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'अनजाने रिश्ते' (कहानी)



   अघ्याय (1) 

सामने अथाह सागर लहरा रहा था। किनारे पर पड़े एक शिलाखंड पर बैठा रघु समुद्र में रह-रह कर उठ रही दूर से आती लहरों को निर्निमेष निहार रहा था जो एक के बाद एक किनारे की ओर आकर फिर-फिर लौट जाती थीं। कभी-कभार कोई लहर उसके परिधान को छू लेती तो वह कुछ और पीछे की ओर खिसक जाता। लहरों के इस उद्देश्यविहीन आवागमन में उसकी दृष्टि उलझी हुई थी जैसे कहीं कुछ खोज रही हो और उसके दायें हाथ की तर्जनी अनचाहे ही रेत में कुछ अबूझ रेखांकन कर रही थी।

  अस्तांचल में ओझल होने जा रहे सूरज से रक्ताभ हो रहे गगन-पटल से बिखर रही लालिमा सुदूर जल-राशि को स्वर्णिम आभा दे रही थी। रघु ने सहसा ऊपर की ओर देखा, बादलों की एक क्षीण उधड़ी-उधडी सी चादर आकाश को ढ़क लेने का प्रयास कर रही थी।

  साँझ की निस्तब्धता को भेदता सागर की उन्मत्त लहरों का कोलाहल रघु के मन को भी अशांत करने लगा।

अनायास ही वह अतीत की गहराइयों में डूबने-उतराने लगा। पिछले चालीस वर्षों के उसके जीवन-काल के काले-उजले पृष्ठ तीव्र गति से पलटते चले गए।........

मात्र छः वर्ष की उम्र रही होगी तब रघु की, जब उसके माता-पिता की एक दुर्घटना में असामयिक मृत्यु के बाद उसके चाचा-चाची उसे अपने घर ले आये थे। दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था वह उस समय।
समय बीतता रहा। तीन वर्ष हो गये थे उनके साथ रहते रघु को। उसका अबोध मन कुछ-कुछ यह समझने लगा था कि चाचा-चाची का उसके प्रति व्यवहार उनके अपने बच्चे से बहुत भिन्न था। उनका बच्चा पढ़ने के लिए किसी स्कूल में जाता था, इसके विपरीत रघु को घर पर ही रहकर घर का छोटा-मोटा काम करना पड़ता था। नाश्ता, भोजन उसका अच्छा नहीं हुआ करता था और दूध तो कभी मिलता ही नहीं था। प्रारम्भ में कभी-कभार वह विरोध जताता था तो कभी-कभी जिद भी कर बैठता था कि उसे भी सब-कुछ वैसा ही चाहिए जैसा उसके चचेरे भाई को मिलता है, लेकिन समाधान के रूप में फटकार ही मिलती थी उसे। सम्भवतः उसका ध्यान इन बातों की ओर नहीं जाता और इतना अरुचिकर भी नहीं लगता उसे यह सब, यदि चचेरे भाई को प्राप्त सुविधाओं से तुलना करने का बोध उसे नहीं होता।
   रघु अब बड़ा हो रहा था और धीरे-धीरे उसका व्यावहारिक ज्ञान भी बढ़ चला था। वह समझने लगा था कि उसे वह अधिकार इस घर में नहीं  मिल सकता जो उसके चचेरे भाई को मिलता है, अतः परिस्थितियों से समझौता करने से परे उसके पास कोई चारा नहीं है।
   यूँ ही समय बीतते दो वर्ष और निकल गये। इसी दौरान उसका परिचय पड़ोस में रहने वाले एक लड़के से हो गया जो शायद उम्र में उससे दो-एक वर्ष बड़ा था। चाचा-चाची से चोरी-छिपे कभी-कभी वह उस लड़के से मिलता था। आर-पार था वह लड़का। गलत संगत में होने से तीन-चार महीने पहले वह अपने किसी आवारा दोस्त के साथ कहीं भाग गया था। बाद में पुलिस उसे कहीं से लाकर उसके घर छोड़ गई थी। रघु उसे पसंद तो नहीं करता था पर परिचय के नाम पर घर से बाहर वही एक तो था जिससे वह बात कर सकता था, अपना दुःख-दर्द साझा कर सकता था, सो वह मौका मिलने पर गप-शप लगाने उसके पास चला जाता था। घर से बाहर रहने के दौरान जो-जो अनुभव उसे हुए थे, रस ले-ले कर उसने रघु को बताये थे। व्यावहारिक रूप से न सही पर फौरी तौर पर बाहर की दुनिया की जानकारी रघु को उस लड़के से हो रही थी।
  रघु की चाची का व्यवहार कुछ दिनों से उसके प्रति और भी अधिक कठोर हो चला था। समय-असमय वह उसे अकारण ही प्रताड़ित करती और उस पर हाथ भी उठाने लगी थी। ग्यारह वर्ष का मासूम रघु समझ नहीं पा रहा था कि अब तो वह किसी प्रकार की मांग नहीं करता, किसी बात का विरोध नहीं करता, तो फिर उसे किस अपराध की सज़ा मिल रही है! उसका आहत तन-मन असहज हो उठता था और मीठे सपनों में खो जाने वाली उम्र में वह रातों में निद्रामग्न होने के विपरीत घर की छत को घंटों ताकता रहता। अल्पनिद्रा के कारण थकावट के चलते दिन में वह अनमना-सा रहता तो चाची की ज्यादतियां सहनी पड़ती थीं।
   एक दिन रात को जब वह सोने का प्रयास कर रहा था, तो दूसरे कमरे से चाची की आवाज़ उसके कानों में पड़ी- ''यह किस बला को हम अपने यहाँ ले आये हैं? अब यह लड़का मेरी बर्दाश्त के बाहर हो रहा है। भैया-भाभी खुद तो चले गये, इस आफ़त को हमारे लिए छोड़ गये हैं।''
 ''श्श्श्श्श्... धीरे बोलो, कहीं वह जाग नहीं रहा हो।''- उसके चाचा ने फुसफुसाते हुए कहा।
    रघु फफक पड़ा, सिसकियाँ लेते हुए बुदबुदाया- 'मम्मी-पापा, आप मुझे छोड़ कर क्यों चले गए? चाचा-चाची मुझे अपने साथ नहीं रखना चाहते, मैं भी यहाँ नहीं रहना चाहता। मैं क्या करूँ मम्मी....मैं क्या करूँ... '- रोते-रोते कब सो गया वह, उसे पता ही नहीं चला।
  सवेरे वह जल्दी ही जाग गया। उसका भाई अभी सो रहा था। कमरे से बाहर निकल कर देखा, चाचा-चाची का कमरा बंद था, शायद वह लोग भी अभी तक सो रहे थे। रात की बातें फिर उसके दिमाग को झकझोरने लगीं, उसका सुकोमल मन यह सब अधिक समय तक नहीं सह सकता था अतः कुछ निश्चय कर पहने कपड़ों वह घर छोड़ कर निकल गया कभी वापस नहीं लौटने के लिए।
  रघु घर से निकल कर कहीं दूर, बहुत दूर, यत्र-तत्र अन्जानी राहों पर निरुद्देश्य लगभग पूरे दिन विचरण करता रहा। रात हो रही थी, बहुत थक गया था वह। उसने देखा, पास में ही एक बगीचा है, भीतर जाकर भूखा-प्यासा ही  वह एक कोने में सो गया। ग्रीष्मकाल की रात्रि थी अतः शीत का भय तो नहीं था पर बिना बिछौना उद्यान की नमी वाली घास पर शयन इतना सहज भी नहीं था। वह कुछ पल लेटा रहा, फिर उठा, पर दो पल में ही पुनः लेट गया। कई रात्रियों की थकान ने कुछ ही क्षणों में उसको निद्रा देवी की गोद में धकेल दिया।
  देर सवेरे सफाई-कर्मी के भद्दे सम्बोधन ने उसे जगा दिया- ''ऐ लड़के, यहाँ कहाँ पसरा हुआ है?...चल उठ! कोई घर-बार नहीं है क्या तेरा या घर से झगड़ा कर के आया है?''
 आँखें मलते हुए हड़बड़ा कर उठ बैठा वह। आज कई दिनों के बाद उसे सुखद निद्रा सुलभ हो सकी थी। एक उचटती दृष्टि सफाई-कर्मी पर डाल कर प्रत्युत्तर दिए बिना ही वह उद्यान से बाहर निकल आया। सड़क के किनारे एक सार्वजनिक नल पर उसने मुँह धोया, कुल्ला किया और थोड़ा-सा पानी गटक लिया। अब उसे तेज भूख लग रही थी। क्या करे वह? पल भर को उसने इधर-उधर देखा और फिर समीप ही खड़े एक ठेले के पास जा पहुँचा। ठेले वाला समोसे बना रहा था तथा दूसरी ओर केतली में उबलती चाय को भी सम्हाल रहा था। दो ग्राहक वहाँ खड़े-खड़े समोसा खा रहे थे। पास ही खड़े रघु को अपनी और टुकुर-टुकुर देखते और होठों पर जीभ फिराते देख उन दोनों सज्जनों में से एक ने पूछा- ''बेटा! भूख लगी है? समोसा खाओगे?''
 आँखों में चमक के साथ एक मंद स्मित रघु के होठों पर खिंच आई। उस व्यक्ति के निर्देश पर ठेले वाले ने एक समोसा रघु को थमा दिया। रघु ने कृतज्ञ भाव से उस उदार व्यक्ति की आँखों में देखा और सड़क किनारे बैठ कर समोसे को रसभरी आँखों से यूँ निहारा जैसे वर्षों बाद उसे कुछ खाने को मिला हो। समोसे को खाया तो क्या, लगभग निगला ही था उसने, क्योंकि प्रचंड भूख के कारण लम्बे समय तक चबाने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता था वह। अब पुनः नल पर जाकर उसने भरपेट पानी पीया। जैसे ही वह पलटा, उसने समोसा दिलवाने वाले व्यक्ति को पास खड़ा पाया।       
  ''बेटा, तुम अकेले कैसे हो? तुम्हारा घर कहाँ है?''-उसने रघु से पूछा।   
  रघु ने झिझकते हुए संक्षेप में अपनी कहानी बताई। उसने उसे करुण  भाव से देखा, दस रुपये दिये और समझाते हुए घर लौट जाने को कहा। रघु के लिए घर लौटना स्वीकार्य नहीं था, उसका घर था ही कहाँ! आकाश की ओर निहारते हुए वह व्यक्ति धीमे-धीमे क़दमों से वहाँ से चला गया।
  रघु उस दयालु व्यक्ति को जाते देखता रहा।  कुछ देर वहीं रुक कर वह भी चल पड़ा एक दिशा में...उद्देश्यविहीन! प्रातः दस बजने को थे और न जाने कब तक वह चलता ही रहता यदि सड़क के दूसरे किनारे बैठे एक लड़के पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। उसने देखा, वह लड़का उसके पास खड़े व्यक्ति के जूतों पर पॉलिश कर रहा था। दाएं-बायें दोनों ओर से आते-जाते वाहनों को ध्यान से देखते हुए उसने सड़क पार की और जूता-पॉलिश करने वाले उस लड़के के निकट जाकर उसकी समस्त गतिविधि उसने ध्यान से देखी। पॉलिश करवाने आया व्यक्ति अब वहाँ से जा चुका था।
 ''क्यों बे, यहाँ क्यों खड़ा है? पालिस करवानी है क्या तेरे बाथरूम सलीपर (स्लिपर्स ) पे?'' - जूता-पॉलिश वाले लड़के ने उपहास के स्वर में उससे पूछा। रघु ने विरक्त भाव से उसे देखा और वहाँ से चल दिया। पीछे से उस लड़के का ठहाका उसने सुना, किन्तु उस पर वह ठहाका कोई प्रभाव नहीं डाल सका।
  भाग्य ने रघु के साथ खिलवाड़ अवश्य किया था किन्तु एक अच्छे घर का बालक होने के कारण आज उसने जिस प्रकार से समोसा खाया था और दस रुपये प्राप्त किये थे, उसके औचित्य को उसका अचेतन मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था। सम्भवतः यही कारण था कि जूता-पॉलिश वाले लड़के को देखने के बाद उसने मानस बना लिया था कि वह इसी काम के जरिये अपनी रोटी कमायेगा।
 समय के थपेड़ों ने रघु को उसकी उम्र से कहीं अधिक बड़ा बना दिया था। इधर-उधर तलाश कर वह एक जनरल स्टोर में गया और वहाँ से उसने दो अलग-अलग शेड की  पॉलिश की दो डिब्बियां और दो ब्रश खरीदे। इतनी कम धन-राशि में इसके अतिरिक्त और कुछ वह कर भी क्या सकता था!
 अब रघु को अपने कार्य के लिए एक अनुकूल स्थान का चयन करना था। कुछ दूर चलने के बाद वह एक ऐसी सड़क के छोर पर था जहाँ भीड़ अधिक नहीं थी पर पैदल यात्री प्रचुर संख्या में आते-जाते दिखाई दे रहे थे। रघु के नन्हे मस्तिष्क ने इस स्थान को अपने काम के लिए उपयुक्त पाया। वह वहीं पर सड़क किनारे एक वृक्ष की छाँव में अपने सामने पॉलिश की डिब्बियाँ और ब्रश रख कर बैठ गया। उसका निर्णय सही था, साँझ तक में उसने साढ़े सात रुपये अर्जित कर लिए थे। उसने रुपये अपनी जेब में रखे और भोजन की खोज में चल पड़ा। उसने सुबह से अब तक में मात्र एक समोसा खाया था किन्तु जीविकोपार्जन के नए उत्साह में वह अपनी भूख को भी भूल गया था। नज़दीक ही उसे एक भोजनालय मिल गया। भोजन में तीन रूपये व्यय हुए, शेष साढ़े चार रुपये उसकी जेब में थे। प्रसन्नता से बारम्बार अपनी जेब को थपथपाता हुआ वह अपने व्यवसाय स्थल पर लौटा।


अध्याय (2)
  परिस्थितियों ने नन्हे रघु को कामकाजी बना दिया था और एक दिन में ही उसकी विचार-शक्ति भी कुछ बढ़ गई थी। वह अब तनावमुक्त था। उसने चारों ओर दृष्टि डाली। सामने एक छोटा-सा पार्क था। पड़ोस में दायीं ओर 60 -70 फीट की दूरी पर एक भव्य बंगला था। पीछे की ओर सड़क से लगभग 25 फीट की दूरी पर एक खंडहरनुमा कमरा था। उसने बायीं ओर भी नज़र डाली, वहाँ कुछ-कुछ दूरी पर छोटे-बड़े वृक्ष खड़े थे। उसके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा, उसके रात्रि-विश्राम के लिए यह खंडहर उपयुक्त स्थान हो सकता है। एकबारगी खंडहर में जाकर सोने के विचार-मात्र से उसका बदन सिहर उठा। लेकिन फिर उसके मन में कुछ हिम्मत आई, मन ही मन बुदबुदाया वह- 'हे ईश्वर! रहने के लिए तूने कोई जगह तो दी!' ईश्वर के स्मरण ने उसे कुछ सीमा तक आश्वस्त कर दिया था।
  एक माह में रघु की बचत 118 रुपये हो गई थी। उसकी दैनिक आय अब औसतन 11-12 रुपये हो गई थी। कुछ ही अंतराल में उसने एक जोड़ी कपड़े व रात्रि-विश्राम के लिए ओढ़ने-बिछोने की व्यवस्था भी कर ली।
  समय अधिक नहीं बीता था कि एक दिन उसने देखा, लगभग उसी की उम्र का एक लड़का जो पास वाले बंगले से निकल कर सामने वाले पार्क में कभी अपने पिता के साथ तो कभी अकेले ही टहलने आता था, पार्क से लौटते हुए उसकी तरफ चला आ रहा था। रघु से औपचारिक परिचय के बाद, कुछ देर उससे बतियाया और पुनः आने का वचन देकर मुस्कराते हुए चला गया। उस दिन के बाद से जब भी वह अकेला पार्क में आता तो उसके पास ज़रूर आता, कुछ देर तक उससे बातें करता और लौट जाता। यह क्रम कुछ दिन यूँ ही चलता रहा।
  रघु को उसने बताया कि वह एक अंग्रेजी स्कूल में क्लास सिक्स्थ (छठी कक्षा) में पढता है। स्कूल में भी उसके कुछ मित्र हैं, लेकिन रघु उसे सबसे अधिक अच्छा लगता है। अपने मित्रों के साथ होने वाली गप-शप की चर्चा भी वह बड़े चाव से करता था। रघु ने भी अपनी कुछ बातें उसे बताईं, यद्यपि बताने को उसके पास अधिक कुछ नहीं था। कुछ ही दिनों में उनकी मित्रता प्रगाढ़ हो चली थी।
 एक दिन रघु ने उससे यूँ ही पूछ लिया -''सन्दीप! (यही नाम बताया था उसने रघु को) तुमने मुझसे कहा था कि मैं तुम्हें तुम्हारे अन्य दोस्तों से ज्यादा अच्छा लगता हूँ। ऐसा क्यों लगता है तुम्हें?''
''क्या तुम मुझे अच्छा दोस्त नहीं मानते?''- सन्दीप ने पलट कर उससे पूछा।
 ''अरे, तुम मेरे बहुत अच्छे दोस्त हो!''- हँसते हुए रघु ने उत्तर दिया।
 ''तो बस यूँ ही समझ लो।''- सन्दीप ने रघु की आँखों में अपनी नज़र गड़ाई और दो क्षण रुक कर पुनः बोला- ''वैसे इसके पीछे एक वज़ह और भी है। मैं जब तुमसे पहली बार मिला था, उसके तीन-चार दिन पहले मेरा एक दोस्त स्कूल जाने के लिए यहाँ से निकला था और तुम्हें यहाँ देख उसे ध्यान आया कि वह अपने जूते पॉलिश किये बिना ही घर से आ गया है। उसे स्कूल में सजा मिलने का डर था सो तुम्हारे पास पॉलिश के लिए आया। उसने जेब में हाथ डाला तो पैसे भी उसके पास नहीं थे। उसके पास इतना समय नहीं था कि घर जा पाता। फिर ध्यान में है तुम्हारे, क्या हुआ था?''
 ''हा हा हा हा... ''- खिलखिलाया रघु- ''मुझे याद है, उसने रुआँसा होकर मुझसे कहा था कि उसके पास पैसे नहीं हैं और यदि जूतों पर पॉलिश नहीं होगी तो स्कूल में मार पड़ेगी। मैंने उससे हँसते हुए कहा था कि वह पैसे की चिंता नहीं करे। फिर उसके जूतों पर पॉलिश कर दी थी मैंने।''
''मुझे तुम्हारी यह बात बहुत अच्छी लगी थी रघु, तुम दिल के कितने अच्छे हो!''- सन्दीप का स्वर गंभीर था।
''अच्छा सन्दीप, एक बात बताओगे? जब तुम्हारे पापा साथ होते हैं तब तुम मेरे पास क्यों नहीं आते?"- रघु ने पूछा।
सन्दीप ने झिझकते हुए बताया कि उसके पापा को उसका यहाँ आना अच्छा नहीं लगता। रघु बहुत दुखी हुआ यह जान कर। पीड़ा से आहत हो उठा उसका मन।
 ''यदि ऐसा है तो तुम यहाँ न आया करो।''- दृढ़तापूर्वक रघु बोला। कातर दृष्टि से रघु की ओर देखा सन्दीप ने और धीमे क़दमों से अपने घर की ओर लौट गया। अनमना सा रघु देखता रहा उसे जाते हुए।
  इस घटना के बाद कई दिनों तक सन्दीप उससे मिलने नहीं आया। वह अब पार्क की ओर आता भी कभी दिखाई नहीं दिया। नित्य सांझ होते ही रघु एक आशाभरी दृष्टि से पार्क की ओर देखता, किन्तु निराशा ही हाथ लगती थी। उसका मन अपने प्रिय मित्र के लिए व्याकुल हो उठा था, किन्तु उसे देखने, उससे मिलने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था उसे । कितना सरल है सन्दीप और कितना अपनत्व होता है उसकी बातों में। रघु अपना काम करते-करते भी इन विचारों में ही खोया-सा रहने लगा था।       
 एक दिन जब वह एक ग्राहक के जूतों पर पॉलिश करने के बाद सुस्ता रहा था तो अनायास ही दायीं ओर से उसे सन्दीप अपने पापा के साथ आता दिखाई दिया। खिल उठा रघु  उसे देखकर और तीव्रता से दौड़ पड़ा उसकी ओर। किन्तु यह क्या, सन्दीप के मुखमण्डल पर झीनी-सी मुस्कराहट तो थी परन्तु रुग्णता भी स्पष्ट झलक रही थी। वह बहुत दुर्बल दिखाई दे रहा था।
  ''रघु, यही नाम है न तुम्हारा?''- और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही सन्दीप के पापा ने अपनी बात आगे बढाई- ''बेटा, मैं सन्दीप का पापा हूँ, मेरा नाम अविनाश राय है। देखो, तुम्हारा दोस्त तुमसे मिलने आया है।''
  सहमा-सहमा सा रघु सन्दीप के और भी निकट आया। और सन्दीप... सन्दीप तो रघु से लिपट ही गया। ऐसा पूर्व में कभी नहीं हुआ था। दोनों मित्र एक अलौकिक सुख की अनुभूति कर रहे थे। रघु ने देखा, सन्दीप के पापा के मुख पर भी संतुष्टि का भाव था।
  रघु की ओर उन्मुख हो अविनाश राय बोले- ''बेटा, सन्दीप चाहता है, कुछ समय के लिए तुम हमारे घर चलो।''
  रघु असमंजस में था, क्या करे वह? क्या उसे उनके घर जाना चाहिए? सन्दीप से उसकी मित्रता उसके पापा को तो अच्छी नहीं लगती न! उसने साहस करके उनकी ओर देखा, उनकी आँखों में स्निग्धता थी। सन्दीप की मित्रता के मोह ने भी उसे निर्णय की स्थिति में ला दिया। उसने सहमति दे दी, खंडहर में जाकर हाथ-मुंह धोये, कपडे बदले और उनके साथ चल दिया।
   कुछ ही देर में रघु उनके साथ उनके बंगले पर पहुंच गया। रघु ने ऐसा बंगला भीतर जा कर पहले कभी नहीं देखा था। गेट में घुसते ही एक तरफ बहुत बड़ा बगीचा (लॉन) था और दूसरी तरफ बैडमिण्टन-कोर्ट था। सामने घर का बाहरी दरवाज़ा मोटे खूबसूरत कांच का बना हुआ था और भीतर एक और दरवाज़ा नक्काशीदार मज़बूत लकड़ी का बना हुआ था। बायीं ओर के एक बड़े कमरे (ड्रॉइंग रूम) में वह उसे ले गए। इस कमरे में सोफे पर उसे भी बैठने को कहा गया। झिझकते-झिझकते वह सोफे पर बैठ गया। 'आह! कितना मुलायम और गुदगुदा है यह सोफ़ा!' -उसे उस पर बैठना बहुत अच्छा लगा।
  घर की सेविका ने पानी लाने के बाद निर्देश पा कर सभी को जूस परोसा। जूस पीने के साथ ही वह कमरे को ध्यान से देख रहा था। उसके चाचा के घर के कमरों की तुलना में बहुत बड़ा था यह कमरा और कमरे की सजावट देख कर तो उसकी आँखें ही फैल गई थीं। कितना अच्छा लगता होगा सन्दीप को इस बड़े-सारे मकान में रहना, वह सोच रहा था।
  अविनाश राय के पुनः बोलना शुरू करने पर उसकी विचारधारा टूटी। वह कह रहे थे- "सन्दीप यह सोच कर बहुत दुखी था कि उसका तुम से मिलना मुझे पसंद नहीं था और वह और भी अधिक परेशान रहने लगा था कि यह बात जानने के बाद तुम ने उसे अपने पास आने से मना कर दिया था। बहुत समझाने के बावज़ूद उसने पार्क में जाना भी छोड़ दिया था। स्कूल जाने में भी वह अब अधिक रुचि नहीं लेता था। आखिर में मन में घुटते रहने से वह बीमार हो गया।
  रघु ने देखा उनके बात करने के दौरान ही सन्दीप की आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं। उसे दूसरे कमरे में सुलाने के लिए ले जाते हुए राय साहब ने कहा- ''शायद दवा के असर से उसे नींद आ रही है।''
 वापस आकर रघु से पुनः बोले- ''बेटा रघु, जब सन्दीप तीन साल का था तभी उसकी माँ आकांक्षा का देहांत हो गया था और उसके बाद आया की मदद से मैंने उसे बड़ा किया है। चन्दना, जो अपने लिए जूस लाई थी वही उसकी आया भी है। सन्दीप एक वर्ष का था तब से वह हमारी सेवा कर रही है। वह सन्दीप का बहुत ख़याल रखती है।  तुम अभी छोटे हो पर फिर भी सन्दीप की तकलीफ शायद समझ सकोगे क्योंकि तुम्हारे साथ भी कुछ ऐसा ही बीत चुका है, जैसा कि सन्दीप ने मुझे बताया है।''
  नन्हे रघु को कुछ-कुछ उनकी बातें समझ में आ रही थी। 'आया' क्या होती है, इसका भी कुछ अनुमान उसे हुआ। एक समझदार इन्सान की तरह उसने सिर हिलाया। वह अपना बीता समय भूल कैसे सकता था, लेकिन यह सोचकर कि अब सन्दीप उससे शायद फिर मिलने आ सकेगा, वह मन ही मन खिल उठा। अविनाश राय आगे और कुछ कहते उससे पहले ही झिझकते हुए उसने पूछा- ''तो अब आप उसे मेरे पास आने देंगे न सा'ब!''
  रघु के प्रश्न के उत्तर में राय साहब ने उससे ही पूछा- ''रघु, क्या तुम हमारे घर, हमारे साथ रहोगे?''
 भौंचक्का रघु देखता रह गया उनकी तरफ। क्या कह रहे हैं वह! उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। कोई जवाब नहीं सूझा उसे। अविनाश राय ने ध्यान से देखा रघु को और अपनी बात को आगे बढ़ाया- ''देखो रघु, सन्दीप चाहता है कि तुम यहाँ आ जाओ, हमारे साथ रहो। मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा होगा, पर बेटा,  मैं उसको खुश देखना चाहता हूँ।''
   रघु अब भी चुप रहा। कोई प्रत्युत्तर न पाकर राय साहब पुनः बोले- ''तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया रघु, तुम चाहो तो इस घर को अपना घर समझ सकते हो।''
  आखिर में रघु ने सिर को हल्की-सी जुम्बिश दे अपनी मौन स्वीकृति दे दी। रघु के मन में सुखद ज़िन्दगी  का लोभ नहीं था, सन्दीप के निश्छल और स्नेहिल साथ का आकर्षण ही था उसके बाल-मन में ।
 आठ-दस दिन में ही रघु सबसे घुल-मिल गया, लगता ही नहीं था कि वह कोई गैर है। चन्दना उससे बहुत खुश थी।  सन्दीप भी अब खुश रहने लगा था। चंद दिनों में ही वह स्वस्थ हो गया। अब नियमित रूप से वह स्कूल जाने लगा था।
  एक दिन चन्दना ने रघु को बताया- ''सा'ब का मशीनरी का कारोबार है, धन-सम्पत्ति की कोई कमी नहीं है। शादी के कई वर्षों के बाद सन्दीप बाबा पैदा हुए थे। जब वह एक साल के हुए तो उनकी देखभाल में  मदद के लिए मेमसा'ब मुझे यहाँ ले आईं। इसके दो साल बाद वह शान्त हो गईं। बहुत अच्छी थी मेमसा'ब।''- थोड़ा रुक कर वह फिर बोली- ''उनके जाने के बाद से सन्दीप बाबा बहुत उदास रहते थे, कई-कई बार तो रोने लग जाते थे। अकेलापन उन्हें बिल्कुल नहीं सुहाता था। तुमसे दोस्ती होने के बाद उन्होंने सा'ब से बहुत ज़िद की थी कि तुम्हें घर ले आएँ। पहले तो सा'ब माने ही नहीं कि ऐसे कैसे किसी भी बच्चे को अपने घर ले आएँ पर सन्दीप बाबा के हठ के आगे उनकी एक न चली। मेमसा'ब के देहान्त के बाद इकलौते बेटे को खुशहाल देखना ही उनकी ज़िन्दगी का मकसद रह गया है। पत्नी का यूँ अचानक चले जाना उन्हें कभी-कभी बहुत दुखी कर देता है, किन्तु सौतेली माँ के ख़राब व्यवहार के डर से उन्होंने दूसरे विवाह का कभी सोचा ही नहीं। तुम्हारे यहाँ आ जाने से संदीप बाबा तो खुश हैं ही, सा'ब भी बहुत खुश हैं।"
   यह सब जानकर रघु के मन में राय साहब के प्रति तो आदर भाव उत्पन्न हुआ ही, सन्दीप के प्रति मन स्नेह से ओत-प्रोत हो गया। उसने चन्दना से पूछा- ''क्या तुम कभी अपने घर नहीं जातीं? तुम्हारा भी अपना घर होगा न?''
  चन्दना के चेहरे पर उदासी छा गई- ''मेरे पति मेमसा'ब के पिताजी के ऑफिस में चपरासी थे। किसी बीमारी से बेमौत ही उनकी मौत हो गई। शादीशुदा बहन के सिवा मेरा और कोई नहीं था, यह जान कर मेमसा'ब के पिताजी ने दया करके मुझे अपने घर में काम पर रख लिया। बाद में सन्दीप बाबा के जनम (जन्म) के बाद मेमसा'ब के पास यहाँ भेज दिया।''
  रघु ने अपनत्व भरी निगाह से चन्दना की ओर देखा। चन्दना की कहानी सुन कर और अपने प्रति स्नेह के कारण भी रघु के मन में उसके प्रति अपनत्व और आदर का भाव उत्पन्न हुआ।
  दिन यूँ ही गुजरने लगे। सन्दीप के स्कूल से आने के बाद भोजन करके वह दोनों दिन में आराम करते और शाम को गप-शप में या किसी खेल में व्यस्त हो जाते थे। अविनाश राय रात्रि में संदीप को जब होम वर्क कराते तो रघु भी उनके पास बैठ जाता और कभी-कभी संदीप की हिन्दी की किताब उठा कर पढ़ने का प्रयास करता। राय साहब रघु से कभी पूछते कि उसने क्या पढ़ा तो केवल दूसरी कक्षा तक पढ़ा रघु जो जवाब देता उससे खुश होकर वह कह पड़ते- ''अरे बेटा, तुम तो बहुत शार्प (तीव्र-बुद्धि) हो।''
   रघु ससम्मान मुस्करा देता तो कभी उनके पाँव छूकर अपना सम्मान प्रकट करता।
  एक दिन अविनाश राय अपने कार्यालय से घर लौटे तो उनके साथ एक और व्यक्ति भी था। राय साहब ने सन्दीप और रघु को अपने पास बुलाया और मुस्करा के रघु से बोले- ''रघु बेटे, यह तुम्हारे मास्टर जी हैं, तुम्हें पढ़ाएंगे।'' और फिर मास्टर जी की ओर उन्मुख हुए- ''मास्टर जी, रघु बहुत होशियार लड़का है। जैसा कि मैंने आपको बताया था, यह दूसरे दर्जे तक पढ़ा है। अगर आप इसके साथ थोड़ी मेहनत करें तो अगले साल इसे स्कूल में पाँचवें या छठे दर्जे में  एडमिशन लेने लायक बना सकते हैं और ऐसा हुआ तो इसका पढाई में अभी तक का पिछड़ना दूर हो सकता है। आप पूरी कोशिश करें, जो फीस चाहेंगे आपको मिल जायेगी। मुझे समय कम मिलता है सो कुछ मदद आप सन्दीप की भी उसका होम वर्क करने में कर दीजियेगा।''
  मास्टर जी अगले दिन से अपने काम पर आ गए। दोनों बच्चे भी मन लगा कर पढ़ने लगे। सत्र की समाप्ति तक अपनी और मास्टर जी की आठ माह की अथक मेहनत से रघु इस योग्य बन गया था कि वह अगले सत्र में स्कूल में प्रवेश के लिए योग्यता-परीक्षा दे सके।
  स्कूल में प्रवेश-तिथि से पहले राय साहब व मास्टर जी रघु को एक स्कूल में ले गये और प्रधानाध्यापक से बातचीत कर रघु की योग्यता की जाँच कर उचित कक्षा में प्रवेश देने का अनुरोध किया। रघु की परीक्षा तीन दिन तक चली। अंग्रेजी में यद्यपि उसे कम अंक मिले, लेकिन अन्य विषयों में उसने अपनी योग्यता प्रमाणित कर दी थी। राय साहब ने प्रधानाध्यापक को आश्वस्त किया कि रघु और भी अधिक परिश्रम कर अंग्रेजी में भी अच्छा कर लेगा। अन्ततः उसे छठी कक्षा में प्रवेश मिल गया।
अध्याय (3)

  सन्दीप अब सातवीं कक्षा में था और रघु छठी में। सन्दीप रघु से पाँच -छः माह ही बड़ा था। दोनों के स्कूल भी अलग थे। राय साहब ने रघु को पहले ही बता दिया था कि उसे सन्दीप के स्कूल में प्रवेश नहीं मिल सकता क्योंकि वहाँ लांघ कर किसी बड़ी कक्षा में प्रवेश देने का नियम नहीं था। वह फिर भी संतुष्ट था, आखिर उसे पढ़ने का अवसर मिल गया था और पिछले वर्षों में नहीं पढ़ पाने की कमी भी पूरी हो गई थी।
  रघु का समय अच्छा निकल रहा था। उसके साथ यहाँ कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। अब वह पिछले सभी कष्ट भूल कर एक अच्छी ज़िन्दगी जी रहा था। दुर्भाग्य उससे बहुत पीछे छूट गया था। सन्दीप जैसा प्यारा मित्र अब उसकी ज़िन्दगी बन गया था। राय साहब भी उसे पुत्रवत् समझते थे और वह उनके निर्देशानुसार उन्हें अंकल कहने लगा था।
  यूँ ही समय गुजरता गया। सन्दीप को शहर के एक अच्छे कॉलेज में प्रवेश मिल गया जब कि रघु उस समय विद्यालय के अंतिम वर्ष में था। एक वर्ष और निकला और राय साहब ने रघु को भी सन्दीप के कॉलेज में प्रवेश दिलवा दिया। अपने अच्छे संस्कारों के चलते दोनों ही कॉलेज के स्वच्छंद वातावरण के विपरीत अपना अध्ययन-कार्य सुचारु रूप से करते रहे। सन्दीप ने अपना स्कूटर रघु को दे कर अपने लिए एक बाइक ख़रीद ली थी।
   सप्ताह में लगभग हर अवकाश के दिन अपने चार-पांच दोस्तों के साथ वह समुद्र के किनारे घूमने निकल जाते तो रघु के अलावा अन्य सभी दोस्त कभी-कभी वहाँ स्विमिंग भी करते थे। रघु को पानी से डर लगता था अतः उसने अब तक स्विमिंग नहीं सीखा था।
   ऐसे ही एक दिन रघु और सन्दीप अपने दोस्तों में से एक आकाश के साथ शाम पाँच बजे समुद्र के किनारे पहुँचे। मौसम बहुत अच्छा था। आसमान में बदरा छाये हुए थे, बारिश की हल्की-हल्की फुहार मौसम को और भी खुशनुमा बना रही थी। सन्दीप और आकाश समुद्र में स्विमिंग करने चले गये। किनारे पर एक छोटे से पत्थर पर बैठा रघु रेत से खेल रहा था, पानी की लहरें उसके बदन को कभी-कभी भिगो कर लौट जाती थीं।
  सन्दीप आकाश के साथ किनारे पर लौट आया। बारिश अब थम चुकी थी। मद्धम धूप में दोनों दोस्त बदन सूखने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अनायास ही समुद्र की एक तेज लहर ने रघु को अपने साथ खींच लिया। वह ज़िन्दगी में पहली बार पानी में गोते खा रहा था। उसके मुंह से कोई आवाज़ नहीं निकल पाई, धीरे-धीरे उसकी चेतना उसका साथ छोड़ रही थी।...
   रघु को जब होश आया तो उसने स्वयं को एक अस्पताल के वॉर्ड में पलंग पर लेटे हुए पाया। बहुत कमजोरी अनुभव कर रहा था वह। सामने दीवार पर टंगी घड़ी के अनुसार रात के दस बजे थे उस समय। उसने चारों और जहाँ तक नज़र जा सकती थी, देखा। और भी कई मरीज हॉल में लेटे हुए थे। उसके सिर में हल्का-सा दर्द हो रहा था। हाथ उठाकर उसने अपने सिर को छूआ, सिर पर पट्टी बंधी हुई थी। वह यहाँ कैसे आ गया? उसने दिमाग पर ज़ोर लगाया......वह सन्दीप के साथ समुद्र पर गया था। फिर क्या हुआ था...फिर...फिर उसे समस्त घटना याद आ गई। उसे वहाँ तक याद था कि समुद्र से आई एक लहर उसे किनारे पर से बहा ले गई थी और वह पानी में डूबता-उतराता चला जा रहा था। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं आया। हल्का जोर लगाकर वह उठ बैठा और वॉर्ड में सामने बैठी नर्स को आवाज़ देकर अपने पास बुलाया। पास आने पर उसने नर्स से पूछा कि उसे क्या हुआ था,यहाँ कौन लाया और वह यहाँ कितने दिनों से है। नर्स ने रघु का पेशेन्ट कार्ड देख कर बताया कि उसे तीन दिन पहले रात को आठ बजे यहाँ भर्ती कराया गया था, उसके सिर में चोट लगी थी और जब यहाँ लाया गया तब वह बेहोश था। उसने कहा कि उसे कौन लाया, यह नहीं मालूम क्योंकि वह उस समय ड्यूटी पर नहीं थी। नर्स ने उसे दवा दी और पलंग के पास रखे पेशेंट-स्टूल पर रखा दूध पीने की हिदायत दे कर चली गई। दूध पीने के बाद उसे कुछ ही देर में नींद आ गई।
  अगले दिन रघु की नींद जब खुली, सुबह के नौ बजने वाले थे। उसने स्वयं को बेहतर महसूस किया और वॉशरूम में जाकर नित्य-कर्म से निवृत होकर अपने बिस्तर पर आ गया। कुछ ही देर में दो डॉक्टर राउण्ड पर आये। जब रघु के पास आये तो सामान्य जाँच के बाद सीनियर लग रहे डॉक्टर ने औपचारिक रूप से उससे पूछा- ''कैसी तबियत है अब? छुट्टी कर दें अस्पताल से?''
   रघु ने क्षीण मुस्कराहट के साथ सिर हिलाया,समझ नहीं पाया कि क्या जवाब दे। डॉक्टर अपने सहायक और नर्स के साथ आगे बढ़ गया।
  सुबह का खाना लगभग ग्यारह बजे उसे अस्पताल से ही मिला। उसने खाना खाया। भोजन के बाद कुछ देर तक वह यूँ ही बैठा रहा। उसे आश्चर्य हो रहा था कि न तो सन्दीप और न ही राय साहब अब तक उसके पास आये थे। तभी वॉर्ड के दरवाजे से आता हुआ आकाश उसे दिखाई दिया। रघु को कुछ राहत महसूस हुई उसके आने से।
  ''कैसे हो राघव (रघु का नाम स्कूल में प्रवेश के समय 'राघव' लिखवाया था राय साहब ने, इसलिए घर से बाहर के सभी लोग उसे इसी नाम से पुकारते थे)? यार, आज तो काफी ताज़गी दिख रही है तुम्हारे चेहरे पर।''- फीकी मुस्कान के साथ आकाश ने आते ही उसका हालचाल पूछा।
  ''आकाश! कल रात होश आया था मुझे। तब से सन्दीप नहीं आया अभी तक और न ही अंकल। वही तो मुझे यहाँ लाये होंगे। मेरे सिर पर चोट कैसे लगी? मैं कैसे बचा, मुझे तो समुद्र की लहर ने खींच लिया था न?''-रघु ने आकाश की बातों का जवाब न देकर प्रश्नों की बौछार कर दी।    
  आकाश पलंग के पास रखी लकड़ी की बेंच पर बैठते हुए बोला- ''जब समुद्र की लहर तुम्हें बहा ले जा रही थी, हमारी नज़र समुद्र की तरफ ही थी। सन्दीप तुम्हें समुद्र में बहते देख तुम्हारी तरफ दौड़ा, लेकिन उसी समय  किनारे की ओर लौटती एक और तेज लहर तुम्हें व सन्दीप को वापस ले आई। संयोग से तुम्हारा सिर किनारे पर पड़े एक बड़े से पत्थर से टकराया। तुम्हारे ललाट से खून रिस रहा था। उधर समुद्र की दिशा में तुमसे कुछ दस-बारह फीट दूरी पर सन्दीप औंधा....।''
  ''उसे क्या हुआ था, वह ठीक से तो है?''- आकाश की बात को काटते हुए रघु ने आतुर हो कर पूछा।
  आकाश ने कहना जारी रखा- ''वह रेत पर औंधा पड़ा हुआ था। मैं दौड़ कर उसके पास गया और उसे सीधा लिटाया। वह होश में तो था लेकिन पानी की तेज़ लहर से टकराने के कारण शायद वह जबरदस्त कमजोरी महसूस कर रहा था। उसने क्षीण आवाज़ में मुझसे कहा कि मैं तुम्हें सम्हालूँ और तुम्हारा पेट दबाकर पानी बाहर निकालूँ , दो-तीन मिनट में थकान कम होते ही वह भी आ जायेगा। मैं लौटा और तुम्हारे माथे के घाव पर पर रुमाल बाँधने के बाद तुम्हारे पेट पर हाथों से कई बार दबाव डाला जिससे काफी मात्रा में पानी तुम्हारे मुँह से बाहर निकला। उसी समय एक और विकराल लहर समन्दर से आई और उसने हमें चार-पांच फीट और पीछे धकेल दिया। लहर के वापस लौटते ही कुछ दूरी पर खड़े एक परिवार का कोई सदस्य चिल्लाया- अरे वह गया, वह बह गया।  ....मैंने घबरा कर पीछे की ओर देखा, वहाँ सन्दीप नहीं था। मैं चीखा और...।' -आकाश की आँखों में आंसू थे- ''वापस नहीं लौटा सन्दीप, समुद्र उसे निगल...।''
  आकाश बात पूरी कर पाता उसके पहले ही दहाड़ मार कर रघु रो पड़ा- ''सन्दीईईईईप ....! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। सन्दीप मुझे छोड़ कर नहीं जा सकता। सन्दीप....मेरे भा....।''
....और रघु बेहोश हो गया। जब वह पुनः होश में आया तो आकाश के अलावा  एक नर्स व वॉर्ड-डॉक्टर उसके पास मौजूद थे। रघु का B.P. जांचने के बाद उसे दिलासा देकर डॉक्टर चला गया।
  रघु पुनः सिसकने लगा। आकाश उसको सान्त्वना दे रहा था लेकिन रघु की रुलाई रुक नहीं रही थी। थोड़ी देर तक रोने के बाद जब उसने स्वयं पर काबू पाया तो आकाश ने उसे दो घूँट पानी पिलाया।
  रघु को अपनी ओर तकते देख आकाश ने फिर कहना शुरू किया- ''तुम बेहोश पड़े थे और सन्दीप हमें छोड़ गया था। मैं पागलों की तरह कभी तुम्हें, कभी समुद्र की ओर देख रहा था। थोड़ा सामान्य हुआ तो दिमाग कुछ चला। तुम्हें वहीं छोड़ कर, सड़क पर जाकर मैंने एक पीसीओ तलाश किया और पापा को और अंकल (संदीप के पापा) को फ़ोन किया। अंकल अपने तीन-चार दोस्त-रिश्तेदारों के साथ कुछ ही देर में आ गये। मैं सारा वाक़या उन्हें बता रहा था कि इतने में पापा भी आ गए। पापा ने हालात को समझा, बदहवास हो रहे अंकल को सम्हाला और फिर तुम्हें ले कर हम सब लोग इस अस्पताल में आये।''
