सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कब तक चलेगा यह सिलसिला...



     27 नवम्बर, 1973 की वह काली रात, जब मुंबई के केईएम अस्पताल में चौबीस वर्षीया नर्स अरुणा शानबाग के साथ अस्पताल के ही वार्ड ब्वॉय सोहनलाल भरथा वाल्मीकि ने दुष्कर्म किया था। दुष्कर्म के बाद उस बहशी दरिंदे ने कुत्ते की चैन से अरुणा का गाला घोंटने का प्रयास भी किया था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क में ऑक्सीजन नहीं पहुँचने से अरुणा कौमा में चली गई। वाल्मीकि पकड़ा गया, लेकिन उसे केवल हमले और लूटपाट का अपराधी ठहराया जाकर मात्र सात वर्ष की सजा मिली और सजा काटकर वह जेल से मुक्त हो गया। उसके दुष्कर्म का अपराध हमारे योग्य (?) पुलिस अधिकारियों की जाँच-प्रणाली और आदर्श क़ानून की पेचीदगियों में उलझ कर खो गया। स्त्री होने का अपराध झेलती मासूम अरुणा ने भी 42 वर्षों का मौत से बदतर जीवन बिताकर आखिर में मुक्ति पाई और दि.18 मई, 2015 को उसने अपनी अन्तिम श्वांस ली।
    इतने वर्षों तक सुध नहीं लेने वाले परिजनों को अरुणा का शव नहीं सौंपा गया और उनकी मौजूदगी में अस्पताल के स्टाफ ने अरुणा का अन्तिम संस्कार किया।
   अरुणा चली गई...अरुणा से जुड़ी यादें भी ऐसे ही अन्य कई हादसों की तरह समय की परतों में धुंधली होते-होते समाप्त हो जाएँगी, लेकिन कई यक्ष-प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभर रहे हैं और मैं जानता हूँ कि यह प्रश्न हमारे सभ्य समाज के द्वारा अनुत्तरित ही रह जाने वाले हैं।
    1) क्या सही मायनों में अरुणा को न्याय मिल पाया है ?
    2) जाँच में रही खामियों के लिए, तत्कालीन पुलिस अधिकारी क्या वाल्मीकि से कम दोषी हैं ?
    3) बेगुनाहों के लिए कम और गुनहगारों के लिए अधिक मददगार मौज़ूदा क़ानून और मानवाधिकार आयोग का आदर  हम कब तक कर सकेंगे ?
    4) मासूम अरुणा इस भयावह हादसे के बाद, अपने ही परिजनों के लिए उपेक्षित हो गई और मृत्यु के बाद ही उन्हें उसकी याद आई, जबकि साथिन नर्सों ने हादसे की घड़ी से अंत तक उसकी सेवा-सुश्रुसा की। परिजनों की मानवीय संवेदनाएं आखिर कहाँ खो गई थीं ?
   5) दिल्ली की दामिनी की आत्मा अभी तक न्याय के लिए प्रतीक्षा ही कर रही है और कई अज्ञात दामिनियों की कराहें बधिर समाज एवं कानून को झकझोरने में समर्थ नहीं हो पा रही हैं। कब तक चलेगा यह सिलसिला, क्या अनंतकाल तक?
    इन प्रश्नों का उत्तर सम्भवतः किसी के पास नहीं होगा। यह प्रश्न किसी भी अन्य चिन्तनकर्ता के मस्तिष्क को भी आंदोलित अवश्य करेंगे, करते होंगे, लेकिन समाधान के लिए समस्या को जानना पर्याप्त नहीं है। क़ानून अंधा है, प्रशासन बहरा है और जनता अपना-अपना घर सम्हालने में व्यस्त है।
   बहुत हो गया, बहुत हो चुका है, अब आवश्यकता है जन-जागरण की, एक जन-आंदोलन की, जो हर जागरूक इन्सान की रगों में आग भर दे और कठोर निर्णय लेने तक अपनी-अपनी रोटी सेंकने में मस्त देश के तथाकथित कर्णधारों की नींद हराम कर दे।
   तब कोई नेता, कोई मानवाधिकार आयोग, वाल्मीकि जैसे नर-पिशाचों को मृत्यु दण्ड  से भी अधिक भयावह दण्ड देने में बाधक नहीं हो सकेगा।
  जब तक अपराधियों के मन में भय पैदा नहीं होगा, अपराध नहीं मिटेंगे- यह एक ध्रुव सत्य है। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह