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अपने हिस्से का दुःख (कहानी)

 

 रीजनल कॉलेज में द्वितीय तथा तृतीय वर्ष में अध्ययन के दौरान मैंने दो कहानियां लिखी थीं और दोनों ही वर्षों में अन्तर्महाविद्यालयीय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था मुझे। उसके बाद से लेखन की इस विधा से मेरा नाता टूट ही गया था। अभी दो दिन पहले प्रातः साढ़े चार बजे अचानक मेरी नींद खुल गई और प्रयास करके भी मैं पुनः सो नहीं सका।

इसके बाद के प्रातः के दो घंटों में अनायास ही इस कहानी के प्लॉट का ताना-बाना मेरे मस्तिष्क में गुंथ चुका था। कहानी ने सम्पूर्ण आकार ले लिया है और अब इसे मैं अपने प्रिय पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। -----





                                                       "अपने हिस्से का दुःख" (कहानी)

                                                        - गजेन्द्र भट्ट 



लगभग एक सप्ताह पहले ही मैंने शहर कासगंज के सेटलमेंट कार्यालय में सेटलमेंट ऑफिसर के पद का कार्यभार सम्हाला था। कुल मिलाकर दस कर्मचारी थे मेरे इस कार्यालय में- दो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों सहित आठ पुरुष कर्मचारी और दो महिला कर्मचारी।
मैं ऑफिस केअपने कक्ष में सामने टेबल पर रखी आज की डाक देख रहा था।
"नमस्ते सर"- सम्बोधन सुनकर मैंने नज़र उठाकर देखा।
"सर, मेरा नाम वसु ...धा है। मैं यहाँ स्टेनो हूँ।"- अपना परिचय देते हुए वह महिला मुझसे नज़र मिलते ही नाम बताते समय कुछ झिझकी।
"नमस्ते" - मैंने उसे ध्यान से देखते हुए प्रत्युत्तर दिया।
"सर, पिछले कुछ दिनों से अवकाश पर थी मैं, आज ऑफिस आई हूँ अतः अभिवादन करने आई थी।"
मैं हतप्रभ-सा उसे देखता रहा और वह हाथ जोड़कर धीमे क़दमों से कक्ष के बाहर चली गई।
वह तो बाहर चली गई, लेकिन मुझे अतीत की गहराइयों में धकेल गई।
चलचित्र की तरह मेरा अतीत मेरे जेहन में उभरने लगा....
हमारा कस्बा पीथलपुर एक तहसील थी। मेरे पापा एस.डी.ऍम. थे और मैं वहां के उच्च माध्यमिक विद्यालय में बारहवीं कक्षा में पढ़ रहा था। वसुधा मेरी छोटी बहिन अनुराधा के साथ ग्यारहवीं में पढ़ती थी मेरे ही स्कूल में। मैं प्रायः उसे इंटरवल में स्कूल की लाइब्रेरी में देखता था। ज्यादा पढ़ाकू तो नहीं था मैं, पर उसके कारण मैं भी लाइब्रेरी में जाकर उसके आस-पास ही कहीं बैठ कर किसी पत्रिका के पन्ने पलटता रहता था। कभी-कभार अचानक ही हमारी नज़रें मिल जाती थीं, लेकिन एक अपरिचित-सा भाव लिए वह अपनी नज़रें हटा लेती थी।
बहुत सुन्दर थी वह और उससे कहीं अधिक, शालीन भी। मैंने उसे कभी किसी से अधिक बात करते नहीं देखा था। अनुराधा उसे बहुत पसंद करती थी। जब भी वह स्कूल से सम्बन्धित किसी बात का जिक्र करती, घूम-फिर कर उसकी बातों का केन्द्रबिन्दु वसुधा ही हुआ करती थी। वसुधा के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता जा रहा था। मैं अक्सर उसे निहारता रहता था, लेकिन बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था।
यूँ ही दिन गुज़रते रहे। लाइब्रेरी में रोजाना जाना उसकी तो विवशता थी ही क्योंकि उसे कुछ पाठ्य-सामग्री वहीं मिलती थी, लेकिन वहां जाने की मेरी विवशता उसके कारण थी।
वार्षिक परीक्षाएं नजदीक थीं। मैं जानता था कि बारहवीं कक्षा के बाद मुझे कॉलेज के लिए शहर में जाना पड़ेगा और तब मैं उससे नहीं मिल पाऊँगा। मैं मन ही मन उसे प्यार करने लगा था और अपने प्यार की कहानी को अधूरा नहीं छोड़ सकता था। यही वह वज़ह थी जिसने मुझे हिम्मत दी और एक दिन मैंने उससे झिझकते-झिझकते अपने मन की बात कह ही दी- "वसुधा, मुझसे दोस्ती करोगी?"
"तुम बड़े घर से हो और मेरे पिताजी एक मामूली क्लर्क हैं। तुम जैसे लोगों का हक़ बनता है कि मेरे जैसी गरीब लड़की को अपने शब्द-जाल में उलझाओ और फिर दोस्तों में अपनी शेखी बघार कर इसे एक खिलवाड़ बना दो। माफ करना राजेश, न तो मैं इस किस्म की लड़की हूँ और न ही बेवकूफ हूँ।"- बिफर पड़ी थी वह।
मैं ठगा-सा सुनता रहा, देखता रहा उसका तमतमाता चेहरा और बुझे मन से उसके सामने से लौट आया। नहीं जान पाया कि मेरा अपराध क्या था और क्यों उसने मेरे साथ ऐसा कठोर व्यवहार किया!
यह सब मेरे लिए अप्रत्याशित था और मेरा कुछ भीरु स्वभाव ही था कि मैं दुबारा उससे बात करने की हिम्मत नहीं कर सका और न यह जानने की कभी कोशिश ही की कि उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया था।
अंततः बारहवीं कक्षा के बाद कॉलेज के लिए मुझे शहर के हॉस्टल में जाना पड़ा।...मैं उस लड़की से बहुत प्यार करता था, लेकिन मेरे इकतरफा प्यार की वह कहानी सचमुच ही अधूरी रह गई।
समय बीता, मैंने बी.ए. करने के बाद आर.ए.एस. की परीक्षा दी और चयनित भी हो गया। मेरे मम्मी-पापा ने ही मेरे लिए लड़की पसंद की और मेरी शादी हो गई।
... फोन की घनघनाहट से मेरी तन्द्रा टूटी और मैं वर्तमान में लौट आया। कलक्टर साहब ने किसी काम से मुझे याद किया था।
कलक्टर साहब ने कुछ निर्देश दिए थे और तदनुसार ड्राफ्ट तैयार करने हेतु अगले दिन डिक्टेशन देने के लिए वसुधा को मैंने अपने कक्ष में बुलाया। डिक्टेशन के बाद जैसे ही वह लौटने को हुई, मैंने उसे पुकारा और दो मिनट बैठने के लिए कहा। वह बैठ गई, दो मिनट भी गुज़र गए। वह खामोश थी और मैं भी कुछ नहीं बोला, बस यूँ ही हाथ में थामी एक फाइल में निरर्थक नज़रें घुमाता रहा।
"आप कुछ कहना चाहते थे सर?"- आखिर वसुधा ने ही ख़ामोशी तोड़ते हुए पूछा।
"ओह, हाँ! देखो वसुधा, मैंने तुम्हें पहचान लिया है और शायद तुमने भी...मुझे तुमसे कुछ बात करनी है लेकिन यहाँ हम ठीक से बात नहीं कर पाएंगे। यदि तुम्हें ऐतराज न हो तो हम ऑफिस के बाद 'कैफ़े कॉफ़ी डे' में मिलते हैं।"- एक ही सांस में कह गया मैं। न जाने आज कहाँ से इतना साहस आ गया था मुझ में!
