इन दिनों कतिपय लेखिकाओं की कुछ ऐसी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है जिनसे प्रतीत होता है जैसे महिला-वर्ग एक सर्वहारा वर्ग है। अधिकांश रचनाओं में उन्हें शोषित व पुरुष-वर्ग को शोषक के रूप में प्रक्षेपित किया जा रहा है। उन रचनाओं को पढता हूँ, किन्तु कितना भी अच्छा लिखा गया हो, यथासम्भव अपनी टिप्पणी देने से परहेज करता हूँ। उन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महिलाओं के सभी कष्टों का मूल पुरुष मात्र है। कुछ लेखिकाएँ निरन्तर किसी प्रताड़ित महिला के संपर्क में रही हों, ऐसा भी सम्भव है। उन रचनाओं में स्त्रियों को निरीह गाय व पुरुषों को क्रूर भेड़िये का प्रतीक बना दिया जाता है। कहीं-कहीं तो उनमें आक्रोश इस कदर नज़र आता है जैसे स्त्रियों को पुरुष का वज़ूद ही स्वीकार्य न हो। मन व्यथित हो उठता है यह सब देख कर!
हमें मनन करना होगा कि क्या सच में ही पुरुष स्वभाव से इतना आक्रान्ता है?
स्त्री विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, पुरुष के सहयोग से जीवन की उत्पत्ति की कारक है, वाहक है। अपने हर रूप में वह स्नेह व प्रेम के साथ ही शक्ति का अजस्र स्रोत है। वह स्वयं को निर्बल कह कर प्रकृति का अपमान क्यों करना चाहती है? क्यों वह स्वयं को विवश व असहाय जता कर दया की पात्र बनने का प्रयास करती है? उसे जानना चाहिए कि स्वयं की शक्ति को जागृत कर वह असम्भव को भी सम्भव कर दिखाने की सामर्थ्य रखती है।
वस्तुतः अपनी पीड़ा के मूल में कई बार स्त्री स्वयं ही हुआ करती है। कभी सास के रूप में, कभी ननद के रूप में, कभी भाभी के रूप में कभी पड़ोसन के रूप में तो कभी स्वयं पत्नी (बहू) के रूप में। अपनी सास के व्यवहार से आक्रोशित स्त्री स्वयं सास बनने पर अपनी बहू के प्रति अपनी सास की भाँति ही व्यवहार करने लगती है। जो स्त्री अपने पति का उसकी माँ के प्रति अगाध प्यार देख कर उसे 'मम्माज़ बॉय' कहती है, वही स्त्री अपने बेटे को 'मम्माज़ बॉय' बनाये रखना चाहती है। मायके में माँ के साथ मिल कर अपनी भाभी को परेशान करने वाली स्त्री अपने ससुराल में ननद पर हावी होने की इच्छा रखती है। यह सब क्या है? क्या पुरुष दोषी है स्त्री की ऐसी मानसिकता के लिए भी?
यह अवश्य है कि कुछ कापुरुष महिलाओं के प्रति दमनात्मक व्यवहार को ही अपने पुरुष होने की सार्थकता मानते हैं। घर में महिलाओं का मान-मर्दन करते हैं और बाहर स्त्री-उत्थान के गीत गाते हैं। कई पुरुष अवैध सम्बन्धों में लिप्त हो कर अपने पौरुष पर दम्भ करते हैं, यह भी सत्य है। कई बार अख़बारों में पढ़ने में आता है कि अवैध सम्बन्धों के चलते विरोध किये जाने पर किसी पुरुष ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी, तो ऐसे भी तो उदाहरण मिलते हैं कि एक स्त्री ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने पति की जान ले ली। तात्पर्य यह है कि दोषी या अपराधी कोई भी हो सकता है। अपराध के मूल में कोई न कोई कारण अवश्य होता है। किसी एक को सभी बुराइयों की जड़ नहीं माना जाना चाहिए।
किसी समुदाय में सौ-पचास आतंककारी बन जाएँ तो क्या सम्पूर्ण समुदाय को आतंककारी ठहराया जा सकता है? इसी प्रकार दस-बीस हैवान किसी मासूम लड़की या स्त्री के साथ बलात्कार जैसा संगीन अपराध कर लेते हैं, तो क्या सम्पूर्ण पुरुष समाज को इसके लिए दोषी माना जायगा? यदि नहीं, तो कुछ इन-गिने मानसिक रोगी पुरुषों के कारण समस्त पुरुष-वर्ग को आततायी बताया जाना कहाँ तक उचित है?
कभी भी स्त्री को कष्ट में देख कर अपनी जान पर खेल जाने वाले पुरुष को कुछ साहित्यिक रचनाओं में एक विलेन क्यों बता दिया जाता है ? कुछ पुरुष भी अपनी टिप्पणियों के द्वारा महिला-वर्ग की ऐसी रचनाओं का समर्थन कर स्वयं को आदर्श बताने का प्रयास करते हैं, यह भी मैं उचित नहीं मानता। सही को सही और ग़लत को ग़लत बताने का साहस दिखाया जाना चाहिए, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
सभी स्त्रियाँ एक जैसी नहीं हुआ करतीं। ठीक उसी प्रकार सभी पुरुष भी समान प्रकृति के नहीं हुआ करते। हाँ,अपवाद सभी जगह होते हैं। अतः महिलाओं द्वारा अपनी रचनाओं के जरिये पुरुष की तस्वीर को आततायी के रूप में दिखाया जाना सर्वथा अनुचित है। आवश्यकता इस बात की है कि पुरुष व स्त्री, दोनों ही एक वाहन के दो पहियों की तरह परस्पर व्यवहार करते हुए जीवन में सामञ्जस्य बनाये रखें। यह मेरे निजी विचार हैं, हो सकता है कोई मेरे इन विचारों से सहमत न हो।
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उपयोगी और जानकारीपरक आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आपका डॉ. मयङ्क !
