यह कविता मैंने अपने अध्ययनकाल में (रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में ) लिखी थी और कॉलेज के एक कार्यक्रम (कॉलेज हाउसेज़ की प्रतियोगिता ) में, जिसका मैंने सञ्चालन भी किया था, इसकी प्रस्तुति दी थी।

'नारी की व्यथा’
नारी के कल्याण केन्द्र की,
इमारत ऊँची एक खड़ी थी।
पर उससे कुछ थोड़ा हट कर
एक ओर को नज़र पड़ी थी।
जहाँ दीन अबला बैठी थी,
बच्चे दोनों पास पड़े थे।
वहाँ भेष में इन्सानों के,
भेड़िये दो-चार खड़े थे।
कैसे कह दूँ, क्या कहते थे,
उस दुखिया बेचारी से।
बोले- ‘हमको अपना समझो’
उस विपदा की मारी से-
‘सुन्दर हो तुम परियों जैसी,
फटेहाल क्यों रहती हो?
नज़र उठाओ, सबकुछ देंगे,
वृथा कष्ट क्यों सहती हो?’
तड़प उठी थी वह बेचारी,
आँखों से आँसू बहते थे।
भूखे बच्चों की माता से,
वह मुस्काने को कहते थे।
बढ़ते देखा मुझको आगे,
बदमाश वहाँ से चले गये।
चौंक पड़े तीनों वह प्राणी,
किस्मत के हाथों छले गये।
अस्त-व्यस्त आधे कपड़ों में,
वहाँ अभागिन बैठी थी।
क्या ईश्वर का न्याय यही था?
हाय, विडम्बना कैसी थी!
दस रुपये मेरे पास थे,
उसके हाथों में थमा दिये।
मुख से कुछ भी कह ना पाया,
पलकों में आँसू छिपा लिये।
उसका ही ऐसा नसीब था,
या विधि का मुझ पर कोप हुआ।
‘बहिन-बहिन’ मेरा सम्बोधन,
उसके रोदन में लोप हुआ।
नोटों के टुकड़े कर डाले,
रुक कर वह बोली क्षण-भर।
’मर्द सभी तुम एक जात के,
तुम लोगों में क्या अन्तर?
मर्द था वह दानव भी जो,
इन बच्चों का पिता लगता था।
इन सफ़ेद, उजले कपड़ों में,
वह भी तो मानव लगता था।
जाने कितने ही शिशुओं के,
लोहू से वह सना हुआ है।
नारी के कल्याण केन्द्र का,
अधिकारी वह बना हुआ है।
रो-रो कर हम भीख मांगती,
हमको केवल गेह चाहिये।
आँसू की कीमत क्या जानो,
तुमको केवल देह चाहिये।
कुछ चांदी के टुकड़े दे कर,
नारी का तन-मन लेते हो।
पहले दाग़ लगा दामन में,
फिर उसको कुलटा कहते हो।
तुम आग लगा कर चल देते हो,
औरत उसमें जल मरती है।
फिर भी उसमें प्यार तुम्हारा,
बच्चों की ममता पलती है।”
मैं लौट पड़ा, यह सह न सका,
बस चक्कर खाती थी धरती।
कुछ और अगर खड़ा रहता तो,
जाने क्या-क्या पगली कहती!
पर क्या पगली कह देने से,
पुरुषों का अपराध मिटेगा?
मिला न आदर नारी को तो,
कभी नहीं यह शाप कटेगा।
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