो तो और बात है।”

“ठीक है। जब जाना हो, बता देना, चले जायँगे।”

“इस सन्डे की शाम चलते हैं।”


(10)

रविवार की शाम दोनों महिला आश्रम पहुँचे। मैनेजर ने दोनों को अतिथि-गृह में बैठा कर केतकी को बुलवाया। केतकी डरते-डरते आई कि पता नहीं कौन उससे मिलने आया है। प्रकाश को देखा तो उसका मन खिल उठा। उसके मन में एक धुंधली-सी आस थी ही कि प्रकाश आएगा। प्रकाश के साथ एक महिला को देख कर उसने अनुमान लगा लिया कि वह उसकी पत्नी ही हो सकती है। दोनों को प्रणाम कर के वह सामने रखी कुर्सी पर बैठ गई। 

उसके प्रणाम का जवाब दे कर प्रकाश दिव्या का परिचय कराने के बाद बोला- “कैसी हो केतकी? यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है?”

“जी, अच्छी हूँ। कोई तकलीफ नहीं है। दिव्या मैडम को देख कर बहुत अच्छा लगा।”

केतकी चाह रही थी कि वह दिव्या से बात करे। उसने दरवाजे व खिड़कियों की तरफ ध्यान से देखा।  अतिथि-गृह में उन तीनों के अलावा और कोई नहीं है, यह सुनिश्चित कर के वह दिव्या की ओर मुखातिब हुई। 

“मैडम, प्रकाश जी ने मेरे लिए जो कुछ किया है, सात जन्मों में भी उसका चुकारा नहीं कर सकूँगी। आप भाग्यशाली हैं कि ऐसा देव-पुरुष आपको जीवन-साथी के रूप में मिला है।”

“हाँ केतकी! सोलह आने सच है यह। इन्होंने मुझे यहाँ साथ आने के लिए कहा तो मैंने तुरंत सहमति दे दी, ताकि जान सकूँ कि इतनी साहसी और संघर्ष कर सकने वाली लड़की आखिर है कौन। प्रकाश भी तभी किसी की मदद करते हैं, जब यह समझ लेते हैं कि वह शख़्स इसका पात्र है भी या नहीं।”

“अरे भई, तुम दोनों मुझे क्यों लपेट रही हो? इतनी तारीफ के लायक नहीं हूँ मैं।” -प्रकाश ने हँसते हुए कहा।

कुछ देर तक आश्रम की कार्य-प्रणाली व व्यवस्था के बारे में उन लोगों के मध्य वार्तालाप चलता रहा। अंत में प्रकाश ने बातचीत का समापन करने के इरादे से कहा- “बस यही कुछ जानने व तुम्हें मिलने के इरादे से हम यहाँ आये थे। अब हम चलते हैं। तुम्हारे पास मेरा फोन नंबर है ही, कोई भी काम हो तो तुम बात कर सकती हो।”

“जी, प्रकाश बाबू! बहुत-बहुत शुक्रिया।” -नम्रतापूर्वक केतकी ने जवाब दिया। प्रकाश और दिव्या इसके बाद केतकी से विदा ले कर चले आये। दरवाज़े तक छोड़ने आई केतकी उनको जाते हुए तब तक देखती रही, जब तक उनका स्कूटर दृष्टि से ओझल न हो गया।  

घर लौटने के बाद दिव्या ने कहा- “केतकी से बात कर के लगा ही नहीं कि कभी वह वेश्या भी रही है। तुम सही कह रहे थे, वह एक भली लड़की है। बेचारी ने कितना दुःख झेला है।”

“हाँ दिव्या! घर से निकल जाना और किसी अन्य पर विश्वास कर लेना, यही मात्र उसकी ग़लती थी, जिसका उसे इतना बड़ा दण्ड मिला।”

“मैं केतकी से अधिक दोषी उसके पेरेंट्स और भाई को मानती हूँ, जिन्होंने उसकी आगे पढ़ने की तमन्ना का गला घोंटा। वह लोग पढ़ाई का खर्च नहीं कर सकने की स्थिति में होते तो और बात थी।”

“जो भी हो, भुगतना तो उस बेचारी को ही पड़ा।” -प्रकाश ने एक लम्बी साँस ली। 

“ईश्वर करे, अब उसके साथ ज़िन्दगी में कुछ भी बुरा न हो।” -दिव्या ने कहा और चाय बनाने किचन में चली गई। 

समय को गुज़रना होता है और वह गुज़रता गया। अगले दो माह तक प्रकाश कुछ तो व्यस्ततावश व कुछ आलस्यवश केतकी को मिलने का समय नहीं निकाल सका। ‘कल जाऊँगा, परसों जाऊँगा’, यूँ सोचते समय निकलता रहा। 

