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जनता को तलाशना होगा ...



    'जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए' -  प्रजातन्त्रीय शासन की यह परिभाषा मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह परिभाषा अपना अर्थ खो चुकी है। 'जनता के द्वारा' चुन कर निर्मित हुआ शासन-तंत्र अब 'जनता का' नहीं होकर, कुछ लोगों का शक्ति-केंद्र बन जाता है और 'जनता के लिए' नहीं होता, अपितु एक वर्ग-विशेष को साधन-संपन्न बनाने के लिए काम करता है। दुर्भाग्य से जनता इसे अपनी नियति मान लेती है और पांच वर्षों तक प्रतीक्षा करती है अगले चुनाव की, पांच वर्षों तक दुबारा ठगे जाने के लिए। यह सिलसिला अब तक यूँ ही चलता आया है। राजनैतिक दल एक ही विषैले साँप के बदले हुए रूप हैं जो अपनी केंचुली बदल कर क्रम से आते और जाते हैं।
   दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद शुक्ल की नैतिकता एवं अटल बिहारी बाजपेयी की ईमानदारी और राजनैतिक उदारता आज के वरिष्ठ बीजेपी के नेताओं में ढूंढे से भी नहीं मिलती। इसी प्रकार लाल बहादुर शास्त्री की चारित्रिक दृढ़ता व सरलता तथा प्रियदर्शिनी इंदिरा गाँधी के नेतृत्व की ओजस्विता को आज के शीर्ष कॉन्ग्रेसी नेताओं में खोजना समय को जाया करना मात्र है। इंदिरा जी के दैदीप्यमान राजनैतिक चेहरे को इमरजेंसी वाले बदनुमा दाग ने धूमिल ज़रूर किया था, लेकिन उनके समय में देश ने जो महत्ता और गौरव विश्व में प्राप्त किया उसे कोई भी व्यक्ति नकार नहीं सकता।  
   सत्ता के शीर्ष पर आसीन मदान्ध सत्ताधीश अपने ही नियोक्ता (जनता) को अपना अनुचर मान कर व्यवहार करते हैं।  उनकी वाणी में गरिमा होना तो दूर की बात है, एक सभ्य नागरिक के लिए अपेक्षित शिष्टता से भी उनका कोई वास्ता नहीं। उन्हें न तो अपने कर्तव्य का बोध है और न ही अपनी कृतघ्नता के लिए शर्म का कोई अहसास!
   NDTV चैनल  के द्वारा दिल्ली में इस बार चुनाव पूर्व किये गए सर्वे में संवाददाता रवीश कुमार ने कुशल चातुर्य के साथ मतदाताओं के मन को टटोला। इस प्रश्नोत्तरी में वहां के आम नागरिक के जवाबों में जो राजनैतिक अपरिपक्वता, दिल्ली की व्यथा और कहीं, राजनेताओं के आचरण की कुटिलता उजागर हुई है, उसकी बानगी पेश कर रहा हूँ -
   पूछा जाने पर कि वोट किसको देंगे और क्यों देंगे- 
  1) "मैं तो शुरू से एक ही पार्टी को वोट देता आया हूँ सो उसी को दूंगा। वह क्या करती है उससे मतलब नहीं, अच्छा ही करती होगी।"
  2) "घर में सब जिसको वोट देंगे उसी को मैं भी दूंगी।"
  3) "किसी को भी दें साहब, क्या फर्क पड़ता है ! कभी अपनी समस्या लेकर जाते हैं तो यही MLA / मंत्री  बनने के बाद कह देते हैं कि अभी फुर्सत नहीं है, P.A. से मिल लो। और फिर P.A. तो P.A. होता है साहब !" (पढ़ा-लिखा आदमी, बोलते समय होठों पर एक फीकी मुस्कराहट...)
  4) "सोचेंगे जी, किसी को भी दे देंगे …नहीं भी दें। हमें तो इन्हीं टूटी-फूटी सड़कों पर चलना है, ऐसे ही पानी के लिए लाइन में घंटों खड़े रहना है।"
  5) "किरण बेदी जी को देंगे, उन्होंने नौकरी को त्याग दिया देश सेवा के लिए। केजरीवाल भगोड़े को तो नहीं देंगे।"
     "केजरीवाल भगोड़ा कैसे हैं ?"
     " पहले तो वह नौकरी से भागा और फिर सरकार छोड़ के भागा।"
     "किरण बेदी ने नौकरी छोड़ी तो 'त्याग' और केजरीवाल ने छोड़ी तो 'भगोड़ा'- ऐसा फर्क क्यों ?"
    "………………… "  (कोई जवाब नहीं )
  6) "हम तो बीजेपी को  वोट देंगे क्योंकि उन्होंने सब कुछ सस्ता किया है, पैट्रोल और डीज़ल भी कितना सस्ता कर दिया है।"
     "लेकिन इसमें तो बीजेपी का कोई रोल नहीं, यह तो दुनिया भर में कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) सस्ता होने के कारण हुआ   है।"
     "……………… "   (कोई  जवाब नहीं )

  कहीं तो अशिक्षा के कारण, कहीं अल्प-ज्ञान के कारण तो कहीं राजनेताओं के दूषित आचरण के कारण, आज के पंगु प्रजातन्त्र ने जनता को राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बना कर रख दिया है। जनता को तलाशना होगा अब एक ऐसे नेतृत्व को जो उसे सही दिशा दे सके और नेता को परखने के काबिल भी बना सके। तभी वह अपनी आकांक्षाओं के अनुकूल सिद्ध न होने पर अपने नेता को उसकी ज़मीन भी दिखा सकेगी। जनता में अगर यह चेतना आ सकी तो ही यह देश ज़िंदा रह सकेगा, अपनी ऊँचाइयाँ पा सकेगा। …काश, ऐसा हो!… काश!
     

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