कोई उत्तर नहीं दिया उसने, धीरे से कुर्सी से उठी और डिक्टेशन की डायरी लिये ख़ामोशी से कक्ष से बाहर निकल गई।
ऑफिस के बाद लगभग दस मिनट से मैं 'कैफ़े कॉफ़ी डे' के केबिन में बैठा वसुधा की प्रतीक्षा कर रहा था - 'पता नहीं वह आएगी भी या नहीं! मैं भी कैसा अहमक हूँ, बिना कुछ सोचे-समझे, जल्दबाजी में उसे यहाँ मिलने के लिए कह दिया, शायद नहीं ही ...।' लेकिन नहीं, वह केबिन में प्रवेश कर रही थी। खिल उठा मेरा मन...।
"आओ वसुधा, बहुत देर से इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारा।"
"सर, मेरे पास तो कार नहीं है, ऑटोरिक्शा से आने में कुछ समय तो लगता ही न?"- वसुधा ने शांत मुद्रा में जवाब दिया।
अब तक कॉफ़ी भी आ चुकी थी।
मैं कॉफ़ी का घूँट ले रहा था और सोच रहा था कि बात कैसे और कहाँ से शुरू की जाय!
आखिर मैंने हिम्मत जुटाई - "अपने बारे में कुछ बताओगी नहीं वसुधा, कैसी हो तुम? घर में कौन-कौन है?"
उसने नज़र ऊपर उठाई। मेरी बेतकल्लुफी देख एक बारगी वह चौंकी, लेकिन दूसरे ही पल सपाट स्वरों में बोली- "अच्छी हूँ एकदम और अब तो अकेली ही हूँ सर।"
इस बार चौंकने की बारी मेरी थी। क्या यह वही वसुधा है? शायद नहीं। दस वर्ष पहले मेरे स्कूल में तब ग्यारहवीं में पढ़ने वाली खामोश स्वभाव की मितभाषी लड़की वसुधा और आज की इस वसुधा में तो कोई सामंजस्य ही नहीं है। इतनी बेबाकी से पहली ही बार में न जाने कौन-सा रहस्य उगलना चाह रही है वह!
"मैं कुछ समझा नहीं, वसुधा!"
"एक ऐसे पुरुष से मेरी शादी हुई थी सर, जो मुझे नहीं समझ सका और जिसे मैं नहीं समझ पाई। जीवन दूभर हो गया था उसके साथ मेरा। शादी के बाद दो साल एक युग की तरह जैसे-तैसे मैंने विपुल के साथ गुजारे और अंततः अभी तीन दिन पहले मैं उससे मुक्त हो गई।"- बोलती चली गई वह।
निर्निमेष तक रहा था मैं उसका चेहरा। समय के थपेड़ों ने वसुधा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही बदल दिया था। मैंने उस पर एक और प्रश्न दाग दिया - "क्या वजह रही तुम दोनों के बीच के दुराव की और कैसे मुक्ति पाई तुमने उससे?"
"तलाक ले लिया हम लोगों ने। हीन भावनाओं से ग्रस्त, बहुत शक़्क़ी मिज़ाज़ का था विपुल! ईश्वर प्रदत्त मेरे ही चेहरे-मोहरे ने अपराधी बना डाला था मुझे। समाज में रहते हुए कभी-न-कभी किसी-न-किसी पुरुष से तो बात करनी पड़ ही जाती है। ऐसे किसी भी मौके पर विपुल की संदेह भरी निगाहें मुझे भीतर तक छेद देती थीं, ऊपर से उसके विषभरे कटाक्ष भी झेलने पड़ते थे। मेरा निरपराध मन सिसक उठता था सर!"- कातर निगाहों से मेरी ओर देखते हुए वसुधा ने अपनी बात कह डाली।
उफ़्फ़! भीतर तक सिहर उठा मैं! कितनी वेदना, कितना अपमान सहन करना पड़ा था वसुधा को! मैंने चुपके से अपनी दृष्टि उसके चेहरे से हटाई। कुछ पल हम दोनों निःशब्द शून्य को निहारते रहे। मैं नहीं समझ पा रहा था कि उसकी बात पर क्या प्रतिक्रिया दूँ । सहानुभूति के कुछ शब्द कहकर मैं उसे अपमानित नहीं कर सकता था।
मुझे मेरी उलझन से वसुधा ने ही उबारा- "मेरी गाथा छोड़िये सर, आप बताइये कुछ अपने बारे में।"
कुछ आश्वस्त होकर मैंने कहा- "तुम्हारी समस्त कहानी जानकर बहुत कष्ट हुआ वसुधा! मैं भी अपने विषय में तुम्हें बताऊंगा, लेकिन उसके पहले, वर्षों से मेरे मन में सुलगते रहे एक सवाल का जवाब दे सकोगी तुम?"