एक दिन जब वह ऑफिस से घर लौट रहा था, उसे केतकी का ध्यान हो आया। ऑफिस के किसी काम से वह महिला आश्रम वाली रोड़ के पास ही स्थित एक अन्य ऑफिस गया था। घर जाने के बाद फिर इधर आने का शायद मूड न बने, यह सोच कर उसने आश्रम की तरफ स्कूटर का रुख कर लिया। आश्रम पहुँचा, तो वहाँ कोई अन्य व्यक्ति मैनेजर के रूप में मिला। प्रकाश समझ गया, शायद नया मैनेजर आ गया है। उसने अपना परिचय दिया व केतकी से मिलने की इच्छा व्यक्त की। 

“देखिये साहब, आश्रम के नियमों के अनुसार आश्रम की किसी भी महिला की जानकारी किसी अजनबी को देना या उससे मिलवाना निषेधित है।”

“आप अपना रिकॉर्ड चैक कर सकते हैं। लगभग ढाई माह पहले आश्रम में उसको प्रवेश दिलाने मैं ही आया था।” -प्रकाश ने स्पष्ट किया।

मैनेजर ने प्रवेश रजिस्टर निकाला व प्रकाश के बताये समय की प्रविष्टियाँ देखीं। सन्तुष्ट होने के बाद उसने बताया- “प्रकाश जी, केतकी अब आश्रम में नहीं है। वह शादी करने के बाद आश्रम से चली गई गई है।”

“शादी! केतकी ने शादी कर ली है?”

“इसमें आश्चर्य की क्या बात है श्रीमान जी? क्या वह शादी नहीं कर सकती?

“ओह, मेरा यह मतलब नहीं था। मेरा मतलब है, अनायास उसने ऐसा निर्णय कैसे कर लिया? किससे शादी हुई है उसकी?”

“एक आदमी से हुई है।” -मैनेजर मुस्कुराया। प्रकाश भी उसके चुहल को देख कर मुस्कुराये बिना नहीं रह सका। 

“एक समाजसेवी हैं। कभी-कभी आश्रम आ जाया करते हैं। उन्हें केतकी पसन्द आ गई और शादी का प्रस्ताव रखा। उम्र कुछ ज़्यादा है, यही कुछ पचास के आस-पास, पर भला आदमी है।” -मैनेजर ने स्पष्ट किया। 

“लेकिन केतकी तो मुश्किल से बीस वर्ष की है।”

“प्रकाश जी, हम ने उनकी इच्छा देखी तो मिलवा दिया केतकी से। केतकी ने शुरू में तो अनिच्छा जाहिर की, लेकिन एक सप्ताह बाद दुबारा वह आये और दोनों में बात हुई तो फिर मान गई वह। एक सप्ताह पहले कोर्ट में हुई है शादी। वैसे भी उस जैसी लड़की से उसका कोई हमवयस्क तो शादी करता नहीं।” -मैनेजर ने भौंडे स्वर में कहा और हँस दिया। 

मैनेजर के बोलने का ढंग प्रकाश को अच्छा नहीं लगा, अतः बात बदल कर बोला- “आप मुझे उस समाजसेवी सज्जन का नाम-पता बता सकते हैं?”

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं? उनका नाम है रामसहाय जी। उनका पता, … एक मिनट रुकिए!” -मैनेजर ने एक अन्य रजिस्टर खोल कर देखा और तीन-चार पृष्ठ पलटने के बाद एक जगह नज़र टिका कर पुनः बोला- “हाँ, नोट कीजिए। ‘मकान नंबर 28, गली नंबर पाँच, कमलेश्वर मार्ग’। वहाँ जा कर किसी से भी पूछ लीजिएगा, पता चल जाएगा।”

प्रकाश ने पता अपने फोन में लिखा और धन्यवाद दे कर चला आया।   


(11)

प्रकाश ने जब दिव्या को यह बात बताई, तो उसे भी अफ़सोस तो हुआ, किन्तु अन्यमनस्क प्रकाश को समझाते हुए बोली- “उम्र का फासला लम्बा तो ज़रूर है प्रकाश, मगर शादी कर के उसका जीवन तो व्यवस्थित हो जायगा। मुझे तो लगता है, उसने सही फैसला लिया है।”