   कुछ पल रुक कर आकाश ने पुनः बोलना शुरू किया- ''डॉक्टर ने तुम्हें देखा, एक्स रे, आदि, कुछ जांचें कीं, कुछ दवाइयां लिखीं और हमें बताया कि तुम्हारे सिर में भीतरी चोट लगी थी और यह भी कि दो-तीन दिन में रिकवरी होने की पूरी संभावना है। अंकल और उनके साथ आये सभी लोगों को पापा ने वहाँ से भेज दिया व हम दोनों वहाँ रुक गए। अस्पताल प्रशासन ने अंकल का व हमारा फोन नम्बर नोट किया व बाद में हमें भी घर भेज दिया, कहा कि तुम्हारे बेहोश होने के कारण किसी अटेन्डेंट की ज़रुरत नहीं थी। मैं रोज़ कॉलेज के बाद यहाँ आता था और तुम्हें बेहोश देखकर नर्स-कम्पाउण्डर से बात कर लौट जाता था। उनसे ही पता लगता था कि तुम बेहोश थे पर तबीयत में लगातार सुधार हो रहा था।''
  आकाश ने बात ख़त्म की तो रघु ने निरन्तर बह रहे अपने आंसू पोंछे और पूछा- ''अंकल (राय साहब) भी तो यहाँ आते होंगे मेरा हाल जानने?''
  ''पता नहीं, मैं आता था तब तो नहीं होते थे पर आते तो होंगे ही।'' -आकाश को नर्स ने कल ही बताया था कि राय साहब दुबारा नहीं आये थे, पर उसने रघु को यह बात जाहिर नहीं की।
  ''राघव, तुम अब नॉर्मल होने की कोशिश करो यार! अब सन्दीप लौट कर नहीं आएगा। वह हमें छोड़ कर चला गया है, इस हकीकत को हमें समझना होगा।''
  रघु फिर फफक पड़ा- ''नॉर्मल कैसे होऊं आकाश? मेरा सन्दीप, मेरा भाई चला गया है....मेरा सब-कुछ चला गया है। मेरी यह ज़िन्दगी उसके प्यार की कर्ज़दार है। कैसे भूलूँ मैं उसे? बता न आकाश, कैसे जीयूँगा मैं उसके बिना?''
  ''मैं तुम्हे इस तरह रोते नहीं देख सकता राघव, मैं चलता हूँ, कल आऊंगा...टेक केयर!'' -आकाश अपने छलक आते आँसुओं को जबरन रोकते हुए अस्पताल से निकल गया।
   रघु रोते-रोते कब सोया, उसे भान नहीं हुआ, शाम होने पर नर्स ने उसे जगाया।
नर्स ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ रखा और बोली- ''तुम बहुत देर सो लिए हो। अब कैसे हो राघव?''
 ''अच्छा ही हूँ'।''- फीकी मुस्कराहट के साथ रघु ने जवाब दिया।
  नर्स ने कहा- ''राघव, कल सुबह अस्पताल से तुन्हें छुट्टी मिल जाएगी। यहाँ का तुम्हारा बिल राय साहब ने जमा करा दिया है। वह अभी अस्पताल के ऑफिस में आये थे जब तुम सो रहे थे। मैं उन्हें जानती हूँ। वह कभी-कभी इस अस्पताल को डोनेशन भी देते रहते हैं।'' कुछ रुक कर वह फिर बोली- ''राघव,वह एक बैग में तुम्हारे कपड़े और कुछ और सामान दे गए हैं और कहा है कि तुम जहाँ जाना चाहो जा सकते हो।''
  सूनी दृष्टि से देखते हुए रघु ने पूछा- ''और भी कुछ कहा अंकल ने?''
 नर्स ने झिझकते हुए कहा - "राय साहब डॉक्टर साहब को कुछ ऐसा बता रहे थे कि क्योंकि उनका बेटा तुम्हारे कारण आज इस दुनिया में नहीं है इसलिए वह अब तुम्हें अपने साथ नहीं रख सकेंगे।" यह सब बता कर नर्स चली गई।
  रघु मन ही मन बुदबुदाया- 'अंकल, मैं बहुत अभागा हूँ, मैं सच में आपका अपराधी हूँ। आपके उपकार कभी नहीं भूलूँगा...और सन्दीप...सन्दीप तो पहले भी मेरी ज़िन्दगी था और अब वह मेरी सांसों में ज़िंदा रहेगा। सन्दीप जैसे इंसान मरते नहीं हैं ...कभी नहीं मरते!' उसकी आँखों से दो बूँदें फिर नीचे को लुढ़क गईं।
 अगले दिन छुट्टी मिलने पर उसने बैग उठाया और अस्पताल से बाहर निकला। मन ही मन राय साहब को प्रणाम किया। उसे इस बात का कोई मलाल नहीं था कि राय साहब उसे अब अपने साथ नहीं रखना चाहते, वह रखें भी क्यों उसे अपने घर में जब कि जिस सन्दीप के कारण उसे वह घर नसीब हुआ था, वह ही उसके कारण इस दुनिया में नहीं रहा...। उसकी विचारधारा समुद्र की घटना पर जा अटकी- काश! वह समुद्र के इतना पास न बैठा होता, काश! सन्दीप उसे बचाने के लिए समुद्र में नहीं गया होता!... काश!   
  रघु की तन्द्रा को सहसा एक झटका लगा, किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा था। उसने पीछे मुड़ कर देखा। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं, राय साहब नम आँखें लिये खड़े थे।
''मुझे माफ़ कर दो बेटा रघु, घर चलो। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। मैं एक बेटे को खो चुका हूँ, दूसरे को नहीं खोना चाहता।'' -भीगी पलकें पोंछ कर राय साहब बोले और रघु को अपने सीने से लगा लिया।
 रघु अब तक कुछ सहज हो गया था, राय साहब के आलिंगन से धीरे से स्वयं को मुक्त कर बोला- ''नहीं अंकल, आपका फैसला सही था। सन्दीप की जान मेरे ही कारण गई है। मैं आपकी दया का पात्र कतई नहीं हूँ। मैं कहीं भी चला जाऊंगा, मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दीजिये। सड़क के बच्चे को आपने घर दिया था, यह उपकार क्या कुछ कम है। वैसे भी अंकल, अब सन्दीप के बिना मैं आपके वहाँ नहीं रह पाउँगा, मुझे ...।''  - रोक नहीं पाया वह स्वयं को और सुबक पड़ा।
''मत रो मेरे बच्चे!''- और भी अधिक भावुक हो राय साहब ने पुनः रघु को गले लगा लिया और कहते चले गए- ''मैं अकेला भी तो उसके बिना जी नहीं सकूँगा। सन्दीप तुम्हें बहुत प्यार करता था, अब मैं तुम में ही अपने सन्दीप को देखूंगा। चलो बेटा, आंसू भी बहायेंगे तो तुम और मैं साथ मिल कर। तुम सन्दीप की धरोहर हो मेरे पास। उसकी इच्छा का भी सम्मान नहीं करोगे? क्या मुझे यूँ ही तड़पता छोड़ कर जा सकोगे तुम?''
 बेबस रघु कातर निगाहों से देखता रहा अपने अंकल को।
राय साहब ने रघु के हाथ से बैग लिया और उसका हाथ पकड़ कर अपनी कार की ओर ले चले।
 राय साहब रघु को घर ले आये। समय सभी के घाव भरता ही है, रघु भी शनैः-शनैः सामान्य होने लगा, किन्तु शाम को जब भी समय मिलता, वहसमुद्र के किनारे उसी जगह जाकर बड़ी देर तक बैठा रहता जहाँ से सन्दीप को हत्यारी लहर उठा ले गई थी। असम्भव सम्भावना के प्रति आशान्वित हो वह समुद्र की ओर ताकता रहता कि शायद कभी कोई लहर उसके सन्दीप को किनारे पर ले आये जैसे उसे ले आई थी। आँखों में आँसू लिए काँपते होठों से समुद्र को घूरता हुआ कभी बुदबुदाता वह- 'लेना ही था तो मुझे ले जाते, सन्दीप ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था', तो कभी विह्वल होकर बिलख पड़ता।
 रघु अपनी पढाई में तथा राय साहब कारोबार में मन लगाने लगे थे। राय साहब के निर्देशानुसार वह पढाई के अतिरिक्त समय में उनके ऑफिस भी जाने लगा था। चन्दना भी धीरे-धीरे गम से उबर चुकी थी।
 रघु राय साहब को देख कर कभी-कभी चिन्तित हो उठता था- 'अंकल की उम्र 45 के आस-पास ही है लेकिन सन्दीप के जाने के बाद कुछ ही माह में वह अपनी उम्र से दस वर्ष अधिक के लगने लगे हैं।' वह उनका बहुत ख़याल रखता था, लेकिन सन्दीप की कमी कैसे पूरी करता! वह स्वयं को ही कहाँ उसकी यादों से उबार पाता था!
 समय पंछी बन कर उड़ता रहा। रघु का ग्रेजुएशन हो चुका था। राय साहब ने अच्छी सी लड़की तलाश कर रघु की शादी भी करवा दी। रघु का भाग्य अब हर तरह से उसका साथ दे रहा था। उसकी पत्नी, रोहिणी सुन्दर तो थी ही स्वभाव से भी अच्छी थी। दो साल के अन्तराल में परिवार में एक नन्हा मेहमान, निखिल आ गया। राय साहब तो अब बहुत ही खुश दिखाई देते थे, कहते- 'मेरा सन्दीप लौट आया है।'
 चार साल हँसते-खेलते और निकले। तब तक रघु की बिटिया, वत्सला ने भी जन्म ले लिया। उसका बेटा अब स्कूल जाने लगा था। चन्दना तो राय साहब का ध्यान रखती ही थी, रोहिणी भी अपने दोनों बच्चों को सम्हालने के साथ ही उनका भी पूरा ध्यान रखती थी। राय अंकल को कब, क्या चाहिए, इसका ख़याल उनसे अधिक उसे रहता था।
 रघु राय साहब के कारोबार को अब समझने लगा था और कभी-कभी उनके दौरे पर जाने के दौरान भी काम अच्छे-से सम्हाल लेता था। पहले इनकी फर्म ‘आकांक्षा एंटरप्राइज़ेज़’ में इलेक्ट्रॉनिक पैनल्स की खरीद-बिक्री का व्यवसाय था पर अब उनके पार्ट्स खरीद कर असेम्बल कर के विक्रय करने का काम भी होने लगा था। राय साहब कारोबार के मामले में अब निश्चिन्त थे और कारोबारी स्थितियों को स्वतंत्रतापूर्वक निपटाने का अवसर भी रघु को देते थे। रघु ने भी इस क्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित कर दिया था।

