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डायरी के पन्नों से ..."लो चाँद उगा..."

       वृन्दावन लाल वर्मा का प्रसिद्ध उपन्यास 'मृगनयनी' मैंने तब पढ़ा था जब मैं पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी था। कितना मैं उस उम्र में उस उपन्यास को समझ पाया था, मुझे स्मरण नहीं, लेकिन यह अवश्य ध्यान में है कि मुझे बहुत आनंद आया था पढ़कर। नट-नटनियों की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास की कुछ घटनायें मेरी स्मृति में आज भी हैं।       
       इसके बाद सातवीं कक्षा में आने पर मैंने जय शंकर प्रसाद की कालजयी कृति 'कामायनी' को पढ़ा- 'हिमगिरि के उतुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह, एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।' - इस पुस्तक की वह प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं जो मेरे मन-मानस में कविता घोल गईं। हिंदी का ठीक-ठाक ज्ञान होने के बावज़ूद भी इस काव्य की भाषा-शैली व भावात्मक सृजनशीलता मुझे उस समय बहुत कठिन लगी थी और यही कारण था कि मैं उसे आधा-अधूरा ही पढ़ सका।
      नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी होने तक मैंने उपन्यास-सम्राट मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' तथा 'कायाकल्प' पढ़ डाले थे।
      जीवन में मैंने क्या पाया और क्या खोया, इसका उल्लेख संदर्भित नहीं है, लेकिन यह अवश्य कहूँगा कि अन्य किशोरों की तरह मेरा मन भी ऊंची उड़ान लेता था, बहुत कुछ करना चाहता था। क्या कर पाया, नहीं जानता, परन्तु मित्रों, एक असफल जीवन को तो नहीं ही जीया है मैंने!
      निरन्तर साहित्य में रूचि बनी रहने से ही मुझे लिखने की प्रेरणा मिली। आज मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ अपनी किशोरावस्था की छोटी-सी रचना-"लो चाँद उगा..."
   



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