सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

'उफ्फ़!... मेरा वह सहयात्री' (कहानी)

                 

    जयपुर के गांधीनगर रेलवे स्टेशन पर एक टी-स्टाल पर खड़ा मैं चाय का कप हाथ में लिये आगरा के लिए ट्रेन का इन्तज़ार कर रहा था।

   'यात्री कृपया ध्यान दें, मरुधर एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय तीन बज कर बावन मिनट पर पहुँचने वाली है।' - अनाउंसमेंट सुनते ही मैंने अपने कप से चाय का आखिरी घूँट लिया और स्टॉल  के काउन्टर पर कप रख कर प्लेटफॉर्म की तरफ लपका। थर्ड एसी के B-1 कोच में 5 नम्बर की बर्थ थी मेरी, सो प्लेटफॉर्म पर जहाँ इस कोच के ठहरने का मार्क था वहाँ खड़ा होकर ट्रेन का इन्तज़ार करने लगा। दोस्त के भाई की शादी में जा रहा था और तीसरे दिन ही वापस आ जाना था सो सामान के नाम पर मेरे पास केवल एक ब्रीफ़केस था, जिसमें दो दिन का दैनिक ज़रुरत का सामान था।

     सीटी की आवाज़ के साथ छुक-छुक करती ट्रेन नज़दीक आ रही थी। मैंने घड़ी में देखा, ठीक 3-52 हो रहे थे। मुझे खुशी हुई कि इन दिनों अधिकांश रेलगाड़ियाँ समय पर आती-जाती हैं। ट्रेन रुकी और मैं चढ़ कर अपनी बर्थ वाली सीट पर जाकर बैठ गया। आश्चर्यजनक रूप से आज यात्रियों की अधिक भीड़ नहीं थी। जहाँ मैं बैठा था, उसके सामने वाली बर्थ पर खिड़की के पास एक बुज़ुर्ग सज्जन बैठे हुए थे। आमने-सामने वाली दोनों व बाजू वाली बर्थ पर भी हम दोनों के अलावा और कोई यात्री नहीं था। मेरे साथ तीन-चार और यात्री भी इस कोच में चढ़े अवश्य थे, किन्तु वह लोग आगे की तरफ बढ़ गए थे। तीन मिनट के बाद ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया। मैं खिड़की से बाहर विपरीत दिशा में जाते दिख रहे पेड़, उनके पीछे छोटी-छोटी पहाड़ियों की कतारें और दूर तक फैला आसमान देखने में व्यस्त हो गया। आसमान में बादल छितराए हुए थे। मैं मग्न होकर प्रकृति की छटा निहार रहा था और मंद-मंद गुनगुना रहा था- 'ये कौन चित्रकार है, ये कौन...

      दस-पन्द्रह मिनट हुए होंगे कि ट्रेन ने अपनी दिशा बदली और खिड़की से मेरी सीट पर धूप अन्दर तक आने लगी। मैं खिड़की को बंद नहीं कर पा रहा था क्योंकि उसका शटर ख़राब था। मैं चुप्पी तोड़ कर सामने बैठे सज्जन की और मुख़ातिब हुआ- "अंकल, इधर धूप आ गई है। क्या मैं आपके पास बैठ सकता हूँ?"

  "हाँ-हाँ, आइये न! मुझे ख़ुशी होगी।"
मैं उनके पास बैठ गया। वह महाशय अब भी चुप थे, अतः बोरियत मिटाने के लिए मैंने ही उनसे पूछा- "कहाँ जा रहे हैं आप?"
"आगरा जा रहा हूँ अपनी बेटी के पास।"- उन्होंने अपनी यात्रा का उद्देश्य भी बता दिया।
"कहाँ रहती है आपकी बेटी आगरा में? मैं भी आगरा ही जा रहा हूँ एक शादी में।"
"ग्वालियर रोड़ पर शक्ति नगर कॉलोनी में सर्वोदय मिल के बगल में है उसका ससुराल।"
'ओह, तो इनकी बेटी शक्ति नगर में रहती है। मेरे दोस्त का मकान भी तो शक्तिनगर में ही है।' मैंने ध्यान से देखा, आनन्द जी के चेहरे पर उदासी थी।
 मैंने उत्सुकतावश फिर पूछा- "आप उदास दिख रहे हैं। कहाँ से आ रहे हैं आप?"
"जयपुर से।"- संक्षिप्त उत्तर दिया उन्होंने।
"बेटी के पास जाने में खुश नहीं हैं?"
"अरे बेटा, वह तो ज़िन्दगी है मेरी, उसके सिवा है ही कौन मेरा?"- बुझी-बुझी नज़रों से मेरी ओर देख कर उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई- "जानना चाहते हो मेरी उदासी का कारण?"
   मैं कुछ कहता इसके पहले ही टी.टी. आ गया। उसके द्वारा मांगे जाने पर मैंने टिकट अपने पर्स से निकाल कर दिखा दिया। टी.टी. हमारे सामने वाली बर्थ पर बैठ गया और मेरा टिकट देखने के बाद अपने हाथ में पकड़ी शीट को ध्यान से चैक करने लगा।
   पटरियों की आवाज़ के साथ ट्रेन की रफ़्तार कम हो रही थी, शायद अगला स्टेशन आने वाला था। टी.टी. उठा और कोच के दरवाज़े पर जा के खड़ा हो गया। उसने मेरे पड़ोसी सज्जन से टिकट नहीं मांगा था। बहुत झुंझलाया मैं, 'यह टी.टी. का बच्चा ज़रूर इस बुज़ुर्ग का मिलने वाला है, तभी उससे टिकट नहीं मांगा। कैसे तरक्की करेगा यह देश?' फिर अपनी नकारात्मक सोच पर दुःख हुआ मुझे, हो सकता है गाँधीनगर स्टेशन पर ट्रेन में मेरे चढ़ने से पहले उसने इसका टिकट चैक कर लिया हो।
   प्लेटफॉर्म आने पर मैंने देखा, यह दौसा स्टेशन था। चार बज कर चालीस मिनट हो रहे थे। केवल एक युवती इस स्टेशन से चढ़ी और वह भी आगे बढ़ गई। ट्रेन दो मिनट रुक कर फिर आगे बढ़ चली।
 "हाँ तो बेटा, सुनोगे मेरी कहानी?"- कह कर कुछ सेकण्ड के लिए वह चुप हुए।
 "हाँ जी, बताइये!"
 वह शुरू हो गए- "मेरा नाम आनन्द कुमार है। मेरे दो बच्चे हैं- एक बेटा और एक बेटी। दोनों को मैंने समान रूप से प्यार किया और दोनों की अच्छी परवरिश की। हम साधारण स्थिति के गृहस्थ थे, ज़िदगी अभावों में रहते हुए गुज़री। मुझसे भी ज़्यादा मेरी पत्नी ने बच्चों के के लिए अपनी ज़िन्दगी में त्याग किया, अपना निवाला उन्हें खिला कर खुद भूखी रहती थी। ऐसे ही त्याग और तपस्या के चलते अल्पायु में ही वह इस दुनिया से चली गई। उसके जाने के बाद यथाशक्ति मैंने दोनों को पाला-पोसा व अच्छी शिक्षा दिलाई। बेटी को एम.ए. कराया और बेटे को इंजीनियरिंग कराया। बेटे की पढ़ाई के लिए तो मुझे  मेरा छोटा सा दो कमरे का पुश्तैनी मकान भी बेचना पड़ा। पहले बेटी की और उसके एक साल बाद बेटे की शादी कराई।"