अध्याय (4)

  कुछ वर्ष और यूँ ही निकले। रघु अब 42 का हो रहा था, सिर में कहीं-कहीं सफेदी दिखने लगी थी। राय साहब ने उसको अपने व्यवसाय में भागीदार बना लिया था। दोनों के संयुक्त प्रयास से उनका व्यवसाय और भी समृद्ध हो चला था।
.....गर्मी के मौसम का रविवार था। शाम के समय राय साहब और रघु अपने घर के लॉन में बैठे कॉफी की चुस्कियाँ ले रहे थे। बातचीत के दौरान किसी सन्दर्भ के तहत अचानक ही साहब ने रघु से कहा- ''रघु, कई दिनों से मेरे मन में एक विचार आ रहा है कि हम निराश्रित बच्चों के लिए एक आश्रय-संस्थान खोलें, तुम क्या कहते हो?''
''मैं क्या कहूँगा अंकल, आपकी कोई भी इच्छा मेरे लिए तो परमात्मा का आदेश है और फिर आपकी यह सोच तो किसी और राय की मोहताज हो ही नहीं सकती।''- मुस्करा कर रघु ने कहा, उसके शब्दों में दृढ़ता थी।
राय साहब की इच्छा तो रघु के लिए सर्वोपरि थी ही, उसका स्वयं का मन भी कहीं न कहीं इस विचार से जुड़ा था। उनके घर से तक़रीबन चार किलोमीटर की दूरी पर राय साहब की पूर्व में खरीदी हुई ज़मीन पर सात कमरों वाले एक भवन का निर्माण शुरू कर दिया गया। रघु ने राय साहब के इच्छित संस्थान का नाम 'सन्दीप निराश्रित बाल सदन' प्रस्तावित किया, जिसे रायसाहब की डबडबाती आँखों ने मौन स्वीकृति दे दी।
 लगभग दो साल में बाल सदन तैयार हो गया। राय साहब के नाम से एक ट्रस्ट की स्थापना की गई एवं 'सन्दीप निराश्रित बाल सदन' अंकित किया हुआ खूबसूरत नाम-पट्ट भवन के मुख्य द्वार पर लगा दिया गया। चंद दिनों में बच्चों के रहने लायक आवश्यक सुविधाएँ भी जुटा दी गईं। समाचार पत्रों में विज्ञापन के बाद कुछ समाज-सेवकों के प्रयास से अब तक उन्नीस बच्चे भी नामांकित हो चुके थे।
 उस दिन बाल सदन का विधिवत् उद्घाटन होने जा रहा था। भवन के पास ही बने पंडाल में राय साहब के परिवार व सम्बन्धियों के साथ ही उनके ऑफिस के छोटे-बड़े कर्मचारी व शहर के कई आमन्त्रित प्रतिष्ठित व्यक्ति अपना स्थान ले चुके थे। महिला एवं बाल-विकास मंत्री मुख्य अतिथि थे। राय साहब व दो अन्य अतिथि वक्ताओं के उद्बोधन के बाद मुख्य अतिथि का भाषण हुआ। मंत्री जी ने राय साहब व रघु को इस पुण्य कार्य के लिए बहुत सराहा, संस्थान को सरकारी अनुदान की अनुशंसा का वादा किया और आवश्यक कार्य बता समारोह के मध्य ही वहाँ से चले गए। अन्त में रघु धन्यवाद-ज्ञापन के लिए स्टेज पर आया। रघु ने राय साहब के इस कार्य के अलावा अपने प्रति सन्दीप व राय साहब के उदार अनुग्रह का वर्णन किया। सन्दीप के बारे में बताते हुए रघु स्टेज पर ही द्रवित हो उठा।
अनायास ही अपनी पत्नी की चीख सुन कर वह पलटा। राय साहब अपनी कुर्सी पर झुक गए थे और रोहिणी व आया ने उन्हें थाम रखा था। रघु माइक छोड़ कर राय साहब की ओर दौड़ा। स्तम्भित अधिकांश आगन्तुक एक-एक कर वहाँ से निकल गये।
  रघु राय साहब को कार में लिटा कर परिवार के सदस्यों के अलावा कुछ अन्य लोगों के साथ तुरत अस्पताल पहुंचा। नाड़ी, श्वसन प्रणाली, आदि जाँच कर डॉक्टर ने निराशा में सिर हिला दिया। डॉक्टर ने बताया कि यह SCD (आकस्मिक हृदयाघात से मृत्यु) का मामला है। रघु अपनी स्थति से बेखबर सिसक-सिसक कर रोने लगा। उसके होठों से रुदन के साथ कुछ ही शब्द बाहर आये- ''मेरा पालनहार चला गया, मेरा सब-कुछ चला गया... !''
 बहुत प्रयासों के बाद उसे चुप कराया जा सका। अंतिम संस्कार के बाद घर पहुँच कर भी वह घंटों राय साहब व सन्दीप की तस्वीरों को निहार-निहार कर रोता रहा। चन्दना सहित सारा परिवार शोक-मग्न था।
 राय साहब के समस्त अंतिम-कार्यक्रमों से निवृत होने के कुछ दिनों बाद एक दिन राय साहब के एक वक़ील मित्र नकुल भाटिया रघु से मिलने घर आये, राय साहब के निधन पर शोक जताया तथा बताया कि राय साहब ने अपनी वसीयत बनवा कर उन्हें दी थी तथा उनके देहान्त के बाद रघु को सौंपने की हिदायत दी थी।
 वक़ील साहब के जाने के बाद रघु ने परिवार के सभी लोगों के सामने वसीयत का लिफाफा खोला। अन्य कानूनी इबारत के अलावा वसीयत का मुख्य मजमून इस प्रकार था- 'मैं अविनाश राय अपने पूरे होशोहवास में अपनी सम्पत्ति में से पाँच लाख रुपये हमारी आया श्रीमती चंदना, जिसने अपना पूरा जीवन हमारी सेवा में समर्पित किया है, को देने की घोषणा करता हूँ जो उसके बैंक-खाते में मेरी मृत्यु होने के तुरत बाद स्थानांतरित कर दिए जाएँ। मेरे नहीं रहने पर वह चाहे तो राघव की सहमति की स्थिति में इस घर में यथावत् रह सकती है अन्यथा कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र होगी। मेरी शेष समस्त चल-अचल संपत्ति व व्यवसाय का वारिस पुत्रतुल्य मेरा राघव होगा।'
 रघु के नाम संपत्ति की जानी तो अवश्यम्भावी थी ही, पर चन्दना पाँच लाख की धन-राशि उसे दिए जाने की बात जान कर रोती हुई बोली- ''बड़े सा'ब के उपकार पहले ही क्या कम थे जो जाते-जाते भी इतना कुछ दे गये। नहीं सा'ब, इस अभागन को तो थोड़ी और सेवा करने का मौका देते तो सुकून मिलता।''
 रघु ने ढाढ़स बंधाते हुए कहा- ''आया मौसी, अंकल और सन्दीप तो इस दुनिया में परोपकार के लिए ही आये थे, फ़रिश्ते थे वह दोनों! मुझको ही देखो न, एक अनाथ बच्चे को उन्होंने शरण दी और अपना सब-कुछ देकर चले गए। कुछ भी तो नहीं कर सका मैं उनके लिए। फिर तुम तो एक तरह से उनके परिवार का ही हिस्सा थीं।'' रघु की आँखों से भी झर-झर अश्रु बह रहे थे।
  निकट ही बैठी उसकी पत्नी, रोहिणी गुम-सुम  शून्य में ताक रही थी। स्थिति से अनजान दोनों बच्चे, नन्हे भाई-बहिन यूँ ही कुछ बतिया रहे थे। अपने अश्रु व चन्दना के रुदन का आवेग कम होने पर रघु ने पूछा- ''आया मौसी, अब तुम क्या सोचती हो? कहीं और जाना चाहोगी या हमारे साथ यहीं रहोगी?''
  ''सा'ब, सारी ज़िन्दगी तो इसी घर में गुज़री है। अब जैसे भी आप और मेम सा'ब बोलेंगे मैं तैयार हूँ। जाने को कहेंगे तो अपने कपड़ों की पोटली उठा कर चल दूंगी।''-  स्थिर, किन्तु करुण स्वर में चन्दना ने उत्तर दिया।
''यह क्या कहती हो आया मौसी? मैं तो अंकल की वसीयत के अनुसार तुम्हारी इच्छा जानना चाहता था। तुम यहाँ वैसे ही रह सकती हो जैसे अब तक रहती थीं, यह घर अब भी तुम्हारा है।...और यह क्या अचानक सा'ब, मेम सा'ब! मैं तो तुम्हारा वही रघु हूँ और तुम वही हमारी आया मौसी!''- रघु ने सरलतापूर्वक कहा।
 भाव-विह्वल हो चन्दना ने रघु का माथा चूम लिया। उसे रघु में राय साहब ही नज़र आ रहे थे।
''अब क्या चाय भी नहीं पिलाओगी?''
 रघु का कथन सुन कर उसकी ओर स्निग्ध दृष्टि से देखा चन्दना ने और चाय बनाने किचन की ओर चली गई।
अगले ही दिन रघु ने चन्दना के बैंक-खाते में पाँच लाख रुपये जमा करा पास बुक उसे सौंप दी।

 .....तन्द्रा टूटी, रघु वर्तमान में लौट आया। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी आँखों से आँसू निकले और कब सूख गए। अब भी वह कभी-कभी यहाँ आकर कुछ देर बैठा करता था। यही वह जगह थी जहाँ से उसका सन्दीप उससे हमेशा के लिए दूर चला गया था।
   मन बोझिल हो गया था, उसे लगा जैसे कई मन का वज़न उसके शरीर पर लदा हुआ है। रात गहराने लगी थी....उसे अभी बाल सदन जाना है। कल राय साहब की बरसी है, बाल सदन के बच्चों के विशेष भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में सदन के मेनेजर द्वारा की गई तैयारी का जायजा लेना है।
  क्षोभ भरी निगाह समुद्र की ओर डाली रघु ने और दिल में राय साहब और सन्दीप की यादों का तूफ़ान समेटे धीमे क़दमों से सड़क किनारे खड़ी अपनी कार की ओर बढ़ गया।

