सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

राजनीति में दो दलीय प्रणाली


    विश्व में ऐसे कुछ देश हैं जहाँ मात्र दो राजनैतिक दल हैं और इसका सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिका है। कितना अच्छा हो अगर हम भी इसी प्रणाली का अनुसरण कर सकें। इस प्रणाली को हमारे देश में बाध्यकारी बना लिया जाना निश्चित ही हितकारी सिद्ध होगा, ऐसी मेरी मान्यता है।
   यदि मात्र दो दलों  की अवधारणा स्वीकार कर ली जाय तो वह दल कौन से हों इसका निर्धारण भी करना होगा। इन दो दलों को चुनने की प्रक्रिया यह हो सकती है कि वर्त्तमान में जो राजनैतिक दल मौज़ूद हैं उनमें से अधिक स्वीकार्य दो दलों का चयन चुनाव पद्धति से देश की जनता द्वारा किया जावे। शेष सभी राजनैतिक दल या तो इच्छानुसार इन दोनों दलों में स्वयं का विलय कर दें या उन्हें राजनीति छोड़नी पड़ेगी। 
    अब इस तरह चयनित दो दल 'राइट टु रिकॉल' के नियम से बंधे रहकर स्थायी रूप से देश की राजनीति  का केन्द्र बनेंगे। दो दलीय व्यवस्था के साथ देश की वर्त्तमान प्रणाली ही कायम रखी जा सकती है या फिर अमेरिका के समान डायरेक्ट डेमोक्रेसी प्रणाली के द्वारा राष्ट्रपति-पद्धति अपनाई जा सकती है। 
   इन दिनों एक-दो दल अपना भावी प्रधानमंत्री घोषित कर तक़रीबन अमरीकी प्रणाली को ही तो अपना रहे हैं और इसमें कुछ बुराई भी नहीं है। 
     
     दो दलीय प्रणाली के लाभ इस प्रकार समझे जा सकते हैं :-
   1) सबसे सुखद बात यह होगी कि बहुमत ( यानि कि 50 % से अधिक ) के द्वारा चुना गया दल ही शासन में आएगा।
  2) कोई भी चुना गया MP या MLA अन्तरात्मा की आवाज़ (?) के सहारे विपक्षी दल में शामिल नहीं हो सकेगा और इस प्रकार नेताओं का क्रय-विक्रय न तो सम्भव होगा न ही इसकी कोई ज़रुरत  होगी। 
 3) इस प्रकार चुनी गई सरकार निर्बाध रूप से अपने पूर्णकाल तक शासन कर सकेगी। कोई भी नेता या ग्रुप किसी प्रकार से उसे ब्लैक मेल नहीं कर सकेगा। 
 4) निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव अवश्य लड़ सकेंगे, लेकिन रहेंगे विपक्ष की भूमिका में ही।
       काश, यह परिकल्पना साकार रूप ले सके!

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********