प्रकाश ने निश्चय कर लिया कि पांच-सात दिन में ही वह केतकी की खोज-खबर करने रामेश्वर जी के घर जाएगा। अपने निश्चय के अनुसार वह आने वाले रविवार की दोपहर रामसहाय के घर के लिए निकल चला। बताये पते पर कुछ मकानों पर पुराने नंबर अंकित थे, सो नंबर से तो नहीं, किन्तु वहाँ एक-दो व्यक्तियों से पूछने पर मकान आसानी से मिल गया। उसने दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई, तो केतकी स्वयं बाहर आई। प्रकाश को देख कर बहुत खुश हुई, बोली- “आइये प्रकाश बाबू! इस बार तो बहुत दिनों बाद आये हैं आप, भीतर आइये।”

अंदर सोफे पर बैठाने के बाद केतकी पानी ले कर आई और बोली- “वह कहीं बाहर गये हुए हैं। आप बैठिये, मैं दो मिनट में चाय बना कर लाती हूँ।” 

प्रकाश ने कुछ सोच कर मना नहीं किया। केतकी चाय के कप ले कर आई। चाय पीते-पीते केतकी बोली- “आप पूछें, उसके पहले ही बता देती हूँ कि मैं अच्छे-से रह रही हूँ और मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं है। समाज-सेवा के अलावा उनका प्रोपर्टी का भी काम है, इसलिए आर्थिक रूप से भी मुझे कोई तकलीफ नहीं है। वह मेरा बहुत ख्याल रखते हैं।” और फिर वह मुस्कुरा दी। 

प्रकाश को उसका सहज हास्य देख प्रसन्नता हुई, लेकिन उसे अपने-आप पर भी हँसी आई कि वह जबरदस्ती ही उसका अभिभावक बना हुआ है। केतकी को खुश देख कर वह आश्वस्त हुआ और बोला- “यह देख कर सच में ही बहुत खुश हूँ मैं कि तुम अब प्रसन्न हो।… लेकिन केतकी, तुमने अपनी शादी की सूचना ही नहीं दी मुझे।”

“मुझे इसका बहुत दुःख है, लेकिन मैं मजबूर थी। आपकी सलाह और मौज़ूदगी मुझे बहुत ताकत देती प्रकाश जी, लेकिन मेरा मोबाइल कहीं खो गया था, जिसमें आपका नंबर सेव था। मुझे आप का नंबर भी याद नहीं था कि आश्रम के लैंडलाइन से ही फोन कर दूँ।”  

कुछ देर की बातचीत के बाद प्रकाश ने कहा- “राम सहाय जी अभी तक आये नहीं। कोई बात नहीं, उनसे फिर कभी मुलाकात हो जाएगी। अब मैं चलता हूँ।”

“ठीक है प्रकाश बाबू, फिर आइयेगा। दिव्या जी को मेरा नमस्कार अवश्य कहियेगा।” -हाथ जोड़ कर केतकी बोली। 

“हाँ केतकी, अवश्य कहूँगा।” -प्रकाश नमस्कार का जवाब दे कर बाहर निकला। 

‘रामसहाय उम्रज़दा अवश्य हैं, किन्तु केतकी उनके साथ सुखी है’, वहाँ से लौटते समय प्रकाश संतुष्ट था कि अब केतकी का घर बस गया है। 

प्रकाश के मुख से यह खुशखबरी सुन कर दिव्या को भी प्रसन्नता हुई। प्रकाश ने दिव्या से कहा- “केतकी अपनी लाइफ में खुश है, इसलिए अब हमें केतकी के बारे में सोचने, चिंता करने या उससे मिलने जाने की आवश्यकता नहीं है।” 

“एक अघोषित ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गए तुम, बधाई!” -मुस्कुराई दिव्या।  

चार माह बाद -

उस दिन राजकीय अवकाश था। लंच के बाद दिव्या ने सुझाव दिया- “प्रकाश, बहुत दिन हो गये मूवी देखे। कोई थ्रिलर मूवी लगाते हैं यूट्यूब से।”

“अच्छी याद दिलाई तुमने! पीवीआर में कल ही लगी है थ्रिलर मूवी- ‘हसीन दिलरुबा’। चलते हैं आज।”

“नहीं यार, आज कहीं बाहर जाने का मूड नहीं है, यहीं टीवी पर ही देखेंगे।” -दिव्या पीवीआर जाने में अरुचि व्यक्त करते हुए लिविंग रूम में टीवी के सामने सोफे पर बैठे प्रकाश के पास ही पसर गई। 

“ठीक है, जैसा तुम चाहो।” -कह कर प्रकाश ने रिमोट उठा कर टीवी लगाया। टीवी चालू होते ही उस पर नवजीवन चैनल पर पिछले दिन लगाया गया ‘आपबीती’ शो  एक्टिव हो गया। शो के कुछ शब्द कानों में पड़े तो दिव्या ने प्रकाश को चैनल बदलने से रोकते हुए कहा- “एक मिनट प्रकाश! चैनल मत बदलना अभी। सुनो, कुछ विशेष कार्यक्रम आ रहा है?”

