हमारे देश की संसद में कुछ मुद्दे (प्रस्ताव या सिफारिशें ) ऐसे होते हैं जो विवाद के विषय नहीं होते, सर्वमान्य होते हैं। पक्ष ने सुझाया तो भी मान्य और विपक्ष ने सुझाया तो भी मान्य। बात अजीब सी लग सकती है, लेकिन है सही। सन्दर्भ है मेरे द्वारा यहाँ साझा (copy-paste) की गई खबर!
पहले हम 'सर्वमान्य' मुद्दे के मूल को समझें -
प्रजातन्त्र को परिभाषित किया जाता है - "जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का।
प्रजातन्त्र को परिभाषित किया जाता है - "जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का।
ठीक इसी तरह संसद में पारित सर्वमान्य फैसले के बारे में कहा जा सकता है - माननीयों के द्वारा, माननीयों के लिए, माननीयों का।
जिस फैसले के प्रति सभी (पक्ष के भी, विपक्ष के भी) माननीय एकमत हों, वह सर्वमान्य और अंतिम फैसला तो हो ही जाता है, क्योंकि अन्य 'अमाननीयों' को तो विरोध करने का अधिकार है नहीं। ('अमाननीयों' के सभी अधिकार तो वोट देने मात्र तक ही सीमित होते हैं।)
अतः अविवादित मुद्दे पर विवाद खड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं होना चाहिए, है भी नहीं। मुझे तो इस खबर में निहित विसंगति पर हैरानी है। राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित रु.५ लाख का मासिक वेतन वैसे तो बहुत अधिक है, लेकिन माननीयों के लिए प्रस्तावित मासिक वेतन रु. 2.80 लाख + + + + +... से फिर भी कम है। क्या इस विसंगति का कोई संतोषजनक समाधान हो सकता है ?
अतः अविवादित मुद्दे पर विवाद खड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं होना चाहिए, है भी नहीं। मुझे तो इस खबर में निहित विसंगति पर हैरानी है। राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित रु.५ लाख का मासिक वेतन वैसे तो बहुत अधिक है, लेकिन माननीयों के लिए प्रस्तावित मासिक वेतन रु. 2.80 लाख + + + + +... से फिर भी कम है। क्या इस विसंगति का कोई संतोषजनक समाधान हो सकता है ?
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