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डायरी के पन्नों से..."मेरे आँगन में धूप नहीं आती..."


     समर्पित है मेरी यह कविता, CRPF के उन वीर जवानों को जो पुलवामा (कश्मीर) में कुछ गद्दारों व आतंककारियों के कुचक्र की चपेट में आकर काल-कवलित हो गये, जो चले गए यह कसक लेकर कि काश, जाने से पहले दस गुना पापियों को ऊपर पहुँचा पाते!


                                                 

'मेरे आँगन में धूप नहीं आती...'

  

मेरे आँगन के छोटे-बड़े पौधे

जिन्हें लगाया है

पल्लवित किया है

मेरे परिवार ने,

बड़े जतन से,

जो दे रहे हैं

मुझे जीवन

चिन्ताविहीन हूँ

कि वह जी रहे हैं

मेरे लिए।

वह जी रहे हैं मेरे लिए,

पर उन्हें भी तो चाहिए

मेरा

प्यार,

दुलार

और संरक्षण।

मैं नहीं दे रहा

जो उन्हें चाहिए,

मुझे तो

बस उन्हीं से चाहिए,

अपेक्षा है

तो उन ही से।

अपनी पंगुता पर,

अपनी विवशता पर,

झुंझलाता हूँ जब,

तो

दोषी ठहराता हूँ

दूर गगन के

बादलों को।

हाँ,

दोषी हैं वह भी,

ढँक लेते हैं

सूरज को

और

नहीं मिल पाती

धूप,

मेरे आँगन के पौधों को।

कुम्हला जाते हैं

मेरे पौधे,

गिर जाते हैं कभी-कभी

सूख कर धरती पर।

नहीं देख पाता लेकिन,

नहीं सूझता मुझे

कि कटवा फैंकूँ

मेरे ही आँगन में

पल रही ,

पनप रही,

कँटीली झाड़ियों को,

फल-पुष्प विहीन पेड़ों को,

जो

धूप नहीं आने देते

मेरे पौधों पर।

गिराते हैं उन पर,

उन्हें नष्ट करने के लिए,

कभी काँटे,

तो कभी

भारी-भारी

टहनियाँ।

... और मैं

विवश हूँ

धृतराष्ट्र की तरह।

बस,

शिकायत करता हूँ-

'मेरे आँगन में धूप नहीं आती...

मेरे आँगन में धूप नहीं आती।'


         *****

    

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