राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ-प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर पुनर्विचार के बयान से कुछ अवसरवादी नेता ठीक इस तरह कुलबुला उठे हैं जैसी कुलबुलाहट गन्दी नाली में इकठ्ठा कीड़ों पर फिनॉइल छिड़कने पर देखी जाती है। भारतीय राजनीति के द्वारा कोने में धकेल दिए गये लालू और मायावती जैसे नेताओं को तो मानो पुनर्स्थापित होने के लिए फुफकारने का अवसर मिल गया है। मोहन भागवत के बयान पर कुछ भी उलटी-सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले भारतीय समाज के हर वर्ग के हर बुद्धिजीवी (नेता नहीं) को सोचना-समझना होगा कि वर्तमान आरक्षण नीति क्या आरक्षण की मूल भावना के आदर्शों के अनुकूल है और क्या इसके वांछित परिणाम हम प्राप्त कर सके हैं ?
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद आरक्षण-व्यवस्था केवल दस वर्षों के लिए लागू की जानी थी, लेकिन अनुकूल परिणाम नहीं मिलने पर इसे अगले दस वर्षों के लिए और बढ़ाया गया था। यहाँ तक तो फिर भी सही था, लेकिन बाद में इसे सत्ता के सिंहासन पर चढ़ने की सीढ़ी ही बना दिया गया। जब आरक्षण के इस स्वरुप की निरर्थकता को सब ने जाँच-परख लिया था तो क्यों नहीं उसे समय रहते समाप्त या संशोधित किया गया ? आज जब मोहन भागवत ने नपे-तुले शब्दों में समस्या की तह में जाने और इसे सुलझा कर सही रूप देने के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं तो सत्ता के भूखे अवसरवादी नेताओं में खलबली मच गई है। अपनी वर्तमान सत्ता को सुरक्षित रखने की चिंता से बीजेपी ने तथा पुनर्स्थापित होने को आतुर काँग्रेस पार्टी ने इस पर अपना मौन साध लिया है।
दलित और पिछड़े वर्ग की विशाल जनसंख्या की आड़ लेकर विरोध और विद्रोह की चेतावनी देने वाले खुदगर्ज नेता क्या ऐसी बातों से वर्ग-संघर्ष को जन्म देने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? क्या योग्यता के बावजूद पीछे धकेले जाने वाला सवर्ण समाज, जो अब तक ख़ामोशी से अपने साथ होने वाले अन्याय को सहता आया है, किसी भी विद्रोह का सामना करने की क्षमता नहीं रखता ? और.....और क्या दलित और पिछड़ा वर्ग इन नेताओं के घर की खेती है, जिसे वह जब चाहें बो और काट लें ? यह वर्ग भी अब अच्छी तरह समझने लगा है कि वर्तमान आरक्षण-व्यवस्था ने उनके ही समाज को दो वर्गों में बाँट दिया है - 1) साधन-सम्पन्न, ऊँचे ओहदों वाला धनिक वर्ग और 2) पहले जैसा ही उनका साधनविहीन विपन्न वर्ग।
पहली श्रेणी वाला वर्ग आरक्षण की बैसाखी के सहारे आगे बढ़ा तथा बाद में अपने ही समाज को विस्मृत कर अपने निजी लोगों को साथ लेकर दौड़ लगाता चला गया और अपना नया समृद्ध कुनबा तैयार कर लिया। यह वर्ग स्वयं को श्रेष्ठ मानकर अपने ही समाज के अन्य लोगों की निरंतर उपेक्षा भी करता रहा।
दूसरी श्रेणी वाला वर्ग विपन्नता को अपना भाग्य मानकर अपने शताब्दी पूर्व के जीवन को ही जी रहा है। आरक्षण की बैसाखी उसकी पहुँच से अभी भी दूर ही है।
तो इस आरक्षण-व्यवस्था से क्या मिला है किसी को भी? आरक्षण की बैसाखी के सहारे पनप कर अपना एक अलग कुनबा बनाने वाले लोग भी कहीं-न-कहीं इस कुण्ठा से स्वयं को पृथक नहीं कर पाते हैं कि वह कहीं अधिक योग्य लोगों का हक़ छीनकर इस मुक़ाम तक पहुंचे हैं। इस वर्ग में जिन लोगों ने वास्तव में योग्यता के कारण अपनी मंजिल पाई है उन्हें भी अन्य लोगों का आन्तरिक सम्मान नहीं मिल पाता- इस बात की पीड़ा उन्हें रहती ही है।
दलित और पिछड़ा वर्ग क्या स्वयं को पंगु और अक्षम मानकर आरक्षण के सहारे को अपनी अनिवार्य आवश्यकता मानते रहना चाहेगा ? शायद नहीं, क्योंकि कुटिल नेताओं का खेल वह अच्छी तरह समझ चुका है।
यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जाती है तो इससे किसी को भी क्या हानि होगी? इसके अन्तर्गत देश के हर जाति-वर्ग के साधनविहीन आरक्षित व्यक्ति को किसी भी स्तर की प्रतियोगिता के लिए सुविधा उपलब्ध करा तैयार किया जा सकेगा और उसमें चयनित होकर वह आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अपने सुन्दर भविष्य का निर्माण स्वयं कर सकेगा। क्या यह स्थिति सभी के लिए सुखद नहीं होगी ?
देश के सभी स्थापित राजनैतिक दलों को इस सन्दर्भ में अपनी सही सोच विकसित कर आपसी सामन्जस्य स्थापित करते हुए आरक्षण के वर्तमान स्वरुप को समाप्त करने का निर्णय लेना ही होगा, देश हित में यही श्रेयस्कर है।
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