प्रकाश ने रिमोट टेबल पर रख दिया। दोनों ध्यान से टीवी की तरफ देख रहे थे। ‘आपबीती’ शो में प्रसारण हो रहा था- ‘अभी आपने शहर के नये एस.पी. एम एन शांडिल्य के आदेश से की गई कार्यवाही में लम्बे समय से चल रहे जौहरा बाई के कोठे से पुलिस द्वारा छुड़ाई गई युवतियों में से एक, जबरन कोठे में बेची गई युवती ‘पद्मा’ से उसकी दास्तां सुनी। जैसा कि हमने अभी बताया था उक्त कोठा कई वर्षों से पुलिस व एक प्रभावशाली नेता की मिलीभगत से अवैध रूप से चलाया जा रहा था। प्राप्त जानकारी के अनुसार वहाँ से चरस का भी अवैध कारोबार किया जा रहा था। कोठे की मालकिन जौहरा बाई को उसके दो सहायकों सहित आज दोपहर में गिरफ्तार कर लिया गया था। अभी-अभी प्राप्त समाचार के अनुसार कोठे से भागे दो अन्य सहायकों में से एक को अभी कुछ देर पहले पुलिस ने झबरा रोड़ से गिरफ्त में ले लिया है व दूसरे की तलाश जारी है। अब आप एक और सनसनीखेज दास्तां कोठे से छुड़ाई गई एक अन्य युवती ‘रत्ना’ से सुनेंगे।’

इस सूचना के साथ ही स्क्रीन पर एक युवती दिखाई दी, जिसके चेहरे की आकृति को धुंधलाया गया था। प्रकाश ने दिव्या की और अर्थभरी नज़रों से देखा और टीवी का वॉल्यूम बढ़ा दिया। टीवी पर आई युवती ने बोलना प्रारम्भ किया- “हेलो. मेरा नाम रत्ना है। मैं शुक्रगुज़ार हूँ एस.पी. आदरणीय शांडिल्य साहब की, जिन्होंने हमें उस नर्क से आज़ाद कराया है। मैं पुलिस से यह गुज़ारिश भी करूँगी कि मुझे और केतकी को इस पाप-नगरी में धकेलने वाले मदनगिरि और उनके साथी दलालों को भी जल्दी ही पकड़ें और सख़्त से सख़्त सज़ा दिलवाएँ। मेरी और उस कोठे में बनी मेरी बैस्ट फ्रैण्ड केतकी की कहानी कुछ बातों के अलावा लगभग एक जैसी है। केतकी और मेरे बीच कुछ भी छिपा हुआ नहीं था। हम दोनों एक-दूसरे से अपनी सभी बातें शेयर करती थीं। केतकी की कहानी तो मेरी कहानी से भी अधिक दर्दनाक है, इसलिए पहले मैं उसकी कहानी आपके सामने बयां करूँगी।”

रत्ना ने केतकी की कहानी का वह भाग, जो केतकी ने प्रकाश को सुनाया था, संक्षेप में बताने के बाद प्रकाश के द्वारा केतकी को की गई मदद व महिला आश्रम में प्रवेश दिलवाने तक की कहानी सुनाई व अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा- “यह भी सच है कि केतकी को अगर  प्रकाश जैसा फरिश्ता नहीं मिला होता तो उसे  महिला आश्रम में जगह नहीं मिल सकती थी। आप कहेंगे कि केतकी तो मुझसे जुदा हो चुकी थी, फिर मुझे बाद की सभी बातें कैसे मालूम हुई, तो यह मेरे द्वारा आगे बताई जा रही बातों से आप जान जाएँगे। 

हाँ, तो मैंने अभी आपको बताया, केतकी महिला आश्रम में आ गई थी और अच्छे-से वहाँ रह रही थी। महिला आश्रम में रामसहाय नामक एक समाजसेवी आता था। उसने केतकी को देखा तो वह उसे पसन्द आ गई। उसने आश्रम के मैनेजर को केतकी से शादी करने का अपना विचार बताया और फिर केतकी से बात की। केतकी ने कुछ सोच-विचार करने के बाद अपने से ढाई गुना उम्र के उस व्यक्ति से शादी करना मंजूर किया। आश्रम वालों की मदद से उसकी शादी रामसहाय से हो गई। रामसहाय ने दो-एक माह तक तो उसके साथ अच्छा व्यवहार किया, लेकिन बाद में किसी भी पड़ोसी से बात करने पर उस पर शक करने लगा। फिर वह उसके पिछले जीवन के ताने दे कर उसके साथ गली-गलौज व मार-पीट भी करने लगा। 

