जब कोई कांटा अपने पांव में चुभता है तो हमसे दर्द बर्दाश्त नहीं होता, फिर हम किसी और की राह में कांटे क्यों बिछाते हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री कहती हैं कि जो काम 66 वर्षों में नहीं हुए उन कामों को 66 दिनों में पूरा करने की उम्मीद उनसे क्यों की जा रही है ? बात बिलकुल सही है, लेकिन इसमें थोड़ी सी विसंगति यह है कि अकेली कॉन्ग्रेस का शासन 66 वर्षों तक न तो देश में, न ही राजस्थान में रहा है। गत 66 वर्षों में से कुछ वर्ष बीजेपी के हिस्से में भी तो आये हैं, इसे क्यों भूला जाए ?
अब दिल्ली की बात की जाय। दिल्ली में 'AAP' के शासन की आलोचना दोनों विपक्षी दल किस आधार पर कर रहे थे, जबकि चारों ओर से घेरे जाने के बावज़ूद उनका 49 दिनों का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा-पूरा है। उनकी सादगी का अनुकरण कर अन्य राज्यों की सरकारों ने भी अपना दामन पाक-साफ़ करने का प्रयास किया है। विपक्ष तो विपक्ष, कॉन्ग्रेस भी समर्थन देने के बावज़ूद पूरी तरह से विपक्षी दल की भूमिका ही निभा रही थी। यहाँ तक कि जनता के हितार्थ लाया जाने वाला 'जनलोकपाल बिल' भी स्वार्थ और दूषित मनोवृत्ति की भेंट चढ़ गया। 'AAP' सरकार के त्याग-पत्र के बाद तो अन्ना जी भी रंग बदलने लगे हैं और उनका उपयोग मीडिया के माध्यम से केजरीवाल के विरुद्ध किया जा रहा है।
निरन्तर कार्य-भार के दबाव से केजरीवाल अपनी खांसी की तकलीफ से मुक्त नहीं हो पा रहे थे। दूषित राजनीति की अपवित्रता देखिये कि छुटभइया तो छुटभइया बड़े नेता भी उनकी खांसी का निर्लज्जतापूर्ण अमानवीय उपहास करते रहे हैं।
चलो जाने भी दें, हमारे यहाँ तो राजनीति ऐसे ही होती है। अब भारत की निरीह जनता की बात करते हैं।
आज देश की जनता स्वयं की शक्ति का मूल्यांकन नहीं कर पा रही है, भ्रमित है। समय की मांग है कि जनता जागृत हो और जाने कि उसकी शक्ति ही अंतिम शक्ति है। उसे यथास्थितिवाद से उबरना ही होगा। अभी नहीं तो कभी नहीं। जय हिन्द!
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