बायोलॉजिकली ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं, लेकिन इस बात पर पूरा यकीन नहीं मुझे! मेरे हिसाब से ह्रदय में हजारों प्रकोष्ठ होते हैं तभी तो हम दुनिया के सभी रिश्तों से प्यार कर पाते हैं। हमें कोई भी नया रिश्ता जोड़ने के लिए ह्रदय का कोई कोना खाली नहीं करना पड़ता। वहाँ जगह बनती ही चली जाती है हर नए रिश्ते के लिए।
यह भी सही है (मुझे ऐसा लगता है) कि यदि हमारा प्यार सभी रिश्तों के लिए सच्चा है तो यह कह पाना मुश्किल है कि हम किसे अधिक प्यार करते हैं और किसे कम। हम या तो किसी से प्यार करते हैं या नहीं करते हैं- यही सत्य है। प्यार ही है जो हमें रिश्तों में बांधता है चाहे वह खून का रिश्ता हो चाहे मित्रता का। कभी यह रूमानी होता है तो कभी रूहानी।
क्या खूब कहा है किसी ने-'प्यार किया नहीं जाता, प्यार हो जाता है।'
और, एक शायर के अनुसार- 'प्यार बेचैनी है, मजबूरी है दिल की, इसमें किसी का किसी पर कोई एहसान नहीं।'
सम्बन्धों का एक नाज़ुक धागा होता है प्यार, चाहे वह माता-पिता और सन्तान के बीच हो, भाई और बहिन के बीच हो, पति और पत्नी के बीच हो या मित्रों के मध्य का प्यार हो। इसको सहेजना, न टूटने देना, आसान नहीं होता। कभी स्वार्थ, कभी असहनशीलता तो कभी अभिमान (ईगो) इस दैवीय बन्धन को टुकड़े-टुकड़े कर बिखेर देता है। कवि रहीम ने सत्य ही कहा है -'रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चिटकाय, जोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ लग जाय।'
सम्बन्धों की किसी भी घनिष्टता में समाये प्यार को सम्मान की परिधि में आबद्ध किया जाना भी नितान्त आवश्यक है। प्यार को सहज प्राप्य मान कर या इसे अपना अधिकार मानकर पारस्परिक व्यवहार में अनजाने में ही तिरस्कार कर बैठना किसी संवेदनशील ह्रदय को अपरिमार्जनीय आघात पहुँचा सकता है। अतः प्यार में सम्मानजनक दूरी बनाये रखना औपचारिकता को जन्म नहीं देगा, अपितु प्यार को अधिक आकर्षक बनाकर स्थायित्व ही प्रदान करेगा।
घृणा-भाव किसी कारण से उपजता है जबकि प्यार के मूल में कोई कारण नहीं होता। फिर भी प्यार और घृणा पूरी तरह से एक-दूसरे के विलोम नहीं हैं। प्यार का स्वरूप मौलिक और शाश्वत है, प्यार ह्रदय की धड़कन है, प्यार जीवन को गतिशील बनाता है। प्रयास कर के घृणा को भी प्यार में बदला जा सकता है।
प्यार एक अमूल्य निधि है, सहेज कर रखें इसे।
मूवी 'ख़ामोशी' के एक गीत में गीतकार गुलज़ार जी ने भी प्यार की परिभाषा को बहुत ही खूबसूरत अल्फ़ाज़ दिए हैं -
'Pyaar Koi Bol Nahin , Pyaar Aavaaz Nahin, Ek Khaamoshi Hai Sunati Hai Kahaa Karati Hai, Naa Ye Bujhati Hai Naa Rukati Hai Naa Thahari Hai Kahin,
Nuur Ki Buund Hai Sadiyon Se Bahaa Karati Hai,
Sirf Ehasaas Hai Ye, Ruuh Se Mahasuus Karo…'
कभी-कभी हम उससे भी प्यार करते हैं जिसको हमने कभी देखा ही नहीं और शायद कभी देखेंगे भी नहीं। क्या यह सही नहीं है कि हम उस ईश्वर को सबसे अधिक प्यार करते हैं जिसको हमने कभी नहीं देखा? (यह बात अलग है कि ईश्वर को हम सबसे अधिक प्यार सम्भवतः इसलिए करते हैं क्योंकि वह अलौकिक है।)
वस्तुतः प्यार एक दिव्य अनुभूति है जो दृष्टि-बोध या स्पर्श की अनिवार्यता से परे है... सर्वथा परे!
मैं, इस उपरोक्त चिन्तन का लेखक, स्वयं भी सम्भवतः इसे अपने जीवन में पूरी तरह से उतार नहीं पाया हूँ, किन्तु हम प्रयास तो कर ही सकते हैं।
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