एक दिन उसकी अनुपस्थिति में घर की घंटी बजने पर केतकी ने दरवाज़ा खोला, तो दो आदमियों ने तेजी से घर में घुस कर उसे कुछ सुंघा कर बेहोश कर दिया। केतकी को जब होश आया तो वह वापस उसी कोठे में पहुँच चुकी थी। उस ने दो-एक दिन बाद मौका मिलने पर मुझे बताया कि मुझसे बिछड़ने के बाद उसके साथ क्या-क्या वाक़या हुआ था। हमें यह मालूम नहीं हो सका कि उसे वापस कोठे पर पहुँचाने में रामसहाय का हाथ था या फिर जौहरा बाई ही लगातार उसकी टोह में थी। कोठे में वापस आने के दिन से ही वह प्रकाश जी और उनकी मेहरबानियों को याद करती और साथ ही साथ अपनी किस्मत को कोसती हुई दिन-रात रोती रहती थी….।”

‘आपबीती’ कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता ने रत्ना को बीच में ही टोक कर पूछा- “लेकिन रत्ना, कोठे से बरामद हुई लड़कियों में केतकी नाम की लड़की तो कोई है ही नहीं।” 

“साहब, कोठे पर पहुँचने के सात-आठ दिन बाद ही उसने अपने गले में दुपट्टे का फंदा डाल कर कोठे के आँगन के पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर ली थी।” -रत्ना यह कहते हुए फफक-फफक कर रो पड़ी व रोते-रोते बोली- “वह मेरी बहन जैसी थी साहब!”

प्रत्युत्तर में कार्यक्रम का प्रस्तुतकर्ता कुछ बोल रहा था, किन्तु प्रकाश और दिव्या के कान और कुछ भी सुन नहीं पाए। प्रकाश स्तम्भित-सा टीवी के स्क्रीन की और देख रहा था और दिव्या शोकातिरेक में सुबकने लगी थी। 

कुछ सामान्य होने के बाद प्रकाश ने टीवी को स्विच ऑफ किया व दिव्या को सम्हालने लगा। यह नारी-हृदय की कोमलता ही थी कि दिव्या केतकी से केवल एक बार ही मिली थी, किन्तु उसकी आँखों से बह रहे आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। कुछ देर बाद प्रकृतिस्थ होने पर वह बोली- “प्रकाश, पेरेंट्स की गैरज़िम्मेदारी और उपेक्षा के बाद केतकी ने रोहित की बदमाशी को झेला। मदनगिरि तो जौहरा बाई का दलाल था ही, लेकिन कोठे में हुई ज़्यादतियों के बाद रामसहाय ने भी उस पर जुल्म ढ़ाया और फिर दुर्भाग्य से वह वापस कोठे पर पहुँच गई। वह मासूम भाग्य के इस खिलवाड़ को सह न सकी और आखिर में उसने मौत को गले लगा लिया। कितनी बेइन्साफी हुई उस मासूम के साथ? आपकी इतनी मदद भी उसे उबार नहीं सकी।” वह फिर रो पड़ी। 

“शान्त हो जाओ दिव्या, वक्त की लकीरें तक़दीर के इशारे पर ही चलती हैं। हमारा कोई भी प्रयास उनकी दिशा निर्धारित नहीं कर पाता।” -प्रकाश ने दिव्या को दिलासा देने का प्रयास किया। वह भी उसे कैसे और कब तक सान्त्वना देता, जबकि उसका स्वयं का संयम भी भरभरा उठी आँखों से निकल रहे आंसुओं को रोक नहीं पा रहा था। 

-: समाप्त :-

                                  


टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब कहानी ।

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  2. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 18 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. मर्म स्पर्शी कहानी लेकिन समाज के एक वर्ग का नग्न सत्य भी उद्घाटित करती है।आज भी जाने कितनी केतकी ऐसा जीवन जीने को मजबूर हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, धन्यवाद अभिलाषा जी! बिना विवशता के ऐसा नारकीय जीवन कोई नहीं जीना चाहता। दुर्भाग्यवश ऐसे दल-दल से बाहर निकल पाना भी हरेक के भाग्य में नहीं होता!

      हटाएं
  4. बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति, लाजबाव

    जवाब देंहटाएं

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