स्त्री ने त्रेता युग में सीता के रूप में तो द्वापर युग में द्रोपदी बन कर 'स्त्री' होने की पीड़ा को भोगा था और तब से अब तक कलियुग में भी भोगती चली आ रही है। हम अपने आपको कितना भी प्रगतिशील क्यों न कह लें, आज भी पुरुष की सोच नारी-जाति के प्रति संकीर्ण, स्वार्थपरक और भोगवादी है। पुत्री के जन्म पर आज भी अधिकांश माता-पिता उतने प्रसन्न दिखाई नहीं देते जितने पुत्र के जन्म पर। सम्भवतः इसके पीछे पुत्री की सुरक्षा के प्रति आशंकित सोच ही उत्तरदायी होती है। समाज-सुधारकों के अथक प्रयासों तथा राजनेताओं के दावों / वादों के उपरान्त भी स्त्री आज भी असुरक्षित है। नारी-जीवन की पीड़ा के इसी पक्ष की झलक पाएँगे आप मेरी इस कविता 'नारी की व्यथा' में।
यह कविता मैंने अपने अध्ययनकाल में (रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में ) लिखी थी और कॉलेज के एक कार्यक्रम (कॉलेज हाउसेज़ की प्रतियोगिता ) में, जिसका मैंने सञ्चालन किया था, इसकी प्रस्तुति भी दी थी।
यह कविता मैंने अपने अध्ययनकाल में (रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में ) लिखी थी और कॉलेज के एक कार्यक्रम (कॉलेज हाउसेज़ की प्रतियोगिता ) में, जिसका मैंने सञ्चालन किया था, इसकी प्रस्तुति भी दी थी।
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