बिना किसी उलझन के वसुधा ने कहा- "कहिये सर, क्या जानना चाहते हैं आप मुझसे?"
भावविहीन वसुधा का मुखप्रदेश स्पष्ट ही बता रहा था कि उसे संभवतः मेरे संभावित प्रश्न का आभास था।
जो भी हो, मैंने अपनी बात कही- "यदि तुम्हें अब भी स्मरण हो वसुधा, क्या तुम मुझे बताना उचित समझोगी कि स्कूल में मेरे दोस्ती के प्रस्ताव पर तुमने इतनी कठोर प्रतिक्रिया क्यों दी थी? आखिर मेरा कसूर क्या था?"
"क्यों कुरेद रहे हैं सर उस अतीत को? मैंने स्वयं इसके लिए बहुत अनुताप सहा है। स्वयं को क्षमा नहीं कर सकी हूँ अब तक। खैर, जब बात चली ही है तो मेरी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं आपको अतीत में ही ले जाना चाहूँगी। आपको तहसीलदार साहब के लड़के वैभव का नाम तो स्मरण है न? वही वैभव, जो बारहवीं कॉमर्स में था और खो-खो का भी अच्छा खिलाड़ी था।"
वसुधा की खोजती निगाहों का जवाब मैंने सिर की हल्की जुम्बिश से दिया।
उसने अपनी बात को आगे बढ़ाया- "तो सर, वैभव तो मेरे पीछे ही पड़ गया था। मुझसे बात करने का कोई अवसर वह नहीं छोड़ता था। मेरे मन में उसके लिए कोई कोमल भावना तो नहीं थी, पर यूँ ही कभी-कभार उससे बात करना टालने के बजाय उससे बात करके रेस्पॉन्स दे देती थी। एक दिन जब मैं अपनी सहेली के साथ स्कूल-कैन्टीन के पास से निकल रही थी कि कैन्टीन के भीतर से आ रही वैभव की आवाज़ कानों में पड़ी। वह अपने दोस्तों के सामने शेखी बघार रहा था- 'अरे यार, तुम देखना, अगली एक-दो मुलाकात में ही वसुधा को पूरी तरह से पटा लूँगा आधी तो अब तक पट ही चुकी है वह।'
मेरे कान लाल हो गए थे और चेहरा भी तमतमा उठा था यह सुनकर। ओह, तो इतना छिछला है यह लड़का! मैंने इसके बाद उसको कोई तवज्जो नहीं दी और बात करना बिल्कुल बंद कर दिया।...और फिर सर, इसके लगभग एक सप्ताह बाद ही आपने मुझसे बात की थी। मैं वैभव के प्रति अपने गुस्से को भुला भी नहीं पाई थी कि आपकी बात नये सिरे से सामने आई। फिर वही हुआ, मेरा सारा गुस्सा आप पर उफन पड़ा। सच मानिये सर, मुझे बाद में बहुत अफ़सोस भी हुआ कि क्यों नाहक ही मैंने इतनी जली-कटी आपको सुना डाली। लेकिन तीर तो कमान से निकल चुका था और फिर आपने भी कभी दुबारा मुझसे बात करने की कोशिश नहीं की थी। स्कूल छोड़कर आपके जाने के बाद आपकी बहिन अनु के साथ मेरी दोस्ती में कुछ प्रगाढ़ता आई थी। मुझसे बतियाते हुए वह आप के विषय में अक्सर बात करती थी, निश्छल भाव से कहती थी- भैया बहुत सीधे-सच्चे हैं, बहुत अच्छे हैं।"
वसुधा की उत्सुक निगाहें अब मुझ पर थीं। उसके चेहरे पर नज़र जमाये हुए हल्की स्मित के साथ मैंने अपनी बात प्रारम्भ की- "तुम्हारी बात सुनकर मेरे दिल से वह पुराना बोझ तो अब हट गया है वसुधा! हाँ, इस बात का मलाल अब भी ज़रूर है कि मैं अपने स्कूली जीवन में इतना भीरु क्यों था!..."
कुछ थम कर मैंने बात आगे बढ़ाई- "तो तुम भी मेरे बारे में जानना चाहती हो न? मेरी भी एक छोटी-सी कहानी है।...कॉलेज जाने के बाद भी मैं तुम्हें कभी भुला नहीं पाया। किसी और लड़की पर मेरी निगाह ठहरती ही नहीं थी।
जहाँ तक ऐकडेमिक फील्ड की बात है, बी.ए. के बाद मैंने आर.ए.एस. की परीक्षा दी और मेरा सलेक्शन भी हो गया। जॉब लग गया और तब मम्मी-पापा ने लड़की पसंद कर मेरी शादी करवा दी। प्रारम्भ में मैं पत्नी से कुछ खिंचा-खिंचा रहता था, लेकिन उसके अच्छे और समर्पित व्यवहार ने मुझे एक तरह से बदल ही दिया। बहुत अच्छी थी वह। धीरे-धीरे मैं उसे प्यार भी करने लगा था, लेकिन मेरे उसके प्रति प्यार और शादी की उम्र केवल एक साल की ही रही वसुधा! डिलीवरी के दौरान जच्चा-बच्चा दोनों ही चले गए मेरी ज़िन्दगी से। मेरी खुशियाँ मुझसे रूठ गईं और पिछले लगभग दो वर्षों से निपट अकेला हो गया मैं।" एक पल रुक कर पुनः मैंने अपनी बात पूरी की- "एक सप्ताह पहले ही मैंने यह ऑफिस सम्हाला है।"
वसुधा उद्विग्न हो उठी थी- "ओह सर, आपकी कहानी तो और भी अधिक पीड़ा समेटे है अपने-आप में।"
मैंने अपनी भावुकता पर कुछ काबू पाने की कोशिश की, मेरी आवाज़ में शायद कुछ दार्शनिक अंदाज़ था- "अपने-अपने हिस्से का दुःख हम सभी को भोगना ही होता है वसुधा! हम प्रयास कर के भी उससे बच नहीं सकते।"
कॉफी ख़त्म हो चुकी थी। पांच मिनट हम यूँ ही खामोश बैठे रहे। हम दोनों ही माहौल में उपजी उद्विग्नता से उबरना चाहते थे।
कुछ प्रकृतिस्थ होकर वसुधा बोली- "अब चलें सर!"
मुझे उसके इन शब्दों में न तो सुझाव नज़र आया और न ही प्रश्न। कनखियों से एक बार देखा उसे। फिर सहसा अपने स्वरों में दृढ़ता लाते हुए मैंने वसुधा की आँखों में आँखें डाल कर उसकी हथेली को अपने हाथों में लेकर कहा- "मैं अपनी पिछली गलती को दोहराना नहीं चाहता वसुधा, क्योंकि यदि अब चुप रहा तो डरता हूँ कि कहीं देर न हो जाये। ....आठ वर्ष पूर्व मुझसे कहे अपने शब्दों को सच में ही यदि तुम अपनी भूल मानती हो तो क्या उसका प्रायश्चित करना नहीं चाहोगी? क्या हम-तुम एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत कर सकते हैं?"
कोई प्रतिरोध नहीं दर्शाया वसुधा ने और न ही अपनी हथेली को मेरे हाथों से मुक्त कराने का कोई प्रयास किया। उसकी झुकी निगाहों ने बहुत-कुछ कह दिया मुझसे।
...कॉफ़ी का भुगतान कर हम 'कैफ़े कॉफ़ी डे' से बाहर निकले और अब मैं अपनी कार में वसुधा को उसके घर ड्रॉप करने जा रहा था।

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