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'वृद्धाश्रम का सच!' (लघुकथा)

                                                         

    "अरे रे रे... यह क्या कर रहे हो? क्या जला रहे हो? कौन सी किताब है यह?" -सारिका ने बरामदे में तन्मय को एक पुस्तक जलाते देख कर सवालों की झड़ी लगा दी। 
  ड्रॉइंग रूम से अब बरामदे में तन्मय के पास आ गई सारिका ने देखा, तन्मय उस पुस्तक को जला रहा था जिसका तीन-चार दिन पहले ही विमोचन हुआ था और विमोचन-कार्यक्रम में वह गया भी था। पुस्तक का नाम था- 'वृद्धाश्रम का सच!'
    सारिका को याद आया, तन्मय ने विमोचन-कार्यक्रम से लौटने पर बताया था कि कार्यक्रम में उपस्थित कुछ वरिष्ठ लेखकों ने पुस्तक व उसके नवोदित लेखक की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। तन्मय ने उस पुस्तक को पढ़ने के बाद कहा था- "आजकल की गैरज़िम्मेदार सन्तानों की आँखें खुल जाएँगी इसको पढ़ कर। लोगों की स्वार्थपरता पर करारा प्रहार करने के साथ ही वृद्धाश्रम की व्यवस्थाओं की भी पोल खोल दी है लेखक ने!"         तन्मय इतना प्रभावित हुआ था कि उसने उसे भी इस पुस्तक को पढ़ने की सलाह दी थी।                         सारिका ने देखा, किताब के पृष्ठों के जलने से धुआँ भी उठ रहा था जो अब ड्रॉइंग रूम में जाने लगा था। उसने ड्रॉइंग रूम का दरवाज़ा बंद किया और तन्मय से कोई प्रत्युत्तर न मिलने पर पुनः पूछा- "तुमने यह किताब दीमक वाली आलमारी में रख दी थी क्या? इसमें भी दीमक लग गई दो ही दिनों में?"
  "नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।"
  "फिर आखिर क्यों जला रहे हो इस किताब को?"- सारिका हैरान थी।
  "इस किताब के लेखक अशोक पुरी ने वृद्धाश्रम के विषय में इतना कुछ लिखा था कि मैं आज अपने शहर का वृद्धाश्रम देखने गया था।..." -कहते-कहते तन्मय फिर खामोश हो गया।
  "तो... तो क्या हुआ?" 
  "अशोक पुरी की माँ पिछले दो वर्षों से यहाँ के वृद्धाश्रम में रह रही है।"- तन्मय फिर किताब के शेष बचे पृष्ठों को जलाने में व्यस्त हो गया।
  अब खामोश होने की बारी सारिका की थी।                                                   

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                                                                     समाप्त
                                                
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