  रघु ने यद्यपि सदन के मैनेजर से राय साहब की बरसी पर रखे गए कार्यक्रम के सम्बन्ध में फोन पर पहले ही बात कर ली थी, किन्तु बाल सदन में स्वयं जा कर व्यवस्था के सम्बन्ध में वह पूरी तरह आश्वस्त होना चाहता था, क्योंकि इस अवसर पर किसी भी प्रकार की गफलत वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। सदन के कार्यालय में पहुँच कर उसने मैनेजर को व्यक्तिशः आवश्यक निर्देश दिये और तब घर के लिए रवाना हुआ। घर पहुँचा तब तक रात के साढ़े नौ बज चुके थे। दोनों बच्चे पढाई कर रहे थे और रोहिणी भोजन के लिए रघु की प्रतीक्षा करते हुए एक साप्ताहिक पत्रिका के पन्ने उलट रही थी।  
‘‘सॉरी रोहिणी, मुझे बहुत देर हो गई, तुमने  डिनर कर लिया या नहीं?”
“तुम तो जानते हो राघव, मुझे अकेले खाना खाने की आदत नहीं है। बच्चों को खिला दिया है। अब तुम जल्दी से हाथ-वाथ धो कर आ जाओ।”
   रघु ने अपने कपड़े बदले और तैयार होकर डाइनिंग टेबल पर पहुँचा। खाना खाकर कुछ देर नींद आने तक टीवी पर अपनी पसंद का चैनल ‘डिस्कवरी’ देखता रहा और अगले दिन के अपने कामों के विषय में मन ही मन मंथन करता रहा। काम बहुत बढ़ गया था और स्टाफ अब कम पड़ने लगा था, इसी विषय पर सोचते-सोचते उसकी आँखें नींद से बोझिल होने लगीं। उसने टीवी बंद किया और बैड रूम की तरफ बढ़ गया। बच्चे पहले ही सोने के लिए अपने कमरे में चले गए थे। उसने देखा,रोहिणी की भी आँख लग गई थी।
   रघु ने प्यार भरी नज़र से उसे देखा, निद्रा-मग्न वह बहुत मासूम लग रही थी। उसके मन में रोहिणी के प्रति करुणा उपज आई, काम की व्यस्तता के चलते वह उसे ठीक से समय भी नहीं दे पा रहा था। मन ही मन कुछ निश्चय कर वह बिस्तर पर लेट गया।  
 
   अगले दिन रघु राय साहब की बरसी के कारण दिनभर व्यस्त रहा। बाल सदन में कार्यक्रम से निवृत होने के बाद वह अपने ऑफिस पंहुचा। उसके निर्देशानुसार उसका निजी सहायक प्रतीक्षा करता मिला। कुछ ऑर्डर्स के सम्बन्ध में उसने स्टेनोग्राफर को कुछ नोट्स लिखाये और फिर निजी सहायक को अपने कक्ष में बुलाया।
 “रूपेश जी, मैंने महसूस किया है कि मैनेजर साहब पर काम का बोझ इन दिनों कुछ ज़्यादा ही हो गया है और इस कारण ऑफिस के कामों के निष्पादन में कुछ शिथिलता आ रही है। अतः आप कल ऑफिस आते ही एक सहायक मैनेजर व एक क्लर्क की नियुक्ति के लिए विज्ञापन तैयार करवा के शहर के दोनों प्रमुख अख़बारों में भिजवा दो।”
 “जी हाँ।”- रूपेश ने सिर हिला कर कहा और अनुमति ले कर कक्ष से चला गया।
रघु कुछ देर ऑफिस में बैठा रहा, पांच-सात आवश्यक फाइल्स का निरीक्षण किया, कुछ कागज़ात पर अपने हस्ताक्षर किये और फिर चौकीदार को सूचित कर ऑफिस से निकल गया।

  आज विज्ञापित की गई नियुक्तियों के सिलसिले में सुबह 11 बजे इंटरव्यू होना था। रघु ठीक दस बजे ऑफिस पहुँच गया। अपने कक्ष में जा कर वह बैठा ही था कि दस ही मिनट में  चपरासी ने भीतर आकर सूचित किया कि ‘वैभव इंजीनियरिंग वर्क्स’ के मालिक मिलना चाहते हैं।
‘वैभव इंजीनियरिंग वर्क्स’ अभी छह माह पूर्व ही अस्तित्व में आई नई फर्म थी व उससे छुट-पुट व्यावसायिक सम्बन्ध भी हो गया था अतः रघु सामान्य रूप से इसके मालिक रामेश्वर अग्निहोत्री से परिचित था।
“आइये रामेश्वर जी!”- रघु ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। रामेश्वर प्रत्युत्तर में नमस्कार कर सामने कुर्सी पर बैठ गए।
 “कैसे तशरीफ़ लाना हुआ?”- औपचारिक बातचीत के बाद रघु ने पूछा।
 “आपकी मदद करने आया हूँ। आपने सहायक मैनेजर की वैकेन्सी निकाली है सो आपके लिए एक योग्य कैंडिडेट लाया हूँ।”- रामेश्वर ने बेतकल्लुफी से मुस्करा कर जवाब दिया।
 रघु ने एकबारगी ध्यान से रामेश्वर की ओर देखा और फिर मुस्कराते हुए कहा- “आप लाये हैं तो सही कैंडिडेट ही होगा। बुलवाइए उसे, पहले उससे ही बात कर देखते हैं।”
 रामेश्वर ने रघु को बताया कि उसके साथ आया उम्मीदवार कार में ही बैठा हुआ है। रघु ने चपरासी को भेज कर उसे भीतर बुलवा लिया। सर्वप्रथम नाम पूछने पर उसने अपना नाम गिरीश कुमार बताया। इंटरव्यू के अन्तर्गत आवश्यक पूछताछ के बाद गिरीश को स्वागत-कक्ष में भेज दिया गया। उसके जाने के बाद रामेश्वर ने गिरीश की बातों की तसदीक करते हुए रघु को बताया कि गिरीश को उनके एक मित्र ने कई वर्ष पूर्व उनके पास भेजा था। वैभव इंजीनियरिंग के पहले उनका एक छोटा-सा अन्य व्यवसाय था जिसमें उन्होंने गिरीश को काम पर रख लिया था। गिरीश ने MBA किया है और उनकी इंजीनियरिंग फर्म में उसकी अधिक उपयोगिता नहीं है। उसकी सेवाएँ रघु की फर्म में अधिक उपयोगी रहेंगी अतः उसे यहाँ लाये हैं। यह सब बता कर रामेश्वर गिरीश के पास चले गये।
 रघु ने उसके ऑफिस में आये अन्य उम्मीदवारों के भी इंटरव्यू लिए। इस प्रक्रिया व कुछ मनन के बाद रघु इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सम्भवतः सहायक मैनेजर के रूप में तो गिरीश ही उसकी फर्म के लिए सबसे अधिक उपयुक्त व्यक्ति है।
उसने रामेश्वर को वापस बुला कर मुस्कराते हुए कहा- "रामेश्वर जी, आपके द्वारा लाया गया कैंडिडेट मुझे ठीक लग रहा है। गिरीश का नियुक्ति-पत्र कल तक आपके ऑफिस में पहुंच जायेगा। वह जब चाहे, एक सप्ताह के भीतर ज्वाइन कर सकता है।"
रामेश्वर रघु को धन्यवाद देकर गिरीश के साथ वहाँ से निकल गये। एक अन्य व्यक्ति को रघु ने क्लर्क के पद पर नियुक्त कर लिया।
 तीसरे दिन ही, बुधवार को गिरीश ने रघु के ऑफिस में आकर नम्रतापूर्वक रघु का अभिवादन कर अपनी जॉयनिंग दे दी।

अध्याय (5)
  