     इतना कह कर आनन्द जी पुनः रुके। अब मुझे भी उनकी बातों में रस आने लगा था। मैंने उत्सुक निगाहों से उनकी आँखों में देखा।
   आनन्द जी ने फिर कहना शुरू किया- "अब मेरा अपना कोई घर नहीं रहा था, सो जयपुर में बेटे नरेश के पास ही रहने लगा। बेटी रजनी अपने परिवार के साथ खुश है। वह तो बहुत कहती है कि मैं उसके साथ रहूँ, मगर बेटी के घर में कोई हमेशा कैसे रह सकता है! मेरी अपनी सम्पत्ति के नाम पर पत्नी के कुछ गहने हैं जो एक बक्से में ताले में रखता हूँ। तुम कहोगे कि बक्से में ताला क्यों लगाता हूँ, तो भाई, दरअसल बहू के चुनाव में कुछ भूल हो गई थी मुझसे। शादी के कुछ दिन बाद ही मुझे तो उसके बिगड़े रंग-ढंग दिखने लग गए थे, इसलिए सावधानी तो ज़रूरी थी ही। प्राइवेट नौकरी थी मेरी तो कोई पैंशन-वेन्शन भी नहीं मिलती, सो साल भर में ही बेटे-बहू को मेरी दो रोटी भी भारी लगने लगी। कभी नरेश दौरे पर बाहर होता तो उसके पीछे से बहू खाना भी भरपेट नहीं देती थी। नरेश का व्यवहार शुरू में तो बहुत अच्छा था, पर पिछले कुछ दिनों से अपनी बीवी के बहकावे में आकर मुझ पर चिड़चिड़ाने लगा था। न जाने क्या-क्या पट्टी पढ़ा दी थी उसकी बीवी ने!"
   दो पल के लिए मेरी आँखों में आँखें डाल कर आनन्द जी ने कहना जारी रखा- "अब बेटा, मुझे भूखे रहना तो इतना तकलीफ नहीं देता था, किन्तु बेइज़्ज़ती मुझसे बर्दाश्त नहीं होती थी। अभी दो-तीन दिन पहले मैंने नरेश से कह दिया कि अगर उन्हें मुझे साथ रखने में दिक्कत है तो मैं बेटी के पास चला जाता हूँ। उन दोनों ने मुँह से तो कुछ नहीं कहा पर मैंने उनके चेहरे पर खुशी की चमक देख ली थी। मैंने आज का टिकट कल सुबह ही ले लिया था। मुझे नहीं पता था कि बेटी के घर कितने दिन रह सकूँगा, किन्तु दिन-भर बहुत खुश था कि चलो यहाँ से तो मुक्ति मिलेगी। मैंने अपने कपड़े-लत्ते सम्हाले और अपने बक्से में रख लिये। आज का टिकट था सो मैं रात को बड़ी तसल्ली से सोया।"
    मैं ख़ामोशी से आनन्द जी की यह दुःखद कहानी सुन रहा था। आनंद जी कहते जा रहे थे- "देर रात को अचानक मैंने अपने मुँह और गले पर दबाव महसूस किया। मैंने देखा, बहू पूरी ताकत के साथ तकिया मेरे गले व मुँह पर रख कर दबा रही है। मैंने चिल्ला कर नरेश को आवाज़ लगाने की कोशिश की, किन्तु मुँह से आवाज़ नहीं निकल सकी। दूसरे ही क्षण मैंने अपने हाथ ऊपर करना चाहा तो उठा नहीं पाया। मैंने देखा, नरेश भी वहीं खड़ा था। उसने मेरे हाथ पकड़ रखे थे। अचरज और दुःख से मेरी आँखें फैल गईं। यह मेरा बेटा था जो मुझे मारने में अपनी बीवी की मदद कर रहा था। बेहोश होते-होते मैंने सुना, बहू कह रही थी- 'बुड्ढ़ा गहने बेटी को देने के लिए साथ ले जाना चाहता था। हुँह...! छुट्टी हुई इसकी। चलो सोते हैं अभी तो।
