राजकीय बाल गृह में अफरातफरी मच गई थी। बाल गृह की महिला सहायिका ने बाल कल्याण अधिकारी के आने की सूचना चपरासी से मिलते ही अधीक्षक-कक्ष में जा कर अधीक्षक को बताया। अधीक्षक ने कुछ कागज़ात इधर-उधर छिपाये और शीघ्रता से अधिकारी जी की अगवानी हेतु कक्ष से बाहर निकले।
अधिकारी के समक्ष झुक कर नमस्कार करते हुए अधीक्षक ने स्वागत किया- "पधारिये, स्वागत है श्रीमान!"
"धन्यवाद! मैं, बृज गोपाल, बाल कल्याण अधिकारी! मेरी यह नई पोस्टिंग है। कैसा चल रहा है काम-काज?"
"बस सर, अच्छा ही चल रहा है आपकी कृपा से। आइये, ऑफिस में पधारिये।" -चेहरे पर स्निग्ध मुस्कराहट ला कर अधीक्षक बोले।
अधीक्षक के साथ कार्यालय में आ कर बृज गोपाल ने चारों ओर नज़र घुमा कर देखा। दो-तीन मिनट की औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने बाल गृह से सम्बन्धित कुछ फाइल्स मंगवा कर देखीं। ऑफिस-रिकॉर्ड के अनुसार अधीक्षक के अलावा बाल गृह में एक महिला व एक कर्मचारी सहायक के रूप में कार्य करते थे। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था, जो चौकीदारी का दायित्व भी निभाता था। बाल गृह में कुल 28 बच्चे थे। अधीक्षक-कक्ष के अलावा बारह कमरे और थे। एक कमरा कार्यालय के लिए, पांच कमरे बच्चों के निवास के लिए, एक बड़ा कमरा भोजन-कक्ष के रूप में, एक कमरा स्वास्थ्य-निरीक्षण व आकस्मिक उपचार के लिए तथा दो कमरे बच्चों की पढाई के लिए थे। दोनों कर्मचारियों में से एक को रात्रि-विश्राम के लिए भी रुकना होता था, जिसके लिए एक कमरा निर्धारित था व शेष एक कमरा आकस्मिक आवश्यकता के लिए सुरक्षित रखा गया था। इन सबके अतिरिक्त बाल गृह के मुख्य द्वार पर एक चौकीदार-कक्ष था।
अधीक्षक का चाय-कॉफी का आग्रह टाल कर बृज गोपाल बाहर आ गये। अभी बच्चों के भोजन का समय था, सो अधीक्षक को साथ ले बृज गोपाल बच्चों से मिलने के लिए भोजन-कक्ष में गये। बच्चों ने सुबह का भोजन ख़त्म किया ही था। बृज गोपाल की दृष्टि बच्चों पर घूमती हुई एक चार-पांच वर्षीय बच्चे पर पड़ी, जिसे देख कर उन्हें लगा, जैसे वह अभी-अभी रोया था। उन्होंने उसे अपने पास बुला कर प्यार से पूछा- "बेटा, क्या तुम अभी रो रहे थे?"
बच्चे ने इन्कार में सिर हिलाया, किन्तु अधिकारी जी ने पुनः पूछा- "घबराओ मत बेटा, बताओ मुझे, क्यों रोये थे?"
"साहब जी ने मुझे थप्पड़ मारा था।" -बच्चे ने डरते-डरते अधीक्षक की ओर देखते हुए जवाब दिया।
अधिकारी जी ने अधीक्षक की तरफ देखा। वह कुछ कहते, इसके पूर्व ही बच्चे ने मासूमियत से कहा- "अंकल, मैंने ग़लती की थी, इसलिए मुझे मार पड़ी थी।"
बच्चे की निरीह निगाहों ने बृज गोपाल को विचलित कर दिया, द्रवित हो कर बोले- "तुम्हारा नाम क्या है बेटा?"
"सुब्बू।"
"पूरा नाम क्या है इस बच्चे का?" -इस बार बृज गोपाल ने अधीक्षक से पूछा।
"सर, इसका नाम सुबोध है। सभी इसे 'सुब्बू' कहते हैं।"
बृज गोपाल ने सुबोध के सिर को सहला कर पूछा- "हाँ तो बेटा सुब्बू, तुमने क्या ग़लती की थी?"
"अरे सर, बच्चे हैं। कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं। आइये न, ऑफिस में चलते हैं।" -कह कर अधीक्षक ने पीछे खड़े चपरासी को आदेश दिया- "खुमानी लाल, जाओ, दो कोल्ड ड्रिंक ले कर आओ और मेरे ऑफिस में पहुँचो।"
"मैं यहाँ कोल्ड ड्रिंक पीने नहीं आया अधीक्षक जी। मुझे बच्चों से बात करने दो।" -अधिकारी जी ने कुछ सख्त आवाज़ में कहा और पुनः सुबोध की ओर मुखातिब हुए- "बताओ बेटा, क्या ग़लती थी तुम्हारी?"
"मैंने मेरी दो रोटी खा ली थी। मुझे आज खूब भूख लग रही थी तो मैंने एक रोटी और मांगी थी।" -सुबोध ने अपनी ग़लती बताई। सुबोध का स्पष्टीकरण सुन बृज गोपाल अवाक् रह गए।
बृज गोपाल ने अन्य बच्चों से भी पूछा कि उन्हें कितनी रोटी मिलती हैं, तो अधिकांश ने दो रोटी मिलना बताया और कुछ बच्चे खामोश रहे।
"बच्चों, तुम सब ने सुबह नाश्ता किया था न?" -बृज गोपाल ने सुबोध की तरफ देखने के बाद इस बार दूसरे बच्चों की ओर भी देखा। बच्चों ने इन्कार में सिर हिलाया।
"अधीक्षक जी, बच्चों को नाश्ता नहीं दिया गया, जब कि रजिस्टर में देना बताया है। क्यों नहीं दिया गया इन्हें नाश्ता? और फिर पेट नहीं भरने पर बच्चा और खाना नहीं मांग सकता?"
"दरअसल सर, बच्चों को खाने-पीने का सही ध्यान नहीं रहता। अधिक खा लेने से इनके बीमार होने का डर रहता है, इसीलिए ध्यान रखना पड़ता है।"
बृज गोपाल सब-कुछ समझ गये थे। एक गहरी दृष्टि अधीक्षक पर डाली व भोजन कक्ष से बाहर निकले।
कार्यालय कक्ष में जाने के बाद बृज गोपाल ने निरीक्षण पुस्तिका मांगी। अधीक्षक ने पुस्तिका ढूंढने का अभिनय करते हुए अधिकारी जी से धीमे स्वर में कहा- "सर, आप नये आये हैं। मैं हर माह आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा, आपको यहाँ आने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। हर अधिकारी को हम संतुष्ट रखते हैं सर!"
"आप मुझे इंस्पेक्शन बुक दीजिये।" -कठोर स्वर में बृज गोपाल ने आदेश दिया। निरीक्षण रिपोर्ट लिखते समय उनके मस्तिष्क में नन्हे सुबोध का मासूम चेहरा उभर रहा था। रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर कर रजिस्टर उन्होंने मेज पर रखा और अधीक्षक से बोले- "आप उस बच्चे सुबोध को जरा यहाँ बुलवाइये।"
मन ही मन नाखुश होते हुए अधीक्षक ने सुबोध को बुलवाया। सहमा-सहमा सुबोध पास में आ कर खड़ा हो गया।
"बेटा, तुम हमारे घर चलोगे?" -बृज गोपाल ने प्यार से उससे पूछा।
अचरजभरी निगाहों से सुबोध ने पहले उनकी तरफ देखा और फिर अधीक्षक की तरफ व सिर झुका लिया।
"इस बच्चे को मैं एक-दो दिन के लिए अपने घर ले जाता हूँ।" -बृज गोपाल ने अधीक्षक को कहा
"लेकिन सर, ऐसा कैसे? मेरा मतलब है, आप यूँ कैसे ले जा सकते हैं इसे यहाँ से?
