भाग्यशाली होते हैं वह लोग, जिनके बच्चे (बेटा/बिटिया) उन्हें बहुत प्यार करते हैं।.....लेकिन मेरा यह उद्बोधन उन लोगों के लिए है जिन्हें यह शिकायत रहती है कि उनके बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते, उनका ख़याल नहीं रखते। कई बार तो उनको प्यार न पाने से अधिक शिकायत इस बात की होती है कि उनकी अपेक्षा के अनुरूप उनका ख़याल नहीं रखा जाता है।
बच्चों से प्यार पाने की मानसिक आवश्यकता तो समझ में आती है, लेकिन समग्र रूप से वैसा ही प्यार उन्हें आजीवन मिलता रहे जैसा उन्होंने उनसे तब पाया था जब वह कम उम्र के थे, तो ऐसी अपेक्षा वांछनीय नहीं हो सकती। मेरा यह कथन पुत्र हो या पुत्री, दोनों के सन्दर्भ में है।
बच्चे की किशोरावस्था से पहले उसका संसार अधिकांश रूप से घर में ही केन्द्रित रहता है। किशोरावस्था से प्रारंभ होकर युवावस्था तक की वय में उसका एक और संसार बन जाता है- उसके दोस्तों का। युवावस्था की दहलीज में पाँव रखने के कुछ ही समय में उसका विवाह हो जाता है तब उसका एक और नया संसार निर्मित होता है। इन सब संसारों के अलावा चाहे-अनचाहे एक और संसार भी उसके अस्तित्व को अपने बंधन में ले लेता है और वह होता है उसका व्यावसायिक संसार। इतने संसारों में उलझा हुआ, बिखरा हुआ कल का वह बच्चा कैसे बना रह सकता है केवल अपने माता-पिता को ही प्यार देने वाला बच्चा?
अपेक्षाए सभी को होती हैं, किन्तु अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों के पाश में उलझा उसका अस्तित्व सबको तो पूर्णरूपेण संतुष्ट नहीं कर सकता न!
हम स्मरण करें, उसने हमें बहुत प्रसन्नता दी थी जब वह पहली बार शैक्षणिक परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। उसने हमें प्रसन्नता दी थी जब वह किसी खेल में मैडल लेकर घर आया था। हमें उसने प्रसन्नता दी थी जब उसने नौकरी का पहला वेतन लाकर हमारे हाथ में रखा था। हमें उसने प्रसन्नता दी थी जब वह शादी के लिए घोड़ी पर चढ़ा था। हम तब भी प्रसन्नता से झूम उठे थे जब उसने हमें दादा-दादी बनने का सौभाग्य दिया था।
इतने सुख क्या कम हैं जो वह हमें लगातार देता रहा।
कुछ और पहले के दृश्य देखें हम.....
जब उसका जन्म हुआ तो हमें लगा था कि संसार की सारी खुशियाँ हमारी झोली में आ गई हैं। शिशु का प्रथम रुदन सुन कर जननी निहाल हो गई थी। पहली बार हमने जब उसे अपने वक्ष से लगाया था तो ह्रदय में अलौकिक सुख की तरंगें लहरा गई थीं। उसके रूदन में संगीत के सातों सुरों का आनन्द था तो उसकी किलकारियों में श्री कृष्ण की बांसुरी की मोहक धुन सुनाई दी थी हमें। जब उसने तुतला कर बोलना प्रारंभ किया था तो उसके बोल वीणा की स्वर-लहरी बन कर हमारे समीपस्थ वातावरण में घुल गए थे।
जब वह कुछ और बड़ा हुआ, हमने उसे अपने हाथों में उछाल-उछाल कर चूमा था। उसे अपने पेट या पीठ पर सवारी करा उसके साथ घोड़ा-घोड़ा खेलने के सुखद पलों का आनन्द हमने लिया था। घर के लॉन में हमें पकड़ने के लिए उसके दौड़ते समय की पदचाप सुनने का अवर्चनीय सुख क्या भुलाने योग्य है?
'माता-पिता का लालन-पालन उनके बच्चों पर एक ऋण होता है', मैं बीते समय के लोगों के इस कथन से सहमत नहीं हो सकता क्योंकि सन्तान का पालन तो उनका दायित्व है। कुछ क्षणों के लिए मान भी लें कि यह सही है तो इससे कई गुना भुगतान तो बच्चा अपने माता-पिता को उस सुख के द्वारा अग्रिम रूप से कर चुका है जो उसने अपने शैशव काल में उन्हें दिया था।
यदि कुछ बच्चे बड़े होकर हम पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते तो क्या उपरोक्त तथ्यों को स्मरण करने के बाद भी हम अपने बच्चों से या किसी अन्य से उनकी शिकायत कर सकेंगे? ...नहीं न?
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