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'गीता-ज्ञान' (लघुकथा)

                                            


   तीन दिन पहले की ही बात है, जब मैंने गुरुवार को सुबह-सुबह चाय पीते वक्त अख़बार में चन्द्र  प्रकाश के बेटे अवधेश का चयन राजस्थान की रणजी टीम में हो जाने की खबर पढ़ी थी। मुझे यह तो पता था कि अवधेश क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी है, किन्तु प्रतिस्पर्धा व वर्तमान सिफारिशी दौर में बिना लाग-लपेट वाले किसी बन्दे का चयन हो जाना इतना सहज भी नहीं होता। चंद्र प्रकाश एक निहायत सज्जन किस्म का व्यक्ति है और उसका बेटा अवधेश भी खेलने के अलावा क्रिकेट-राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था, अत; उसका चयन मेरे लिए आश्चर्य का कारण बन रहा था। बहरहाल उसका चयन हुआ है, यह तो सच था ही, सो मैंने चाय के बाद फोन कर के बाप-बेटा दोनों को बधाई दे दी थी। 

  फोन पर तो उन्हें बधाई दे दी थी, किन्तु मैं चन्दर (चंद्र प्रकाश को मैं 'चन्दर' कहता हूँ😊) के चेहरे पर ख़ुशी की रेखाएँ देखने को आतुर था। ख़ुशी में जब वह मुस्कराता है, तो बहुत अच्छा लगता है। सोचा- 'आज चन्दर के घर जा कर एक बार और बधाई दे आता हूँ, कई दिनों से मिलना नहीं हुआ है तो मिलना भी हो जाएगा और गप-शप भी हो जाएगी। उसे भी ख़ुशी होगी। बेटे की उपलब्धि की रूबरू बधाई मिलने पर कौन पिता होगा जो ख़ुश ना हो!' 

   मुझे घर आया देख कर बहुत ख़ुश हुआ चंद्र प्रकाश। हम भीतर पहुँचे और मैंने आज दुबारा बधाई दी, तो चहकता हुआ बोला वह- "यार, सब ऊपर वाले की मेहरबानी है। मुझे बेटे ने बुधवार को बताया था तो एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ। फिर जब उसने दुबारा कहा कि सच में उसे टीम में लिया गया है तो मेरी तो ख़ुशी की सीमा ही नहीं रही। अगले दिन अखबार में देखा तो कन्फर्म भी हो गया।" -कहते हुए उसने भाभी को आवाज़ दे कर चाय-नाश्ता लाने को कहा।  

 "चाय-नाश्ते से काम नहीं चलेगा चन्दर! हम तो किसी अच्छे रेस्तरां में डिनर लेंगे।" -मैंने मुस्कराते हुए कहा। 

"हाँ- हाँ दोस्त, रेस्तरां का नाम भी तुम डिसाइड करोगे और खाने के आइटम्स भी तुम ही चुनोगे। इतने प्यार से डिनर कौन मांगता है? जो अपना होता है, दिल से प्यार रखता है वही तो।" -कहते हुए चंद्र प्रकाश का स्वर अचानक धीमा हो गया और चेहरे पर उदासी की रेखाएँ खिंच आईं। 

   चौंक पड़ा मैं, 'अनायास ही उसका स्वर यों बुझ क्यों गया है?', प्रकट में बोला- "क्या हुआ मित्र?"

 "कुछ नहीं यार। ऐसे ही मन थोड़ा खट्टा हो रहा है दो दिन से।"

 "क्यों भाई, ऐसी क्या बात हो गई?"

"अरे यार, तुमसे क्या छिपाऊँ? जिस दिन अख़बार में अवधेश के सेलेक्शन की खबर आई थी, तब से कई दोस्तों का और जान-पहचान वालों का बधाई-सन्देश लगातार आ रहा है, उनका भी जो पिछले लम्बे समय से मेरे संपर्क में नहीं ...।"

 "अरे यार चन्दर, यह तो अच्छी बात है न! इसमें भला परेशान होने की क्या बात हुई?"

"बात तो पूरी करने दो मुझे!... उन सब का फोन तो आ रहा है, लेकिन मेरे नज़दीकी रिश्तेदारों और पड़ोसियों में से एक ने भी अभी तक बधाई नहीं दी, जैसे उन्हें पता ही नहीं, जैसे कि वह अखबार ही नहीं पढ़ते।" -एक स्वर में अपनी पीड़ा बयान कर चंद्र प्रकाश ने मेरी तरफ इस तरह देखा जैसे ब्रह्माण्ड का कोई अबूझ रहस्य बताया हो मुझे। 

मैं बरबस ही हँस पड़ा- "भले मानस, गीता में 'अज्ञान' इसे ही कहा गया है।" 

 मुझे अपनी तरफ देखते पा कर चंद्र प्रकाश ने अपनी पलकें चौड़ी करके पूछा- "बधाई और फोन से गीता का क्या वास्ता? क्यों पहेली बुझा रहे हो मित्र? साफ कहो न, अज्ञान की क्या बात हुई इसमें?"

"यार चन्दर, सही तो कह रहा हूँ मैं! अपनी ख़ुशी को जीओ यार! तुम्हें जो भी बधाई दे रहा है, तुम्हारी ख़ुशी में खुश हो रहा है, उसी में शुक्र मनाओ। कौन बधाई नहीं दे रहा, इसकी चिंता क्यों करते हो? जो किसी अनजाने कारण से तुम से कुढ़ते हैं, क्यों महत्त्व देते हो ऐसे लोगों को? उन्हें अपने हाल में खुश रहने दो।"

"वह तो ठीक है, लेकिन मुझे केवल इस बात से कोफ़्त होती है कि मैं जब किसी के लिए कोई मलाल दिल में नहीं रखता, किसी का बुरा नहीं चाहता, तो उन्हें मुझसे कुढ़न क्यों है।" 

"होता है, ऐसा होता है। आपसे कुढ़न उसी को होती है जो आपका नज़दीकी होता है। शायद स्पर्धा का भाव रहता हो इसके पीछे। जो आपके नज़दीकी नहीं है, उन्हें आपसे स्पर्धा नहीं होगी। स्पर्धा की भावना वैसे तो सब के मन में होती है, लेकिन अपने नज़दीकी के प्रति अधिकतम होती है। भगवान श्री कृष्ण किसका बुरा चाहते थे? वह तो सब के लिए न्याय चाहते थे, मानव-मात्र का कल्याण चाहते थे। क्या उनसे कुढ़ने वाले लोग नहीं थे? शिशुपाल ने तो उनके लिए भर-भर कर अपशब्द कहे थे, जबकि वह उनकी बुआ का लड़का था। तो मित्र, कोई भी इस प्रपञ्च से मुक्त नहीं है। दुनिया ऐसे ही चलती है। "

  चाय-नाश्ता सामने टेबल पर आ गया था। उपदेश की तरह ध्यान से मेरी बात सुन रहे चंद्र प्रकाश ने मुझे नाश्ते की तरफ हाथ बढ़ाने का आग्रह करते हुए कहा- "मान गए तुम्हारा गीता-ज्ञान! तुम्हारी बात मेरी समझ में आ गई है कि मुझे इग्नोर करना चाहिए इन बातों को।"

... मुस्कराते हुए सिर हिला दिया मैंने और इसके साथ ही हम दोनों नाश्ते पर टूट पड़े।  

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टिप्पणियाँ

  1. उत्तर
    1. पढ़ने व प्रतिक्रिया देने के लिए आभार आदरणीय डॉ. मयंक! वैसे यह संस्मरण नहीं है, मैंने काल्पनिक कहानी ही लिखी है।

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