  गिरीश को काम करते हुए लगभग एक माह हो गया था। अब रघु के पास स्टाफ पूरा था और काम ने अच्छी गति पकड़ ली थी। रघु गिरीश के काम से संतुष्ट था और कभी-कभी उसके मुँह पर उसकी तारीफ भी कर देता था।
 फर्म के साथ ही रघु का पारिवारिक जीवन भी अब अधिक बेहतर हो गया था, वह अब परिवार को अधिक समय देने लगा था। बच्चों को स्कूल लाने, ले जाने के लिए स्कूल का ऑटो आता था, लेकिन अब कभी-कभार रघु ही बच्चों को लेने स्कूल भी चला जाता। फर्म का काम बढ़ गया था, लेकिन रघु की व्यस्तता कम हो गई थी क्योंकि मैनेजर के साथ गिरीश का अच्छा तालमेल हो जाने से रघु स्वयं को अब अतिरिक्त रूप से ऑफिस में नहीं बैठना पड़ता था। दो माह बाद प्रयास कर के सभी औपचारिकताएँ पूरी कर रघु ने फर्म को प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में तब्दील करवा लिया। फर्म 'आकांक्षा एंटरप्राइज़ेज़' का नाम बदल कर अब 'आकांक्षा एंटरप्राइज़ेज़ प्राइवेट लिमिटेड' का बोर्ड व्यवसाय-स्थल के बाहर लगा दिया गया। रघु ने ख़ुशी के इस मौके पर स्टाफ के लिए एक छोटी-सी पार्टी भी रखी। स्टाफ के सभी सदस्य खुश थे।
समय और निकला और देखते ही देखते राय साहब की दूसरी बरसी का समय आ गया। बरसी के एक दिन पहले रघु ने गिरीश को अपने कक्ष में बुला कर बच्चों के विशेष भोजन का मेन्यू तैयार कर के दिया और कार्यक्रम की कुछ ज़िम्मेदारी अपने लिए छोड़ कर बच्चों के भोजन का दायित्व उसे सौंप दिया। गिरीश कम ही बोलता था, स्वीकार करने की मुद्रा में उसने अपना सिर हिला दिया।
 गिरीश सुबह से ही बाल सदन में था, अतः रघु अपने मैनेजर व निजी सहायक के साथ कार्यक्रम शुरू होने के ठीक पहले  दोपहर बारह बजे बाल सदन पहुँचा। चयनित मेहमानों में वैभव इंजीनियरिंग वर्क्स के रामेश्वर विशेष आमंत्रित मेहमान थे। संक्षिप्त कार्यक्रम के बाद सब मेहमानों को भोजन-कक्ष में बुलाया गया। सभी ने बच्चों के साथ ही भोजन किया। भोजन की सामग्री में निर्धारित मेन्यू से पृथक एक मिठाई देख कर रघु चौंका, उसकी भौहें कुछ खिंच आईं, किन्तु मेहमानों की मौज़ूदगी के कारण वह खामोश रहा। बिना उसकी अनुमति के किसी भी प्रकार का परिवर्तन उसके लिए स्वीकार्य नहीं था।
 मेहमानों के जाने के बाद कुछ समय के लिए रामेश्वर वहीं ठहर गए थे। बाल सदन के स्वागत कक्ष में अब छः व्यक्ति ही बैठे थे- स्वयं रघु, फर्म का मैनेजर, निजी सचिव रूपेश, बाल-सदन का मैनेजर, गिरीश व रामेश्वर अग्निहोत्री। रघु राय साहब की बरसी के मामले में कुछ अधिक ही संवेदनशील था और मेन्यू में परिवर्तन उसे नागवार गुज़रा था। वैसे भी अनुशासन के मामले में वह सख्त था। उसने गिरीश से कुछ सख्ती से पूछा कि किसकी अनुमति से उसने मिठाई के एक आइटम को बदल दिया था।
गिरीश हतप्रभ था, नहीं जानता था कि रघु इस छोटी सी बात को इतनी गम्भीरता से लेगा। सबके सामने इस तरह प्रताड़ित किये जाने से वह दुखी था, 'सॉरी सर' कह कर उसने अपना सिर झुका लिया और जाहिर किया कि मेन्यू की एक मिठाई उपलब्ध नहीं होने से उसे यह परिवर्तन करना पड़ा था।
"लेकिन आपको पहले मुझसे पूछना चाहिए था। आगे से ध्यान रहे मिस्टर गिरीश, ऐसी गफलत फिर न हो।"- चेतावनी के स्वर में रघु बोला।
सभी लोग खामोश थे, वातावरण कुछ बोझिल हो गया था। रामेश्वर भी कुछ खिन्न नज़र आये व 'नमस्कार' कह कर बाहर निकल गये।
रघु का मन पुनः ऑफिस जाने का नहीं हुआ, गुस्से में गिरीश के प्रति अच्छा व्यवहार न करने का दुःख भी था सो सीधा घर ही चला गया। रोहिणी ने जल्दी आने का कारण पूछा तो सिर-दर्द होना बता कर बैड रूम की तरफ जाते हुए हिदायत देता गया कि दो घंटे तक उसे कोई जगाये नहीं। बिस्तर पर लेटने के काफी देर बाद उसे नींद आई।
 घंटाभर ही हुआ होगा कि उसका मोबाइल फोन घनघना उठा। तुरन्त ही उसने फोन बंद कर दिया। एक मिनट बाद ही फिर कॉल आया। 'कौन कम्बख्त है'- बड़बड़ाते हुए उसने फोन उठा कर देखा, रामेश्वर का कॉल था। ज़रूर आज वाले वाक़ये के बारे में ही कुछ कहना चाहता होगा, उसने कॉल रिसीव की।
"हेलो, रामेश्वर बोल रहा हूँ। कुछ ज़रूरी बात करनी थी, अभी आपके ऑफिस आ सकता हूँ?"- उधर से आवाज़ आई।
"मैं अपने घर पर हूँ अभी। ऐसा करिये, घर ही आ जाइये।"- रघु ने जवाब दिया।
"आप डिस्टर्ब तो नहीं होंगे?"
"अरे नहीं-नहीं, आप आ जाइये।"
 लगभग बीस मिनट में रामेश्वर रघु के घर पहुँच चुके थे। रघु ने औपचारिक अभिवादन के बाद पूछा- "क्या लेना पसंद करेंगे आप, कॉफी या कुछ ठंडा?"
"नहीं, कुछ भी नहीं। आप तकलीफ न करें।"
"तकलीफ की कोई बात नहीं, कॉफी ही बनवा लेते हैं, मेरा भी कॉफी का समय होने आया है।"- रघु ने चन्दना को आवाज़ लगा कर दो कॉफी बनाने को कहा। कॉफी ख़त्म करने के बाद रघु ने रामेश्वर से उसके आने का सबब पूछा।
"दरअसल राघव साहब, मैं अब खामोश नहीं रह सकता। जो रहस्य गुप्त रखने के लिए मुझे सौगन्ध दी गई थी, उसका बोझ मैं सहन नहीं कर पा रहा हूँ।"
रामेश्वर के चेहरे पर खिंची उलझन की रेखाएँ रघु को स्पष्ट दिखाई दे रही थीं, बोला- "बताइये रामेश्वर जी, क्या बात है? क्या दुविधा है आपके मन में?"
कुछ पल खामोश रहने के बाद रामेश्वर ने कहना शुरू किया- "आज आपने गिरीश को फटकारा तो उससे अधिक मैं आहत हुआ। वह तो धरती पर पैदा हुआ एक फरिश्ता है। आप नहीं जानते, वह कौन है! जिस फर्म के आप कानूनन मालिक हैं, वह उसका पैदाइशी मालिक है। हाँ राघव बाबू , वह आपका बचपन का दोस्त सन्दीप है। उसने...।"
"ठहरिये रामेश्वर जी, क्या कह रहे हैं आप? सन्दीप का तो देहान्त हो गया था, समुद्र में डूब गया था वह।... और उसे क्या मैं पहचानूँगा नहीं, भले ही उस घटना को वर्षों हो चुके हैं। काश! जो कुछ आप कह रहे हैं वह सम्भव होता!"- रघु ने रामेश्वर की बात काटते हुए कहा, उसके चेहरे पर दर्द उभर आया था।
"ऐसा ही हुआ है राघव साहब! कुदरत का खेल बहुत निराला है। मैं आपको पूरा किस्सा बताता हूँ। करीब पच्चीस साल पहले की बात होगी यह। मैं अपने एक डॉक्टर मित्र के वहाँ किसी फंक्शन में गया था। बातों-बातों में उन्होंने मुझे बताया कि उस दिन सुबह ही कोई उनके घर के लॉन में एक बेहोश लड़के को छोड़ गया था और उसके साथ एक कागज़ भी था जिसमें लिखा था- 'मैं एक मछुआरा हूँ। यह लड़का मुझे समन्दर के किनारे बेहोश पड़ा मिला था। पुलिस के चक्कर में में नहीं पड़ना चाहता इसलिए इसे यहाँ छोड़ कर जा रहा हूँ। बचा सकें तो इस लड़के को बचा लेना।'
 बात करते-करते ही वह मुझे अपने इनडोर वॉर्ड में ले गये। वहां एक बैड पर एक बुरी तरह से घायल लड़का सुलाया हुआ था। उसे दिखा कर वह बोले- 'यही वह लड़का है। अभी इसके पूरे चेहरे पर पट्टी की जानी है। शायद समन्दर के किनारे की किसी चट्टान से यह बुरी तरह टकरा गया है।'
 मैंने देखा, वह इस कदर जख्मी था कि उसके माता-पिता भी उसे नहीं पहचान सकते थे। वह अभी भी बेहोश पड़ा था। डॉक्टर ने बताया कि वह उसे होश में लाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। यदि वह एक-दो दिन में होश में आ गया तो बच सकता है। उन्होंने बताया कि पुलिस को सारी घटना के बारे में वह बता चुके हैं और एस.पी. साहब ने सारा मामला थानेदार से दर्ज करवा के मुझे ताकीद किया है कि संभव हो तो मैं इसका उपचार करूँ अन्यथा सरकारी अस्पताल में भिजवा दूँ।
 मैंने डॉक्टर से कहा कि वह ही इलाज करें क्योंकि सरकारी अस्पताल में ढंग से इलाज नहीं होगा और यह लड़का मर जायगा। मैंने उसके इलाज का खर्च उठाने की पेशकश की तो डॉक्टर ने हँसते हुए कहा कि वह स्वयं सक्षम हैं उसका इलाज करने में। मैं एक दिन और रुका था वहाँ और तब तक वह घायल लड़का होश में आ गया था। डॉक्टर ने और मैंने भी उससे उसका परिचय पूछा तो वह कुछ भी नहीं बता सका, उसकी याददाश्त चली गई थी। आँखें, नाक व मुख-द्वार के आलावा उसके पूरे चेहरे पर पट्टी बाँधी गई थी। डॉक्टर के अनुसार उसके स्वास्थ्य को सामान्य होने में लगभग एक माह लगने की संभावना थी। मैं वहां से उस दिन तो लौट आया, लेकिन एक-सवा माह बाद वापस उसे देखने गया। डॉक्टर की मेहनत ने असर दिखाया था, अब वह काफी स्वस्थ था। वह स्वस्थ तो हो गया था लेकिन उसका चेहरा इतना बीभत्स हो चुका था कि उसे देखना, देखते रहना बहुत कठिन था।
मैंने डॉक्टर से आग्रहपूर्वक कहा कि वह इस युवक के इलाज के लिए बहुत कुछ कर चुके हैं, अब मुझे भी कुछ करने दें।  पुलिस को जानकारी दे कर वह उसे मेरे संरक्षण में दे दें। मैं उसके चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करवाऊँगा। डॉक्टर ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अंत में मैं उसे अपने घर ले आया। मैंने उसका गिरीश के नाम से नामकरण भी कर दिया।"
रघु ध्यान से रामेश्वर द्वारा कहे जा रहे एक-एक शब्द को सुन रहा था। कुछ क्षण रुक कर रामेश्वर ने अपनी बात आगे बढ़ाई- "मेरी उम्र गिरीश से कुछ दस-बारह वर्ष ही अधिक होगी। पैसा भी पूरा नहीं था प्लास्टिक सर्जरी के खर्चे के लिए। न जाने किस ईश्वरीय प्रेरणा से मैंने यह बीड़ा उठाया था कि मैं जी-जान से पैसा इकठ्ठा करने में जुट गया। अपने व्यवसाय को बढ़ाने में मैंने उसकी भी मदद ली। यद्यपि वह याददाश्त खो चुका था पर उसकी अपनी पढाई-लिखाई व बुद्धि सलामत थी। मैंने ज्ञानार्जन के लिए उसे आगे प्राइवेट पढ़ाया भी और तत्पश्चात MBA भी करवा दिया। हमने व्यवसाय में इतनी मेहनत की कि दिन-रात एक कर दिये। तीन साल बाद मैं इस स्थिति में आया कि उसकी सर्जरी का खर्च वहन कर सकूँ। तो राघव साहब, अंत में गिरीश के चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी हो गई। उसने एक नया चेहरा पा लिया था, संभवतः पहले से बिल्कुल अलग। मैंने इसके चार-पाँच साल बाद उसकी शादी भी करवा दी। उसके एक लड़का भी है कुणाल, जो अब तेरह-चौदह साल का हो गया है और आठवीं में पढ़ता है। इस तरह गिरीश मेरे परिवार का ही एक हिस्सा बन गया। मेरे बेटे की अच्छी दोस्ती है कुणाल से। दोनों सगे भाई की तरह रहते हैं।"
"यह सब तो ठीक है, लेकिन यह कैसे पता चला कि वह सन्दीप ही है और यदि कोई प्रमाण आपको मिला भी है तो मेरे यहाँ गिरीश के रूप में नौकरी के लिए क्यों लाये आप?"- रघु यह सब-कुछ सुन कर ऐसा अनुभव कर रहा था जैसे कोई तिलिस्मी कहानी सुन रहा हो।
"राघव साहब, आपके यहाँ नौकरी के लिए आने के लगभग एक माह पहले उसका स्कूटर-एक्सीडेंट हो गया था और उसके सिर में चोट लगी थी। किसी फ़िल्मी कहानी की तरह ही गिरीश की याददाश्त लौट आई और समुद्र में बहने से पहले की सारी बातें उसे याद आ गईं। उसका घर, उसके पिता और आप भी, सब-कुछ उसे याद हो आया। उसने बताया कि आपको समुद्र की लहरें किनारे पर छोड़ गई थीं और बाद में उसे खींच ले गई थीं। समुद्र में दूर तक जाने के बाद क्या हुआ, उसे कुछ नहीं मालूम, क्योंकि वह बेहोश हो गया था।
 स्कूटर-एक्सीडेंट के बाद जब उसकी याददाश्त लौटी तो वह एक बार आपके घर तक आया। आस-पास पूछताछ करने पर उसे 'सन्दीप निराश्रित बाल सदन' की जानकारी भी मिली। वह वहाँ भी गया और वहाँ लगी हुई उसके पापा की और स्वयं की माला पहनी तस्वीर देखी। वह समझ गया कि उसके पापा अब नहीं रहे। आपसे मिलना और आपके निकट रहना अब उसका ध्येय हो गया था। उसने मुझसे आपकी फर्म में नौकरी दिलवाने में मदद का आग्रह किया और यह भी वचन लिया कि मैं उसकी हकीकत आपको नहीं बताऊँ।"
 "लेकिन मुझे क्यों नहीं बताना चाहता था वह अपनी हकीकत?" - रघु ने चकित हो कर पूछा। वह इस पूरी कहानी के प्रति अब भी आशंकित था, लेकिन कामना कर रहा था कि यह सब सच हो। सच होने की कल्पना मात्र से मन ही मन तीव्र प्रसन्नता की लहरें उसके हृदय में हिलोरें ले रही थीं।
"वह नहीं चाहता था राघव साहब, आपकी खुशियों में दख़ल देना। नहीं चाहता था वह कि इतने वर्षों से पटरी पर चल रही उसके दोस्त की ज़िन्दगी में कोई ख़लल पड़े। वह चाहता था तो केवल इतना कि वह आपके निकट रह सके और इसीलिए वह आपके यहाँ नौकरी करने का इच्छुक हुआ।
   आज जब उसे इस तरह अपमानित होते देखा तो उसको दिये हुए वचन को तोड़ने को विवश हो गया मैं। मैं जानता हूँ कि वह मुझे इसके लिए कभी माफ़ नहीं करेगा पर आज... आज मुझसे सहन नहीं हो सका राघव साहब!"
"सन्दीप अभी शायद ऑफिस में ही होगा। मैं अभी ही ऑफिस जाता हूँ।" -रघु ने कहा।
"जैसा आप ठीक समझें, मैं अब अपने घर चलता हूँ।"- रामेश्वर अभिवादन कर के निकल गये।
  ऑफिस जाने के लिए तैयार होते रघु का विचार अचानक बदला। वह गिरीश को 'सन्दीप' मान लेने से पहले पूरी तरह से संतुष्ट हो लेना चाहता था। उसने गिरीश को फोन लगाया- "हेलो गिरीश, थोड़ी देर के लिए घर आ जाओ, कुछ ज़रूरी काम है।"

अध्याय (6)