अलसुबह उनके जागने के पहले ही मुझे होश आ गया और बिस्तर से उठ कर मैं उनके घर से निकल कर रेलवे स्टेशन आ गया।"
"लेकिन अंकल, आप का बक्सा कहाँ है?"- मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी।
"जल्दी-जल्दी में बक्सा साथ लाना मैं भूल गया बेटा।"
   मैंने आगे की कहानी जानने के लिए आनन्द जी से पूछा- "तो अंकल, आप यहाँ आगरा में अपनी बेटी के पास कितने दिन रहेंगे?"
"पता नहीं बेटा, लेकिन कुछ दिन तो रहूँगा ही।"
"आखिर वह लोग आपके साथ  इतना बुरा कैसे कर सकते हैं? बहू कैसी भी हो, किन्तु नरेश तो आपका बेटा है! कैसे तैयार हो गया वह आप को मार डालने के लिए? आपको वहाँ रुक कर उन दोनों के ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए थी।"- मैंने आक्रोशित हो कर कहा।
 "कैसे शिकायत करता मैं नरेश की, अपने बेटे की? जिसके लिए मैंने और मेरी पत्नी ने न दिन देखा था न रात, जिस औलाद के लिए हमने अपनी ज़िन्दगी खपा दी, उसे जेल भेजने का कलेजा मैं कहाँ से लाता बेटा...?" 
   उनकी बातें इतना तल्लीन हो कर सुन रहा था मैं कि कब ट्रेन रुकी और अगला स्टेशन बांदीकुई आ गया, पता ही नहीं चला।
  'चाय'... 'चाय' - आवाज़ लगाते एक लड़का चाय की केतली ले कर ट्रेन में चढ़ आया था। मुझे चाय पीने की इच्छा नहीं थी। हाँ, कुछ खाने की इच्छा ज़रूर हो रही थी। मैंने आनन्द जी से पूछा -"आप कुछ नाश्ता लेंगे? उन्होंने सिर हिला कर इन्कार किया।  मैं कुछ लेने के लिए ट्रेन से उतरा।
    स्टेशन पर गर्म, ताज़ा के नाम पर दो-दो बार तेल में तली हुई पकौड़ियाँ मिल रही थी , सो केवल बिस्किट का एक पैकेट ख़रीद कर लौट आया मैं। बर्थ पर पहुँचा तो आनन्द जी नज़र नहीं आये। खिड़की के बाहर नज़र जमाये एक युवक वहाँ बैठा था। मैंने उससे पूछा- "हैलो! यहाँ जो अंकल बैठे थे, क्या वह बाहर निकले हैं?"
"पता नहीं भाई साहब, मैं तो जस्ट अभी आया हूँ। मैं आया तब तो यहाँ कोई नहीं था।"- उसने जवाब दिया।
   मैंने ट्रेन के दरवाज़े पर जाकर दाएं-बाएं देखा, किन्तु वह दिखाई नहीं दिये। 
    ट्रेन चल दी, किन्तु आनन्द जी नहीं आये। मैंने अनुमान लगाया, 'वह शायद कुछ खरीदने के लिए स्टेशन पर उतरे होंगे और फिर ट्रेन रवाना हो जाने के कारण किसी और डिब्बे में चढ़ गए होंगे।'
   आगरा आया तब तक रात्रि के आठ बज चुके थे। मैंने शीघ्रता से अपना ब्रीफकेस उठाया व ट्रेन से नीचे उतर आया। शादी की व्यस्तता होते हुए भी मेरा मित्र, सुरेन्द्र खरे मुझे लेने स्टेशन पर आया था। एक-दूसरे के गले मिले हम दोनों। खरे से मिल कर इतनी खुशी हुई कि उस समय मुझे आनन्द जी का ख़याल ही नहीं आया।
   रात का समय था और सडकों पर ट्रैफिक भी बहुत था, लेकिन खरे की ड्राइविंग बहुत अच्छी थी। मात्र पैंतीस मिनट में हम उसके घर पहुँच गये। भाभी जी मुझे देखते ही खुश हो गईं, फिर उलाहना देते हुए बोलीं- "उठ कर अकेले चले आये हो, भाभी जी को क्यों नहीं लाये?"
