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नज़रिया ( कहानी)

   प्रथमेश शनिवार को हाफ डे की ड्यूटी कर जैसे ही ऑफिस से घर आया, बेटे अनमोल व बेटी रुचिता ने मूवी देखने थिएटर जाने की फरमाइश कर दी। प्रथमेश ने समझाया कि कल रविवार है, कल चलेंगे, पर दोनों बच्चों ने ज़िद पकड़ ली कि नहीं, मूवी तो आज और अभी ही देखेंगे। गर्मी का मौसम था, अभी ढ़ाई बज रहे थे, बाहर धूप भी तेज थी पर बच्चों के आगे तो माता-पिता को झुकना ही पड़ता है सो आकांक्षा ने पति से आग्रह किया- "बच्चे कह रहे हैं तो मान जाओ न, 'रोज़ थिएटर' में मूवी भी अच्छी लगी है। अभी फर्स्ट शो में भीड़ भी कम होगी। मूवी देखने के बाद डिनर भी बाहर ही ले लेंगे।"

"अच्छा भई, जब सारी जनता की एक ही आवाज़ है तो अकेला यह बन्दा क्या कर सकता है! चलो, चलते हैं।"

थिएटर पहुँचे तो बला की भीड़ थी। तीन बज रहे थे, मूवी का समय हो चुका था। लाइन में लग कर टिकिट मिलना मुश्किल था, अतः आपस में विचार-विमर्श करने लगे कि शाम के शो में आ जायेंगे। लौटने लगे तो अनमोल उदास हो गया।

सब लोग लौटने वाले ही थे कि 'पान्सो में बालकनी , पान्सो में बालकनी...' -किसी ब्लेकिये की हाँक सुनाई दी। आकांक्षा ने सुझाव दिया कि जब आये हैं तो टिकिट ब्लैक में ही ले लेते हैं।

"पर पापा, वह ढ़ाई सौ की टिकिट के पाँच सौ मांग रहा है।"- रुचिता ने कुछ अरुचि दिखाई। एक तो लड़की थी, फिर अनमोल से तीन साल बड़ी थी तो कुछ समझदार तो होनी ही थी।

"कोई बात नहीं बेटा, जब टिकिट का जुगाड़ हो ही रहा है तो मूवी देख लेते हैं।"- प्रथमेश ने आकांक्षा के इरादे पर मुहर लगाईं। अनमोल का चेहरा खिल गया।

मूवी बस शुरू ही हुई थी। मूवी इतनी अच्छी थी कि अनमोल व रुचिता भी उसमें पूरी तरह से खो गए। इंटरवल में उन्होंने स्नेक्स और कोल्ड ड्रिन्क लिये। कोल्ड ड्रिन्क (थम्स अप) की कीमत मार्केट से डेढ़ गुनी चुकानी पड़ी तो एक बार फिर रुचिता को अच्छा नहीं लगा पर आकांक्षा ने समझाया कि यहाँ सिनेमा हॉल में कीमत ज्यादा ही लगती है।

मूवी छोटी थी, आधा घंटे पहले ही ख़त्म हो गई।

मूवी देख कर बाहर निकले तो बाहर अभी भी धूप थी। कार स्टार्ट कर प्रथमेश ने पूछा- "खाना किस रेस्तरां में लेना है।"

आकांक्षा ने यद्यपि घर से निकलते वक्त कहा था कि खाना बाहर ही लेंगे पर अब उसका इरादा बदल गया था, बोली- "घर ही चलते हैं। अपनी कॉलोनी के पास वाली सब्जी वाली से सब्जी ले चलेंगे और घर पर ही बना लूंगी खाना। वैसे भी अभी डिनर का समय तो हुआ नहीं है।"

प्रथमेश ने कार का रुख घर की ओर कर दिया। कॉलोनी के ठीक बाहर सड़क किनारे सब्जी वाली अभी भी बैठी हुई थी।


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   आकांक्षा ने गाड़ी रुकवाई। प्रथमेश कार में बैठा रहा और दोनों बच्चे आकांक्षा के साथ सब्जी वाली के पास पहुंचे। सब्जी वाली ने सब्जियों पर ढंकी छतरी को हटाई तो आकांक्षा ने सब्जियों के भाव पूछे। सब्जियों के जो भाव सब्जी वाली ने बताये, उन्हें सुन कर मुँह बिचका कर आकांक्षा ने कहा- "सभी सब्जियाँ इतनी महंगी बता रही है। बाजार में तो बहुत सस्ती मिलती हैं।"

   "भाभी जी, इतनी दूर से सब्जी ला कर यहाँ बेचती हूँ। फिर उसमें से कुछ सब्जियाँ तो शाम तक ख़राब भी होने लगती हैं। अब, बीस-तीस रुपये की सब्जी पर दो-तीन रुपये भी नहीं कमाऊंगी तो क्या बचेगा मेरे पास! आप तो अक्सर सब्जी लेते हो मुझसे, आपसे क्या ज्यादा पैसा लूंगी?"

  "अच्छा-अच्छा, ज्यादा बातें न बना। एक किलो भिन्डी, एक किलो परवल और आधा किलो टमाटर तोल दे।"

  सब्जी थैले में डालने के बाद आकांक्षा बोली- "अरे सब्जी के साथ धनिया-मिर्च तो डालती न थोड़ी-सी।"

  "हाँ-हाँ, भाभी जी लो न।" -और सब्जी वाली ने धनिया मिर्च भी थैले में डाल दी।

   आकांक्षा ने पैसे दिये तो सब्जी वाली ने कहा- "भाभी जी, कुल सत्तासी रुपये होते हैं और आपने मुझे अस्सी रुपये ही दिए हैं। सात नहीं, तो पाँच रुपये ही और दे दो। आपसे तो मैंने वाजिब भाव ही लगाया है।"

   कार की तरफ लौटती हुई आकांक्षा ने एक क्षण को पीछे मुड़ कर सब्जी वाली को हँसते हुए कहा- "ठीक ही तो दिये हैं पैसे। भाव भी कितना ज्यादा लगाया है तूने!

   सब्जी वाली अवाक् देख रही थी आकांक्षा को और आकांक्षा बच्चों के साथ कार में बैठ गई। प्रथमेश ने, जो यह सब देख रहा था, इतना ही कहा- "मूवी तो डबल पैसे देकर देखी है, इस गरीब के पैसे में कटौती क्यों की?"

  आकांक्षा ने कोई जवाब नहीं दिया।

   घर पर खाना बनने के बाद सबने खाना खाया और छत पर थोड़ा वॉक करने के बाद सोने चले गए।

  अनमोल रात से ही कुछ खामोश और अनमना-सा है, ऐसा लगा आकांक्षा को, सोचा होम वर्क का टेंशन होगा सो अगले दिन पास बैठ कर उसका होम वर्क करा दिया। रुचिता अपना होम वर्क खुद ही कर लेती थी।

  अगले चार दिन और तेज़ गर्मी पड़ी, लेकिन पाँचवें दिन सुबह से ही बादल छाने लगे और शाम से कुछ पहले बारिश होने लगी। आज ऐच्छिक अवकाश का दिन होने से प्रथमेश ने ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी। इतने दिनों की गर्मी के बाद आज मौसम सुहाना हो गया था। प्रथमेश ने चाय-पकौड़ों की फरमाइश की तो बच्चों ने उसका पुरजोर समर्थन किया। आकांक्षा मुस्कराते हुए किचन में गई और पकोड़ों के लिए सामान तैयार किया, फिर सहसा ध्यान आया कि चाय कैसे बनेगी, दूध तो सवेरे ही ख़तम हो गया था। दूध लेने जा रहे प्रथमेश ने बाहर की ओर झांका तो अभी भी बारिश हो रही थी। कॉलोनी के ठीक बाहर सामने की तरफ राजमंगल दूध डेयरी से दूध लाना था। दूरी इतनी नहीं थी कि कार निकाली जाय सो आकांक्षा से छतरी देने को कहा। 
  आकांक्षा छतरी लेने स्टोर रूम में गई। स्टोर में आलमारी में देखा तो छतरी वहां नहीं मिली। स्टोर रूम में और भी सभी जगह देखा पर छतरी कहीं नज़र नहीं आई। आनन-फानन में घर में सभी सम्भावित स्थानों पर देख लिया पर छतरी नहीं मिली। ज्यादा काम नहीं पड़ता था सो घर में छतरी एक ही थी। अब तो कार निकालने के सिवा कोई चारा ही नहीं था। सहसा प्रथमेश के दिमाग में एक उपाय सूझा। उसने डेयरी के मालिक हरीश जी को फ़ोन किया और बोला कि एक लीटर दूध घर पर भिजवाने का कष्ट करें। अच्छे व्यावहारिक स्वभाव के हरीश जी ने तत्परता से पांच-सात मिनट में दूध भिजवा दिया।

   दस मिनट बाद सब लोग बाहर बरामदे में बैठ कर बारिश के साथ चाय-पकोड़ों का लुत्फ़ ले रहे थे।

  अगले दिन और उसके बाद दो-तीन और दिनों तक आकांक्षा छतरी ढूँढती रही पर नहीं मिली सो नहीं मिली। इतने प्रयासों के बाद भी जब छतरी नहीं मिली तो आकांक्षा परेशान हो गई। छतरी कोई बड़ी चीज़ नहीं थी पर यूँ घर से चीज़ गायब हो जाना तो अच्छी बात नहीं, यह तो छतरी थी, कल को कोई कीमती चीज़ गायब हो गई तो?

  रात को डिनर के समय प्रथमेश के समक्ष चिंता जाहिर की- "आखिर छतरी गई कहाँ, मुझे तो राधा पर शक हो रहा है। वैसे तो वह सात माह से अपने यहाँ काम कर रही है, कभी किसी चीज़ के हाथ नहीं लगाया पर अभी आठ-दस दिन पहले मेरा हेयर क्लिप भी यूँ ही गायब हो गया था। कल साफ़ पूछूँगी उससे और नहीं तो हटा ही दूंगी काम से।"

  "अरे नहीं, ऐसा मत करना। काम वाली बाई आसानी से मिलती कहाँ है? इसे हटा दोगी और फिर काम की अधिकता से तुम टेंशन में आओगी। जाने दो छतरी नहीं मिल रही तो दूसरी ले आएंगे।"

  "नहीं जी, कोई मज़ाक की बात है क्या, यूँ घर से चीज़ गायब हो जाए! जो होगा सो देखा जायेगा, मैं तो कल ही उसकी छुट्टी कर दूंगी।

  "तुम्हारी मर्ज़ी।"- कह कर प्रथमेश खाना खाने लगा और डिनर पूरा होने के बाद ड्रॉइंग रूम में जा कर टी.वी. देखने में व्यस्त हो गया।

  रुचिता का भी खाना हो चुका था। वह अपनी जगह से उठ कर आकांक्षा के पास आई- "मम्मी, आपको एक बात बतानी है।" कह कर वह चुप हो गई।

 आकांक्षा ने प्रश्न भरी नज़रों से उसकी ओर देखा।

  "मम्मी, आप हमें डाँटोगी तो नहीं?"- रुचिता ने डरते-डरते मम्मी की आँखों में देखा।

 "अब कुछ बोलेगी भी?"- आकांक्षा झल्लाई।

   "मम्मी राधा बाई को मत निकालना, उसने छतरी नहीं चुराई है।"- रुचिता ने कहना जारी रखा- "वह सब्जी वाली है न, छतरी हमने उसको दे दी थी।"

  "अरे, क्यों दे दी उसको? कब दी?"

  "जब हम लोग मूवी देखने गए थे न उसके दूसरे दिन।"

"लेकिन क्यों?"

  रुचिता ने आकांक्षा की ओर देखा फिर नज़रें झुका कर बोली- "मैं और अनमोल उस दिन चॉकलेट लेने हरीश अंकल की दूकान पर गये थे तो लौटते वक्त अनमोल ने मुझसे कहा- 'दीदी, एक मिनट सब्जी वाली आंटी के पास चलोगी, मुझे उससे बात करनी है।' हम लोग उसके पास गये तो अनमोल ने उससे पूछा कि वह खुद तो धूप में बैठती है फिर सब्जी को छतरी क्यों ओढ़ाती है! सब्जी वाली ने कहा- 'बबुआ जी, सब्जियों को छतरी से ढकूँगी नहीं तो वह धूप से ख़राब हो जाएँगी, फिर तुम्हारी मम्मी ख़राब हुई सब्जी मुझसे लेंगी क्या?' हम यह सुन कर घर आ गये। रास्ते में अनमोल ने मुझसे कहा- 'जब मूवी से आते वक्त हमने उससे सब्जी खरीदी थी तब भी उस आंटी ने सब्जी को छतरी से ढका हुआ था और खुद घूप में बैठी थी। मुझे बहुत अजीब लगा था और अच्छा भी नहीं लगा था। वह बेचारी कितनी गरीब है।' घर आने के बाद हमने सलाह की और अपनी छतरी उसे दे आये।"

  आकांक्षा, जो अब तक ख़ामोशी से सारी बात सुन रही थी, मन ही मन इस बात पर शर्मिन्दा थी कि नाहक उसने राधा पर शक किया। प्रकट रूप में उसने पहले तो सहमे-सहमे, नज़रें झुकाये बैठे अनमोल की ओर देखा, फिर रुचिता से पूछा- "तुम लोगों ने उसे छतरी दी, पर उसने ली कैसे? मना नहीं किया उसने?"

  "वह तो ले ही नहीं रही थी पर हमने कहा कि मम्मी ने भिजवाई है, तब जाकर ली। बोली- अरे, तुम्हारी मम्मी कितनी अच्छी हैं!"

  आकांक्षा समझ नहीं पा रही थी कि बच्चों की इस कारगुजारी पर गुस्सा हो या उनकी मानवतावादी सोच पर गर्व करे! दूसरे ही पल उसने अनमोल और रुचिता को अपने अंक में भर लिया।

   

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