मित्रों,
प्रस्तुत कर रहा हूँ - दो मुक्तक
मज़ाक कह झुठलाया था, तुमने जिन अहसासों को
प्रिय, वेदना वह प्यार की, पल-पल मुझे सताती है।
मैं किसे अपना कहूँ तब, कौन मुझको थाम लेगा?
ले दर्द को आगोश में, जब रात चली आती है।
***
न आँखें ही होतीं, न ज़ुबां ही होती,
राज़ हमारे राज़ ही रहते।
निगाहों में उनके नफ़रत न आती,
ख़्वाब हमारे ख़्वाब ही रहते।
Comments
Post a Comment