प्राप्त जानकारियात के अनुसार पृथ्वी पर उपलब्ध जल-राशि में से पेयजल मात्र 1% है और उसमें से भी उपयोग करने योग्य आसानी से उपलब्ध जल मात्र 0.03% है। ऐसी दयनीय स्थिति से अवगत होते हुए भी हम बेपरवाह हैं। हम आने वाले समय की भयावहता को नहीं देख पा रहे हैं।
इंसान रिहायिशी बस्तियाँ बनाने के लिए
पागल हुआ जा रहा है। नगरीय विस्तार के लिए व भवनों के निर्माण के लिए पत्थर, संगमरमर, आदि की प्राप्ति हेतु निरन्तर पहाड़ों को काटा जा रहा है। जंगलों की बेतहाशा कटाई हो रही है। पहाड़ों और जंगलों के नष्ट होने से धरती की जल-संग्रहण क्षमता बद से बदतर होती जा रही है। निगरानी के लिए ज़िम्मेदार महकमों के अधिकारी व नेतागण, कुछ तो लापरवाहीवश तथा कुछ अपनी जेबें भरने की मुहिम के तहत आँखों पर पट्टी बांधकर बैठे हैं। अच्छी तरह से पेट भरने योग्य पारिश्रमिक तो सरकार से मिल जाता है पर अपनी निकम्मी औलादों हेतु इकठ्ठा करने के लिए अवैध रूप से जेब भरने का औचित्य समझ से परे है। जिन औलादों के लिए वह अनुचित धनार्जन कर रहे हैं, उस धन से अगली पीढ़ी पानी का इंतज़ाम नहीं कर सकेगी, इसका उन्हें कतई गुमान नहीं है।
प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर अधिक रिहायिशी ज़मीन हमें क्यों चाहिए, तो सीधा-सा जवाब इसका यह है कि इंसानी आबादी लगातार बढ़ रही है और उसके रहने के लिए जगह चाहिए। इस तथ्य को जनता भी जानती है और सरकार भी, लेकिन आबादी-नियंत्रण की तरफ किसी का भी ध्यान ही नहीं है। हमारे देश की अधिकांश जनता लाठी की भाषा ही समझती है, स्वानुशासन से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकार का दायित्व है कि वह जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कठोरतम क़ानून बनाए। व्यक्ति किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का हो, उसे दो से अधिक बच्चे पैदा करने की आज़ादी नहीं मिलनी चाहिए। शासन फौरी (हल्की) कार्यवाही से नहीं किया जा सकता, प्रभावी शासन के लिए कठोर अनुशासन और दूरदृष्टि चाहिए। हमारा कर्तव्य है कि हम भावी पीढ़ी के बारे में सोचें, उसे कंटकविहीन भविष्य दें।
इंसान रिहायिशी बस्तियाँ बनाने के लिए
पागल हुआ जा रहा है। नगरीय विस्तार के लिए व भवनों के निर्माण के लिए पत्थर, संगमरमर, आदि की प्राप्ति हेतु निरन्तर पहाड़ों को काटा जा रहा है। जंगलों की बेतहाशा कटाई हो रही है। पहाड़ों और जंगलों के नष्ट होने से धरती की जल-संग्रहण क्षमता बद से बदतर होती जा रही है। निगरानी के लिए ज़िम्मेदार महकमों के अधिकारी व नेतागण, कुछ तो लापरवाहीवश तथा कुछ अपनी जेबें भरने की मुहिम के तहत आँखों पर पट्टी बांधकर बैठे हैं। अच्छी तरह से पेट भरने योग्य पारिश्रमिक तो सरकार से मिल जाता है पर अपनी निकम्मी औलादों हेतु इकठ्ठा करने के लिए अवैध रूप से जेब भरने का औचित्य समझ से परे है। जिन औलादों के लिए वह अनुचित धनार्जन कर रहे हैं, उस धन से अगली पीढ़ी पानी का इंतज़ाम नहीं कर सकेगी, इसका उन्हें कतई गुमान नहीं है।
प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर अधिक रिहायिशी ज़मीन हमें क्यों चाहिए, तो सीधा-सा जवाब इसका यह है कि इंसानी आबादी लगातार बढ़ रही है और उसके रहने के लिए जगह चाहिए। इस तथ्य को जनता भी जानती है और सरकार भी, लेकिन आबादी-नियंत्रण की तरफ किसी का भी ध्यान ही नहीं है। हमारे देश की अधिकांश जनता लाठी की भाषा ही समझती है, स्वानुशासन से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकार का दायित्व है कि वह जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कठोरतम क़ानून बनाए। व्यक्ति किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का हो, उसे दो से अधिक बच्चे पैदा करने की आज़ादी नहीं मिलनी चाहिए। शासन फौरी (हल्की) कार्यवाही से नहीं किया जा सकता, प्रभावी शासन के लिए कठोर अनुशासन और दूरदृष्टि चाहिए। हमारा कर्तव्य है कि हम भावी पीढ़ी के बारे में सोचें, उसे कंटकविहीन भविष्य दें।
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