बृज गोपाल ने कक्ष से बाहर निकल कर अपने उच्चाधिकारी से बात की और वापस कक्ष में आकर उनसे बात करने के लिए फोन अधीक्षक को दिया।
अधीक्षक ने तीन बार 'यस सर', 'यस सर' कह कर मोबाइल बृज गोपाल को लौटाया। बृज गोपाल ने अपने अधिकारी को 'थैंक यू सर' कह कर मोबाइल जेब में रखा। अधीक्षक ने एक रजिस्टर लाकर बृज गोपाल को दिया, जिसमें उन्होंने सुबोध को अपने साथ ले जाने की प्रविष्टि कर दी। अधीक्षक मुँह लटकाये चुपचाप खड़ा रहा।
बृज गोपाल सुबोध को अपने साथ जीप में बैठा कर घर ले आये। उनकी पत्नी अनुपमा ने बृज गोपाल को एक बच्चे के साथ घर आया देख कर पूछा- "कौन है जी यह बच्चा?"
"सब बताता हूँ।", कह कर उन्होंने अपने छः वर्षीय बेटे मुकुल को आवाज़ लगाई। मुकुल अपने कमरे से आया और अपनी आदत के अनुसार 'पापा' कहते हुए बृज गोपाल के पाँवों से लिपट गया।
"बेटा, यह सुबोध है। तुम्हारी मम्मी इसे नाश्ता करायेंगी फिर तुम इसे अपने कमरे में ले जाना।" -बृज गोपाल ने मुकुल से कहा। मुकुल ने अजनबी निगाहों से सुबोध की तरफ देखा तो सुबोध भी कुछ सकपका गया। अनुपमा अपने पति का इशारा समझ कर सुबोध के लिए कुछ खाने को ले आईं। सुबोध के नाश्ता ख़त्म कर लेने के बाद बृज गोपाल ने उससे कहा- “जाओ बेटा सुब्बू, भैया के साथ खेलो।"
मुकुल सुबोध का हाथ पकड़ कर अपने कमरे की तरफ ले गया।
दोनों के वहाँ से जाने के बाद बृज गोपाल ने अनुपमा को अभी तक का समस्त वाक़या कह सुनाया और बोले- "अनु, यह बच्चा बहुत प्यारा और मासूम है। मैं चाहता हूँ कि हम लोग इसे गोद ले लें। क्या कहती हो?"
"देखो जी, ऐसी रिस्क लेना सही नहीं है। पता नहीं किसका बच्चा है यह, कैसे संस्कार होंगे इसके?"
"अनु, सब बच्चे पैदा होते हैं तो मासूम होते हैं, कच्चे घड़े के माफिक होते हैं। उन्हें संस्कार उन लोगों से मिलते हैं, जो उनकी परवरिश करते हैं। यह बच्चा भी वैसा ही है। इसे संस्कार हम देंगे तो इसकी ज़िन्दगी सँवर जायगी। यह एक अच्छा इन्सान बन सकेगा।"
"बृज, माना कि तुम इसकी ज़िन्दगी सँवार दोगे, पर उनका क्या, जो अब भी बाल गृह में रहेंगे। क्या वह बच्चे मासूम नहीं हैं? क्या वह बच्चे अच्छी ज़िन्दगी डिज़र्व नहीं करते? यह तुम्हारी कोरी भावुकता मात्र नहीं है?"
मुस्कराते हुए बृज ने जवाब दिया- "एक संशोधन, इसकी ज़िन्दगी मैं नहीं, हम सँवारेंगे। अनु, हमारी कुछ सीमाएँ हैं। हम अपने घर को बाल गृह तो नहीं बना सकते न? हम इतने समर्थ भी तो नहीं कि हम इतने बच्चों की परवरिश कर सकें। मैं जब तक यहाँ हूँ, सुनिश्चित करूँगा कि बाल गृह के सभी बच्चों की समुचित देखभाल हो। मैंने वहाँ की इंस्पेक्शन बुक में अधीक्षक का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है और देखूँगा कि जल्दी ही उसे निलम्बित कर वहाँ से हटा दिया जाए। मैं आज ही उच्चाधिकारियों को वस्तु-स्थिति से अवगत कराऊँगा। अनु, हमारा यह कदम कुछ लोगों के लिए प्रेरणा का हेतु बन सकता है। बाल गृहों की जो स्थिति है, वह तो तुम जान ही चुकी हो। यदि समर्थ दम्पति ऐसे ही एक-एक बालक को गोद ले लें, तो यह मुरझाये फूल फिर से खिल उठेंगे।"
अनुपमा बृजगोपाल के कथन को मंत्रमुग्ध भाव से सुन रही थी। उसका प्रतिरोध रेत की मानिन्द ढ़ह गया। पति के उदार व सुलझे विचारों की खुशबू उसके मस्तिष्क को महका गई। एक स्नेहिल मुस्कराहट उसके चेहरे पर दौड़ गई।
बृज गोपाल ने प्रशंसायुक्त दृष्टि अनुपमा पर डाली- "अनु, तुम्हारा प्रश्न अपनी जगह सही था। मुझे ख़ुशी है कि अब तुम मुझसे सहमत हो। गौरवान्वित हूँ कि तुम मेरी जीवन-संगिनी हो।"
अनुपमा ने दोनों बच्चों को आवाज़ लगाई। बच्चे हँसते-खिलखिलाते इन लोगों के पास आये। वह देख कर चकित थी कि इतनी-सी देर में दोनों बच्चे आपस में हिलमिल गए थे।
"बेटा सुबोध, तुम अब से हमारे साथ रहोगे। अब यही तुम्हारा घर है। हम तुम्हें भी मुकुल के साथ स्कूल भेजेंगे। तुम्हें अच्छा लगेगा न यहाँ?" -अनु ने सुबोध को अपने पास बुला कर गोद में लेकर पूछा।
सुबोध खिल उठा- "मैं सच में आप लोगों के साथ रहूँगा?"
"हाँ बेटा, तुम हमारे साथ रहोगे। मुकुल, सुबोध आज से तुम्हारा छोटा भाई है।" -इस बार बृज गोपाल ने कहा।
मुकुल ने खुशी के मारे 'हुर्रे' उच्चारित किया और सुबोध का हाथ थाम पुनः अपने कमरे की तरफ भाग लिया।
"अनु, मैं सुबोध को गोद लेने के सम्बन्ध में उच्चाधिकारी से बात कर लूँगा। सम्भवतः दो-तीन दिन में ही गोद लेने की कानूनी कार्यवाही पूरी हो जायगी।"
"हाँ बृज, अच्छा ही किया तुमने! मुकुल को एक भाई मिल गया। उसका मन भी अब खूब लगेगा।"
मुदित बृज गोपाल ने अनुपमा को आलिंगनबद्ध कर लिया।
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (03-09-2021) को "बैसाखी पर चलते लोग" (चर्चा अंक- 4176) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
बहुत आभार आपका आदरणीया मीना जी!
हटाएंआपकी रचना प्रेरणादायी भी है तथा मर्मस्पर्शी भी। बहुत अच्छा लगा पढ़कर।
जवाब देंहटाएंअच्छे और नेक काम करने में पहले भले ही पहले बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ता हो, लेकिन अंत में लोग उसकी सराहना जरूर करते हैं और वही उदाहरण बनते हैं दूसरों के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति
काश कि हर समर्थ व्यक्ति ऐसी सोच रखेतो कितने ही सुब्बू को घर परिवार मिल जाय और हर ऑफिसर इस तरह की धाँधलेबाजी का विरोध करें तो अनाथाश्रम भी घर सदृश हों
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब एवं प्रेरक कहानी।
बढ़िया और मर्मस्पर्शी रचना । बहुत बधाइयाँ ।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर सृजन । मुरझाए फूलों को भी ऐसे ही खिलने का अवसर मिले तो चमन गुलजार हो जाए ।
जवाब देंहटाएंहर सुब्बु को ऐसे ही बृजलाल ओर अनुपमा मिले
जवाब देंहटाएंबेहद हृदयस्पर्शी कहानी
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रेरक कहानी सरल सुबोध भाव प्रवाह, अभिजात्य और सामर्थ्य वान ऐसी पहल करते रहें तो समाज का ढ़ांचा ही बदल जाते ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।