विरहाकुल हृदय प्रकृति के अंक में अपने प्रेम को तलाशता है, उसी से प्रश्न करता है और उसी से उत्तर पाता है। मन के उद्गारों को अभिव्यक्ति दी है मेरी इस कविता की पंक्तियों ने।
कविता की प्रस्तुति से पहले इसकी रचना के समय-खण्ड को भी उल्लेखित करना चाहूँगा।
मेरे अध्ययन-काल में स्कूली शिक्षा के बाद का एक वर्ष महाराजा कॉलेज, जयपुर में अध्ययन करते हुए बीता। इस खूबसूरत वर्ष में मैं प्रथम वर्ष, विज्ञान का विद्यार्थी था। इसी वर्ष मैं कॉलेज में 'हिंदी साहित्य समाज' का सचिव मनोनीत किया गया था। यह प्रथम अवसर था जब मेरे व अध्यक्ष के सम्मिलित प्रयास से हमारे कॉलेज में अंतरमहाविद्यालयीय कविता-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा सका था। मेरा यह पूरा वर्ष साहित्यिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहा था और यह भी कि मेरी कुछ रचनाओं ने इसी काल में जन्म लिया था। साहित्य-आराधना के साइड एफेक्ट के रूप में मेरा परीक्षा परिणाम 'अनुत्तीर्ण' घोषित हुआ।
मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है अतः मैंने जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में प्रवेश लिया। वहाँ की आगे की कहानी मेरी इस पोस्ट से सम्बन्ध नहीं रखती इसलिए इसका यहीं समापन करता हूँ।
विश्वास है, किशोरावस्था व युवावस्था के संधि-काल में रची गई मेरी यह रचना आपको अवश्य ही लुभाएगी।
मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है अतः मैंने जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में प्रवेश लिया। वहाँ की आगे की कहानी मेरी इस पोस्ट से सम्बन्ध नहीं रखती इसलिए इसका यहीं समापन करता हूँ।
विश्वास है, किशोरावस्था व युवावस्था के संधि-काल में रची गई मेरी यह रचना आपको अवश्य ही लुभाएगी।
प्रियतमे, तब अचानक, याद आती है तुम्हारी।
अनन्त में श्यामवर्ण जब करते घटाटोप गर्जन,
अमा-निशा के तमस में जब होता विद्युत-स्पंदन,
प्रकाश भय-विक्षिप्त हो क्षितिज में जा छिपता है,
विरही नभ के अश्रुओं से जब भीगती वसुधा सारी।
"प्रियतमे तब अचानक...
प्रिया-विरह से हो विकल, सागर जब करता गर्जन,
आकुल-व्याकुल दूर कहीं कम्पित सरिता का रूदन,
टेढ़ी- तिरछी आती है जब भेद धरा को धारों से,
मिलकर जब इठलाती है सरिता सागर की प्यारी।
"प्रियतमे तब अचानक...
चन्द्र निशि को मुखरित कर जब सुधा-वृष्टि करता है,
श्रांत- क्लांत वृक्ष-समूह में जब नवजीवन भरता है,
चन्द्र किरण का स्पर्श पाकर मुदित होती रातरानी,
छा जाती है अखिल में रात की अल्हड खुमारी।
"प्रियतमे तब अचानक...
खोलकर निज अवगुंठन जब कलियाँ लेती अंगड़ाई,
झलके कपोलों पर जब यौवन की मादक अरुणाई,
करती है जब मधुप का शीश झुका कर अभिनंदन,
पुष्पों के मधु-सौरभ से महक उठती बगिया सारी।
"प्रियतमे तब अचानक...
मनस्पटल पर मेरे जब मधुरिम स्मृतियाँ आती हैं,
मधुर मिलन की भीगी रातें पलकों में छ जाती हैं,
कल्पना में तुमको पा कर जब अन्तर का उठता है,
तुम ही से यह जीवन मेरा, तुम से ही दुनिया सारी।
"प्रियतमे तब अचानक...
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