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न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार करे !

    हमारे घर में घर के छुट-पुट काम में मदद के लिए एक मेड रखी हुई है। वह एक आदिवासी महिला है। इससे पहले कि दलितों का कोई तथाकथित मसीहा इस पर ऐतराज करे कि हमने एक दलित (ST-SC) वर्ग की महिला को सेवा में क्यों रखा है और यह कि यह तो उसका शोषण
हो रहा है, मैं शपथपूर्वक घोषणा करता हूँ कि हमने कोई विशिष्ट विज्ञप्ति इस आशय की नहीं निकाली थी कि काम के लिए हमें दलित वर्ग की ही महिला चाहिए। बस, वह काम मांगने आई और हमने उसे काम पर रख लिया। हम उसे दलित या सवर्ण के नज़रिए से परे एक अच्छी मददगार मानते हैं।
   कोई नेता (दलित या सवर्ण कोई भी, क्योंकि नेता दलित या सवर्ण नहीं होता, नेता केवल नेता होता है) यह भी कह सकता है कि दलित और पीड़ित वर्ग की होने के कारण उसे हम सवर्ण लोगों के यहाँ काम करना पड़ रहा है तो मैं बता दूं कि यह ही नहीं, इसके जैसी अन्य दलित महिलाएं कई दलित अधिकारियों / नेताओं के वहां भी काम करती हैं। यदि यह लोग काम नहीं करें तो इनका घर चलना मुश्किल हो जाएगा। दलितों की महानतम संरक्षक होने का दम भरने वाली अरबों की सम्पत्ति की मालकिन दलित नेता मायावती या अन्य समृद्ध दलित (समृद्ध हैं तो दलित कैसे हैं, यह प्रश्न किसी भी बुद्धिजीवी को दुविधा में अवश्य डाल सकता है) नेताओं / अधिकारियों में से कोई एक भी इन गरीबों की आर्थिक मदद नहीं करता, तो इन्हें तो मजदूरी करके अपना पेट पालना ही है न! किसी भी नेता की शाब्दिक सहानुभूति इनका पेट नहीं भर सकती।
    यहाँ एक प्रश्न और उभर कर आता है कि यदि दलित होने के कारण इन गरीब महिला / पुरुषों को मजदूरी करनी पड़ती है तो कई दलित, बड़े-बड़े अधिकारी क्यों हैं, बड़े-बड़े पेट वाले नेता क्यों हैं! ऐसा इसलिए है कि दलितों में से ही कुछ अवसरवादी और कुछ सुविधा जुगाड़ लेने वाले, तो कहीं कुछ स्वाभाविक प्रतिभाशाली लोगों ने अपने ही वर्ग में एक विशिष्ट पृथक स्थान हासिल कर लिया है। अब इनमे से ही कई लोग अपने ही वर्ग के गरीब लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। अपने ही भाइयों को आगे लाने का कोई प्रयास इनके द्वारा नहीं किया जाता।  हाँ, सवर्णों का हक़ छीन कर, अपने इस्तेमाल के बाद बची-खुची सरकारी मदद इन्हें भी दिलवाने की पैरवी अवश्य कर लेते हैं।
    दलित वर्ग के जो लोग समाज में अपने सवर्ण भाइयों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से रह रहे थे, उन्हें कुछ  नेताओं ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए बरगला कर कुछ दिन पूर्व सड़कों पर उतार कर हिंसक उपद्रव करने के लिए प्रेरित किया और सामाजिक समरसता और शांति को नष्ट-भृष्ट कर दिया। सवर्णों में से निर्दोषों को भी उत्पीड़ित करने की आकांक्षा पालने वाले दुर्बुद्धि नेताओं ने उच्चतम न्यायलय के न्यायोचित आदेश का मखौल बना कर रख दिया।
    दुखद स्थिति और भी यह बन रही है कि इन पथभ्रष्ट नेताओं की ब्लैकमेलिंग की शिकार सरकार जन-उपद्रव का हवाला देकर न्यायालय पर अनुचित दबाव बनाने की कोशिश कर रही है। कल को यदि सवर्णों का विशाल जनसमुदाय एकमत हो, लगभग समाप्त हो चुकी छुआछुत की घृणित प्रथा व जातिगत भेदभाव को पुनः प्रारंभ करने को कानूनी जामा पहनाने के लिए सड़कों पर उपद्रव कर सरकार को बाध्य करने का प्रयास करें तो क्या सरकार उनके अनुसार करवट बदल लेगी ? क्या सरकार का कोई राजधर्म नहीं होता ? अच्छा हो कि मनचाहे निर्णय करवाने के लिए अपने अनुकूल न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार खुद करे।
    समाचार पत्र से ली गई संलग्न उद्धरित ख़बर यही-कुछ बयां कर रही है।
    यह सब देखकर मैं स्वयं भी दिग्भ्रमित हो गया हूँ। चुनाव आने तक मैं अपने आक्रोश को जिंदा रखूँगा।
    इसके बाद क्या होगा? मैं (यानी कि एक आम आदमी ) चुनाव आने पर घंटों लाइन में खड़े रहने के बाद पार्टी 'A' या पार्टी 'B' में से किसी एक को या निर्दलीय 'C' को वोट दूंगा या नोटा को चुनूंगा। यदि 'A' जीतती है तो वह सत्ता के अहंकार में मनमाने काम करेगी, 'B' विपक्ष में होने से सत्ता-पक्ष के विरुद्ध मात्र विषवमन करने का दायित्व निभाएगी और 'C' कुछ चांदी के सिक्कों में अपने-आप को सत्ता-पक्ष को बेच चुका होगा। नोटा को चुनना भी निष्फल होगा। हर तरह से मेरे वोट की दुर्गति ही होगी। यदि अपने वोट का कोई उपयोग नहीं करता तो एक गैरजिम्मेदार नागरिक का तमगा मेरे सिर पर होगा।
  ..... देश को गर्त में ले जाने की मंशा रखने वाले नेता लोग मेरी इस विवशता को अच्छी तरह से समझते हैं।



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