 "वह उम्मीद से हैं भाभी, वरना ज़रूर साथ लाता।"
 "ओह, बहुत-2 बधाई!"- कह कर वह चाय बनाने चली गईं। उसी समय हमारे एक अन्य मित्र मुन्ना लाल ने कमरे में आ कर मुझे चौंका दिया। खरे ने मुस्कराते हुए बताया कि वह भी चित्तौड़ से आज सुबह ही आया है। मिलने-जुलने की औपचारिकता के बाद अब मुझे फिर आनंद जी का ध्यान हो आया। चाय आई तब तक मैंने दोनों को ट्रेन का सारा वाक़या बताया।
   सारी कहानी सुन कर खरे ने कहा- "वह महाशय भी पहुँच ही गए होंगे उनकी बेटी के वहाँ। अगर तुम चाहो तो कल उनसे मिल आना, पास में ही होगा उनकी लड़की का मकान, जो पता उन्होंने बताया है उसके अनुसार। अब चाय पी कर तुम लोग चाहो तो गप-शप लगाओ या फिर थोड़ा फ्रेश-वैश हो लो, मैं थोड़ा बाज़ार हो कर आता हूँ।" वह मुझे मेरा कमरा दिखा कर किसी काम से बाज़ार निकल गया।
   अगले दिन दोपहर खरे से कार माँग कर मैं मुन्ना लाल को साथ ले कर आनन्द जी के लिए निकला।
   रास्ते में मुन्ना लाल ने मुझसे पूछा- “अमां यार, तुम्हें आनन्द कुमार जी में इतनी दिलचस्पी क्यों है?”
  “यदि वह मेरे साथ आगरा उतरते तो कोई बात नहीं थी, लेकिन वह बाँदीकुई में उतर कर वापस डिब्बे में नहीं आये, इसलिए थोड़ा परेशान हूँ। वैसे भी वह बहुत त्रासदी से गुज़रे हैं।"- मैंने जवाब दिया।
आनन्द जी की बेटी रजनी का घर पास में ही था सो पूछताछ कर वहाँ पहुँचने में मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट लगे। दरवाज़े पर कॉल-बैल दबाने पर एक अधेड़ सज्जन बाहर आये और प्रश्नसूचक निगाह हम पर डाली।
  मैंने कहा- "रजनी जी यहीं रहती हैं न? दरअसल हमें उनके पिता आनन्द कुमार जी से मिलना है जो कल आपके यहाँ आये हैं।"
  उन्होंने आश्चर्य से हमारी ओर देखा और बोले- "रजनी मेरी बहू है। वह और मेरा बेटा, दोनों आज सुबह ही जयपुर गये हैं क्योंकि आनन्द कुमार जी का कल देहान्त हो गया है। आपसे किसने कहा कि वह यहाँ आये हैं?"
    मैं तो जैसे आसमान से धरती पर आ गिरा। सिर चकराने लगा था मेरा, पर तुरंत सम्हाला अपने-आप को। रजनी के श्वसुर और मुन्ना लाल, दोनों ही मेरी ओर देख रहे थे। उनके प्रश्न का कोई जवाब नहीं दे कर, क्षमा मांग कर लौट पड़े हम।
    'तो क्या ट्रेन में आनन्द जी की आत्मा थी मेरे साथ, जो बेटी के यहाँ जाने की इच्छा पूरी करने के लिए ट्रेन में आई थी!'- मैं मुन्ना लाल के साथ कार में बैठ गया। वह कुछ बोल रहा था ,किन्तु मैं सुन नहीं पा रहा था... मेरा दिमाग सुन्न हुआ जा रहा था।

                                                             ************
                                                                 समाप्त
                                                             ************

 




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह