स्नेही पाठकों, प्रस्तुत है मेरे अध्ययन-काल की एक और रचना---
सागर-सरिता संवाद
सागर-
कौन हो तुम, आई कहाँ से?
ह्रदय-पटल पर छाई हो।
कहो, कौन अपराध हुआ,
इस तपसी को भाई हो।।
गति में थिरकन, मादक यौवन,
प्रणय की प्रथम अंगड़ाई हो।
मेरे एकाकी जीवन में,
तुम ही तो मुस्काई हो।।
तुम छलना हो, नारी हो,
प्रश्वासों में है स्पंदन।
कहो, चाह क्या मुझसे भद्रे,
दे सकता क्या मैं अकिंचन?
सरिता-
तुम्हारे पवन चरणों की रज,
मुझे यथेष्ट है प्रियतम।
मुझको केवल प्रेम चाहिए,
तन की प्यास नहीं प्रियतम।।
तुम ही से जीवन है मेरा,
होता संशय क्यों प्रणेश?
प्रकृति का नियम है यह तो,
हमारा मिलान औ’ हृदयेश।।
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