Skip to main content

एक विनम्र अनुरोध...!


भारत- बंद की अपूर्व सफलता के लिए समता आन्दोलन समिति एवम् सर्व समाज संघर्ष समिति को बधाई तथा आन्दोलन के दौरान वातावरण में शांति व सौहार्दता बनाये रखने के लिए साधुवाद!
मेरा आव्हान है अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जनजाति के उन भाइयों से, जिनका व्यक्तित्व सौजन्यता एवं सकारात्मक सोच से परिपूर्ण हैं, जो वर्ग और जाति की संकीर्णता से परे हैं। मेरा आव्हान इनके नेताओं या सवर्ण वर्ग के नेताओं के प्रति नहीं है क्योंकि नेता अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जनजाति के वर्ग का या सवर्णों के वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते। नेताओं की अलग जाति होती है, अलग वर्ग होता है। नेता अनपढ़ हो सकता है, पढ़ा-लिखा हो सकता है, लेकिन सौजन्य एवं सकारात्मक सोच वाला नहीं हुआ करता।
तो, मैं दलित वर्ग के सभी भाइयों से विनम्रतापूर्वक अनुरोध करूँगा कि वह देश-हित में, न्याय-हित में तथा सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिए सवर्णों की समस्या को समझें, नेताओं की कुटिल चालों को समझें व स्वार्थपरता से ऊपर उठकर अपने विवेक का प्रयोग कर, सवर्णों के द्वारा प्रारंभ किये गए न्यायोचित आन्दोलन को अपना समर्थन दें।
दलित भाइयों, अपनी आत्मा की आवाज़ सुनें ओर इस धर्मयुद्ध में अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ कूद पड़ें। वर्ग-संघर्ष कराने की कुछ लोगों की कुटिल चाल को आप समझें और देश को तथा भारतीय संस्कृति को बचाने में जी-जान लगा दें।
विजय सत्य की होनी चाहिए, विजय न्याय की होनी चाहिए!
आज के समाचार पत्र से लिया गया संलग्न उद्धरण आप देखें जिसमे कुछ भील भाइयों ने सवर्णों के आन्दोलन का समर्थन किया है।...उनको ह्रदय से धन्यवाद, उनका आभार!

Comments

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****