गिरीश पन्द्रह मिनट में घर पहुँच गया। गिरीश को रघु के ऑफिस में नौकरी करते एक वर्ष हो गया था, किन्तु यह पहला अवसर था जब रघु ने उसे घर बुलाया था। रघु ने नोटिस किया, वह इस तरह से घर में प्रवेश कर रहा था जैसे इस जगह से अच्छी तरह परचित हो।
दोनों ड्रॉइंग रूम में बैठे थे। रघु ने चन्दना को आवाज़ लगाई। जिस समय चन्दना आई, रघु की निगाहें गिरीश पर जमी हुई थीं। वह गिरीश के चेहरे व आँखों में आ कर बदल रहे भावों को स्पष्ट देख पा रहा था। रघु ने चन्दना को जूस लाने के लिए कहा। चन्दना के वहाँ से जाने के बाद गिरीश की नज़र उसकी दायीं और की दीवार पर टंगी राय साहब की तस्वीर पर पड़ी। गिरीश की आँखें अनायास ही आर्द्र हो आईं। रघु को अब विश्वास होने लगा था कि वह सन्दीप ही है।
रघु ने पूछा- "गिरीश! आप यूँ अचानक भावुक कैसे हो गये?"
गिरीश ने सम्हल कर जबरन मुस्कराने की कोशिश की- "नहीं तो सर, वैसे ही... आपके पापा की तस्वीर देख कर मुझे मेरे पापा याद आ गए। इनका देहान्त कब और कैसे हुआ था?"
"यह मेरे पापा नहीं हैं गिरीश, पर इन्हें पापा के समान ही माना है मैंने।"
रघु ने देखा, गिरीश के चेहरे पर कोई आश्चर्य या प्रश्नसूचक भाव नहीं थे, जैसे कि उसे ऐसे ही प्रत्युत्तर की आशा थी रघु से।... और गिरीश राय साहब की तस्वीर को ही निहारे जा रहा था।
  रघु से अब सब्र नहीं हो सका, उसने करुण स्वर में पुकारा- "सन्दीप!"
  गिरीश मानो आसमान से धरती पर गिरा हो, चौंक कर बोला- "आपने क्या बोला सर? कौन सन्दीप?"
  रघु गिरीश से लिपट गया। उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी- "संदीप तुमने ऐसा क्यों किया? अपनी ही फर्म में तुम अब तक नौकरी कर रहे थे! अपने रघु से इतनी दूरी कैसे बना ली तुमने?"
  "सर, आपको कुछ ग़लतफ़हमी हो रही है? किस सन्दीप की बात कर रहे हैं आप? मैं गिरीश हूँ सर!"
  "अब मुझसे छल न करो मित्र! मुझे रामेश्वर जी ने मुझे सब-कुछ बता दिया है।"
 सन्दीप समझ गया कि उसका रहस्य रघु से गुप्त नहीं रहा। उसने धीरे से स्वयं को रघु से पृथक कर पूछा- "रामेश्वर भाई ने कब बात की तुम से?"
   "वह कुछ देर पहले ही यहाँ से गये हैं।"
   चन्दना जूस टेबल पर रख कर चली गई। दोनों मित्र पुनः आलिंगनबद्ध हो गए, आँसुओं से मानो वह अब तक की अपने बीच की दूरी को पाट रहे थे।
  कुछ समय के भावातिरेक के बाद दोनों पृथक हुए, किन्तु जूस पीने में किसी की रूचि नहीं थी।
 रघु ने सन्दीप ने कातर शब्दों में कहा-  "आज के व्यवहार के लिए मुझे माफ़ कर दो सन्दीप! मैंने छोटी-सी बात के लिए तुम्हें भला-बुरा कहा।"
   सन्दीप रघु का हाथ अपने हाथ में लेकर स्नेहसिक्त स्वर में बोला- "नहीं रघु, अपना दिल छोटा न करो। तुम अपनी जगह सही थे। तुमसे अनुमति नहीं लेने की भूल मैंने भी तो की थी। दरअसल मेन्यू में दर्ज़ एक मिठाई उपलब्ध न होने से  मैंने दूसरी वह मिठाई मंगवा ली थी जो पापा को बहुत पसंद थी।... चलो रघु, अब शिकवे-शिकायत बन्द! हम दूसरी बातें करते हैं। मेरे बारे में तो शायद रामेश्वर भाई ने तुम्हें सब-कुछ बता ही दिया होगा। अब तुम अपने बारे में और जो कुछ मेरी अनुपस्थिति में गुज़रा है उसके बारे में बताओ। "
घंटे भर तक दोनों मित्र अपनी अब तक बीती बातें साझा करते रहे। रघु ने अंत में सन्दीप के दोनों हाथ पकड़ कर कहा- "सन्दीप, तुम वापस आ गए हो तो खुशियों का आसमान मेरी झोली में आ गया है। परम दयालु परमात्मा ने मुझ पर अतुलनीय उपकार किया है।" राय साहब की तस्वीर की ओर अश्रूपूरित नज़रों से देखते हुए रघु ने अपनी बात जारी रखी- "काश अंकल अभी ज़िंदा होते! काश! तुम्हारी याददाश्त चली नहीं गई होती तो तुम उनके ज़िंदा रहते लौट आते।"
   सन्दीप ने बोझिल, लेकिन संयत स्वरों में कहा- "भाग्य का लिखा कभी मिटता नहीं है रघु! पापा नहीं रहे, किन्तु जब तक वह ज़िन्दा रहे, तुममें मुझे देख कर वह खुश थे, इस बात से मेरा मन बहुत आश्वस्त है। तुमने उनके साथ मिल कर व्यवसाय को इतनी ऊँचाइयाँ दी कि अपनी फर्म आज एक छोटी-मोटी कम्पनी बन गई है। उनकी कल्पना को तुमने ही साकार किया है रघु! मैं तुम्हारा यह अहसान कभी नहीं भूल सकता।"
रघु रो पड़ा- "मुझे इतना लज्जित न करो मित्र, मैं आज जो अच्छी और सफल ज़िन्दगी जी रहा हूँ, वह केवल और केवल तुम्हारे कारण सम्भव हुआ है। सड़क के एक लड़के को तुमने अपने गले लगा कर उसकी तकदीर ही बदल दी। तुम इस धरती पर मेरे लिए फरिश्ता...।"
   सन्दीप ने रघु के होठों पर अपनी उंगली रख कर एक बार फिर उसे गले लगा लिया।
  बातों का पिटारा हल्का हुआ तो रघु ने सर्वप्रथम चन्दना को बुलाया।
 "मौसी, इन्हें पहचानती हो?"
  चन्दना ने अपना चश्मा ठीक करते हुए ध्यान से सन्दीप को देखा और बोली- "नहीं सा'ब, मैंने तो इन्हें पहले कभी नहीं देखा।"
"मौसी, तो आज देख लो"- फिर मुस्कराते हुए पुनः कहा- "यह अपना सन्दीप है।"
  चन्दना खामोश रही और मुस्करा रहे सन्दीप को भौंचक-सी अविश्वसनीय भाव से देखने लगी तो रघु ने संक्षेप में उसे सारी बात बताई। चन्दना सुबक-सुबक कर रोने लगी- "उफ़ छोटे मालिक, किस्मत ने कितना छलावा किया हमसे!" फिर भावातिरेक में आगे बढ़ कर सन्दीप के पावों में गिर पड़ी।
 'अरे-अरे मौसी! यह क्या कर रही हो?- कहते हुए सन्दीप ने उसे अपने गले लगा लिया। चन्दना की आँखों में आँसू रह-रह कर छलछला रहे थे।
 रघु ने अपनी पत्नी व बच्चों को बुलवाया और उन्हें भी सन्दीप से मिलवाया। बच्चों ने मम्मी-पापा से सन्दीप के बारे में काफी-कुछ सुन रखा था। उन्होंने सन्दीप को प्रणाम कर चरण छूए। सन्दीप ने उनके सिर को प्यार से सहलाया।
 रोहिणी सन्दीप को देख कर गदगद थी, उसकी आँखें भी नम हो आई थीं। उसने भी आगे बढ़ कर सन्दीप के पाँव छूए। सन्दीप ने पीछे हटते हुए कहा- "रोहिणी, ऐसा न करो। मैं उम्र में रघु के बराबर ही हूँ, उससे मात्र छः माह बड़ा हूँ।"
  "तो क्या हुआ भाई साहब, मेरे हृदय में आपके प्रति बहुत सम्मान है। हमारा परम सौभाग्य है कि आप जीवित हैं और अब पुनः इस परिवार का हिस्सा भी।"- विनम्रता पूर्वक रोहिणी बोली।
   सन्दीप ने स्नेहिल मुस्कराहट के साथ रोहिणी को देखा, बोला- "हाँ रोहिणी! मेरा नया जीवन तो वस्तुतः आज तुम सब से मिलने के बाद ही शुरू हुआ है। रघु मेरा अच्छा और एक मात्र दोस्त है। मैं अभी एक साल से रघु के सम्पर्क में रहा हूँ पर उसका 'सन्दीप' तो आज ही बन सका हूँ।"
  एक बार फिर सभी की आँखें छलछला आईं।
  चन्दना यूँ ही अनछुए पड़े जूस के गिलास उठा कर ले गई और एक बार फिर सब के लिए ताज़ा जूस ले आई। जूस पीते हुए अब सब लोग सहज भाव से बातचीत कर रहे थे।
   सांझ हो गई थी। रघु ने कहा- "चलो सन्दीप, भाभी और कुणाल को घर ले आते हैं।"
"हाँ-हाँ, चलते हैं रघु, पर मैं उन्हें लेकर बाद में आऊँगा। रामेश्वर भाई का उपकार मैं जीते-जी नहीं भुला सकता। एकदम उनका घर छोड़ कर चले आना, हमारे और उनके, दोनों के लिए सहज नहीं होगा।"- सन्दीप ने गम्भीरतापूर्वक कहा।
 "हाँ सन्दीप! उन्होंने तुम्हारे प्रति ही नहीं, मेरे प्रति भी बहुत उपकार किया है तुम्हारी शुश्रूषा कर, तुम्हें मुझ से मिला कर। मेरे हृदय में उनके प्रति बहुत सम्मान है।"
  
  आधे घंटे के भीतर रघु और रोहिणी सन्दीप के साथ रामेश्वर के घर पर थे। आज सबके मध्य अभिवादन एक परम्परा नहीं थी, पारस्परिक आत्मीयता का प्रवाह था। त्याग और तपस्या की दैदीप्यमान आभा से उनके तन-मन आलोकित थे। अनजाने रिश्तों में बंधे हुए वह तीनों परिवार एक-दूसरे के सान्निध्य में अलौकिक प्रसन्नता अनुभव कर रहे थे। परिचय के बाद रोहिणी सन्दीप की पत्नी मनीषा के साथ इस तरह आलिंगनबद्ध थी मानो दो बहनें वर्षों बाद एक-दूसरे से मिली हों। दोनों की आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो एक-दूसरे के तन-मन को भिगो रही थी। इस सब के अलावा वहाँ मौन व्याप्त था।
   "रामेश्वर जी, आपने सन्दीप पर ही उपकार नहीं किया, हमारे पूरे परिवार को नया संसार दिया है, हमारे जीवन को अर्थ दिया है। हम आपके सदैव ऋणी रहेंगे।"- रघु ने मौन तोड़ा।
   अपनी आँखों में छलक आये अश्रु पोंछते हुए रामेश्वर बोले- "मैंने कुछ नहीं किया राघव साहब, जो कुछ होता है, ईश्वर ही कराता है।"
  रघु ने जब रामेश्वर से सन्दीप के परिवार को साथ ले जाने की इज़ाज़त मांगी तो रामेश्वर ने भीगे स्वरों में कहा- "सन्दीप का परिवार अब तक हमारे परिवार का हिस्सा रहा है राघव साहब! मुझे मालूम है, मैं इन्हें चाह कर भी रोक न पाऊँगा, अतः रोकने का आडम्बर भी नहीं करूँगा। बस इतना अनुरोध अवश्य करूँगा कि अभी दो-तीन दिन इन्हें हमारे साथ रहने दें ताकि हम इन्हें विदा करने में सहज हो सकें।"
  सन्दीप ने भी इसमें अपनी सहमति व्यक्त की। रघु ने देखा, रामेश्वर की पत्नी की आँखों में भी आँसू थे।
 दो दिन बाद सन्दीप को लेने आने का कह कर रघु और रोहिणी घर लौट आये।
  अगले दिन सन्दीप जब कम्पनी के ऑफिस में पहुँचा तो पाया कि राघव वाली कुर्सी खाली पड़ी थी और रघु सामने की ओर रखी कुर्सियों में से एक पर बैठा हुआ ऑफिस का कुछ काम निपटा रहा था।
  "राघव, तुम यहाँ कैसे बैठे हो? अपनी चेयर पर जाओ।"- रघु के समीप कुर्सी पर बैठते हुए सन्दीप बोला।
 "नहीं सन्दीप, अब उस चेयर का वास्तविक स्वामी आ गया है। अब वहाँ तुम बैठोगे।... और हाँ, अब यह भी तुम्हें ही सम्हालना है।"- यह कह कर रघु ने अपने बैग से एक लिफाफा निकाल कर सन्दीप के हाथों पर रखा।
  सन्दीप ने लिफाफा खोलकर कर उसमें रखे कागज़ों को देखा, यह राय साहब के द्वारा रघु के नाम की गई वसीयत के दस्तावेज़ थे। सन्दीप ने कातर दृष्टि से रघु की आँखों में देखा।
  "जब से मेरी स्मरण-शक्ति लौटी है रघु, मैं बहुत रोया हूँ। पापा को तस्वीर में देख कर, तुम्हें स्मरण कर, आईने में अपना चेहरा देख कर और... और भाग्य के द्वारा किये गए खिलवाड़ पर, बहुत आँसू बहाये हैं मैंने। अब, जब मेरे हँसने का, खुश होने का अवसर आया है, तो अब तो मुझे मत रुला मेरे दोस्त!"- रघु का हाथ पकड़ उसे कुर्सी से लगभग खींचते हुए करुण स्वर में सन्दीप ने कहा।
 रघु कुर्सी से उठा और सन्दीप को अपने गले से लगा लिया- "नहीं सन्दीप, अब तुम्हारे चेहरे पर गम की कोई लकीर नहीं आने दूँगा मैं। तुम पर आने वाली वाली हर विपदा को मुझ से हो कर गुज़रना होगा।"
  रघु ने चपरासी को बुला कर अपनी कुर्सी जैसी ही एक और रिवॉल्विंग कुर्सी स्टोर से मंगवा कर रखवाई व दोनों मित्र मुस्करा कर  बैठ गए।
  दूसरे दिन रघु सन्दीप के परिवार को घर ले आया।
  एक सप्ताह के भीतर सन्दीप और रघु ने मिल कर आपसी समझौते से राय साहब की कारोबार सहित समस्त सम्पत्ति के समान हक़दार होने का दस्तावेज़ तैयार करवा के उसे रजिस्टर करवाया।
  उसी सप्ताह एक और निर्णय भी लिया गया और उसके अन्तर्गत रघु और संदीप के कक्ष में एक और रिवॉल्विंग चेयर रखवा दी गई।
   अगले दिन कम्पनी के मैनेजर व कर्मचारियों ने देखा, राघव के कक्ष में कम्पनी के दोनों डायरेक्टर्स, राघव व सन्दीप के अलावा एक और डायरेक्टर, रामेश्वर अग्निहोत्री भी कम्पनी का काम देख रहे थे। (रामेश्वर को अपनी कम्पनी का तीसरा डायरेक्टर बनाने व उनकी फर्म ‘वैभव इंजीनियरिंग वर्क्स’ को अपनी कम्पनी की ही एक यूनिट के रूप में तब्दील करने की सहमति सन्दीप और रघु ने उनसे ले ली थी और रामेश्वर इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए थे।)

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                                                              समाप्त
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