Skip to main content

डायरी के पन्नों से ..."तृतीय विश्व युद्ध" -------

 
  तृतीय विश्व-युद्ध सम्भवतः नहीं होगा, लेकिन कुछ देश जिस तरह की गैर ज़िम्मेदाराना हरकतें कर रहे हैं, उससे एक डरावने भविष्य का संकेत मिल रहा है। यदि अनहोनी होती ही है तो परिणाम क्या होगा? इसी कल्पना की उपज है मेरी यह कविता...! (यह कविता मैंने महाराजा कॉलेज, जयपुर में अपने अध्ययन-काल के दौरान लिखी थी, जो कॉलेज की पत्रिका 'प्रज्ञा' में प्रकाशित हुई थी।)

                                       















"तृतीय विश्व युद्ध"


...और-

 मैं जाग पड़ा। 

ओह! 

कितनी दर्दनाक,

मर्मभेदी-

करुण चीत्कार!

उठा,

चल पड़ा,

साथ में थी 

एक पिस्तौल। 

बाहर निकला,

कुछ भारी,

गर्म तरल सा 

छूने लगा 

पाँवों को। 

नीचे देखा-

उफ्फ़!

खून 

लाल, गाढ़ा लाल। 

आगे बढ़ा-

घुटनों तक खून!

सहसा देखा-

वह अद्भुत,

कुशल तैराक,

विजयी 

किसी प्रतियोगिता का,

चला आ रहा था-

तैरता,

खून के उस समुद्र में,

निश्चल गति से 

शान्त, मौन। 

"बधाई हो"

-मैंने कहा। 

देखता रहा वह

आँखें फाड़े,

बोला नहीं। 

देखा,

मैंने भी देखा-

लाश?

हाँ, वह एक लाश थी ...

और मैं मुस्कुरा दिया। 

फिर चल पड़ा;

कुछ आगे,

उस ओर-

वह दोनों लड़ रहे थे,

शायद शूटिंग होगी 

या होगा 

कोई रिहर्सल 

किसी नाटक का। 

अरे! यह क्या?

दर्शक भी लड़ने लगे;

एक गिरा, 

मर गया। 

फिर दूसरा,

तीसरा 

और...और...

पर यह तो...

हाँ, मैं पहचानता हूँ 

अच्छी तरह,

यह भाई थे,

बेटे थे

एक माँ के। 

मैं घबरा गया,

खून कमर तक था। 

चीत्कार-

फिर चीत्कार,

आगे बढ़ा-

सिहर उठा,

देखा-

नग्न,

घायल,

बिखरे बाल-

सिर पर खून था

और-

खून से भरा 

बीभत्स चेहरा-

खौफनाक!

वह युवती थी। 

सहम कर 

आँखों को 

ढ़क लिया 

हाथों से-

'यही है 

वह चेहरा?

जिसे देख कर-

प्रेरणा पा कर,

कवि-

कविता लिखता है 

उपमा दे कर 

चाँद की?'

"इधर देखो"

-कर्कश-सी,

पर त्रस्त आवाज़!

देखा-

"हा हा हा"

-अट्टहास!

मैं पलटा-

भागा,

मगर वह खड़ी थी 

सामने ही;

काँप कर बोला-

"क्या चाहती हो?"

हँसी, विद्रूप हँसी-

"इन्सान, तू ज़िन्दा है?"

मैंने पिस्तौल उठाई;

"पागल! मुझे मारेगा?

यह सारा खून 

जिसमें तू खड़ा है-

मेरा ही है,

मैं मर चुकी हूँ 

बहुत पहले,

...और 

तू भी,

हाँ, तू भी मर चुका है।"

-वह बोली। 

पिस्तौल 

हाथ से छिटक पड़ी-

पिस्तौल नहीं थी,

उसकी जगह खड़ा था-

एक पिशाच। 

झपट कर 

दबा लिया 

अपने पंजे में 

पिशाच ने 

उस युवती को, 

...और 

बढ़ा दिया 

दूसरा पंजा 

मेरी ओर। 

लड़खड़ा कर-

गिरते-गिरते, 

चीख उठा मैं-

"कौन हो तुम?"

उत्तर में-

भयंकर आवाज़-

"पिशाच"

इस आवाज़ में 

एक सिसकती,

क्षीण आवाज़ 

और भी उभरी-

"मानवता"

-यह आवाज़ 

युवती की थी। 

    *****


Comments

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप स...