जो युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं, जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।...
कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान) लगभग हो चुकी थी, लेकिन सभी लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में अपनी यह कविता सुनाई। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में। उन सभी का नाम (गहरे अंकित शब्द) आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में।
... और मैं चुनाव जीत गया था ।
मैं पर्वत की एक शिला पर,
कुछ बैठा, कुछ सोया था।
अब कैसे तुमको बतलाऊँ,
किन सपनों में खोया था ?
नीलगगन पर चमकी अलका,
बनी रेखा सी क्षण भर में।
सुधा बरसी किरणों से जब,
प्रातः की अरुणाई की जब,
कुसुमों पर भी सूरज अपनी,
मंजुल कमल-दल देख कर,
रवीन्द्र भी चलता हुआ।
लौट पड़ा घर को फ़ौरन,
आँख मैं मलता हुआ।
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