हटाएंपूरी तरह सहमत
जवाब देंहटाएंजी, बहुत आभार आपका !
हटाएंआदरणीय सर , आपका ये लेख कई बार पढ़ा पर किसी निष्कर्ष पर ना पहुँच सकी | आखिर को तो स्त्री -पुरुष एक दूजे के पूरक हैं और जीवन गाडी के दो पहिये भी | ये भी तय करना मुश्किल रहा आपने महिला रचनाकारों के लिए ही ये लेख लिखा है अथवा सभी महिलाओं के लिए | मैंने तो खैर ऐसी ज्यादा कडवी कोई रचना अभी तक नहीं देखी | पर हाँ ये सच है पुरुष को सबल और सर्वसमर्थ माना जाता है-- प्रायः हर कहीं -- तो वहीँ महिलाओं को उतना समर्थ नहीं माना जाता | अक्सर दोनों ही एक दूसरे के व्यवहार से कभी ना कभी आहत भी हो जाते हैं------ शायद आहत मन की यही वेदना शब्दों में ढलकर बह जाती है | कोई उलाहना अथवा शिकायत कविता अथवा गीत बन जाती है, तो कोई कहानी | पर बहुधा ये रचनाएँ निजी होकर भी बहुत मनों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं | इसीलिए एक उत्तम पाठक कभी रचनाकार की कृति को निजी सन्दर्भ में नहीं लेता | एक विदुषी कवियत्री से इस विषय पर बात हुई तो उन्होंने बहुत सहजता से कहा महिलाएं सदियों से शोषित और प्रताड़ित रहीं हैं वे अगर अभिव्यक्ति के माध्यम से अपना दर्द कहती हैं तो बुरा क्या है ? वहीँ महिलाओं द्वारा पीड़ित पुरुषों ने भी निम्न स्तर के चुटकुले और शायरी में महिलाओं के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी | और आजके समानता के युग में ये बातें बेमानी हैं कि महिला पीड़ित है | वह कंधे से कंधा मिलकर चल रही है पुरुष के हमकदम | और आपकी ये बात भी कडवा सत्य है कि बहुधा महिलाये पुरुषों से ज्यादा महिलाओं से ही प्रताड़ित रही हैं | एक महिला दूसरी महिला के सम्मान में खड़े होने में कोई रूचि नहीं दिखाती भले ब्लॉग जगत हो अथवा परिवार या समाज | अंत में यही कहना चाहूंगी मात्र कुछ रचनाकारों की रचनाओं से ये अनुमान लगाना कि सभी स्त्रीयां पुरुषों के प्रति एक ही राय रखती हैं -- कहना उचित नहीं होगा | पुरुष के कई रूपों से एक नारी का वास्ता रहता है जैसे पिता, भाई , पति , प्रेमी , इत्यादि और सबका अनुभव भिन्न भिन्न होता है | | कोई भी व्यक्ति निम्न प्रवृति का हो सकता है चाहे महिला हो या पुरुष | बहुत -बहुत आभार इस चिंतन परक लेख के लिए |
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत मायने रखती है आ. रेणु जी! जैसा कि मेरे लेख की प्रारम्भिक पंक्तियों से स्पष्ट है, मेरी अभिव्यक्ति उन महिला रचनाकारों के लिए है जो अपनी एकपक्षीय सोच के चलते पुरुषों के प्रति अपनी रचनाओं में विद्रोह का सृजन करती हैं। पुरुष के द्वारा की गई किसी भी ज़्यादती के विरोध में अपनी अभिव्यक्ति को स्वर देना या शब्दों में ढ़ालना स्त्री का अधिकार है और यह औचित्यपूर्ण भी है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, मेरे लेख की अवधारणा का मुख्य भाग आपकी टिप्पणी की भावना के सामानांतर ही है। मेरा स्नेहिल आभार स्वीकारें रेणु जी!
हटाएंआदरणीय भट्ट जी,नमस्कार !
जवाब देंहटाएंआपकी बात सही है,पर शतप्रतिशत सत्य नही है,मेरे विचार में हमारे देश में प्राचीन समय से स्त्रियों के हर अधिकार पुरुषों के बराबर थे,कालांतर में भिन्न भिन्न कारणवश वो धीरे धीरे कहीं क्षीण हो गए,जिसके मूल कारणों में पुरुष वर्ग का अपने को श्रेष्ठ मानना था,जिससे स्त्रियों को अनेकानेक तरह के कष्टों का सामना करना पड़ा,और जिसकी वजह से उन्हें आर्थिक,सामाजिक,पारिवारिक क्षय का सामना करना पड़ा , वस्तुतः वो पुरुषों के प्रति विद्रोही होती गईं,अब आज की स्थिति ये है कि जब महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार मिल रहे हैं,तो कभी कभी वो उन अधिकारों का नाजायज फायदा भी उठाती है,उदाहरणतया दहेज हत्या जैसे मामलों में किसी सज्जन पुरुष को फंसा देना,परंतु अगर कोई स्त्री पुरुष का मखौल उड़ाती है,तो पुरुष वर्ग भी पीछे नहीं है, हां अगर आपको किसी स्त्री के लेखन में अनुचित लगता है, तो आप प्रतिक्रिया द्वारा उचित मार्गदर्शन अवश्य दें, मैं भी नई ब्लॉगर हूं, इसलिए अपनी राय रख रही हूं,आपकी राय का सम्मान अवश्य होगा आशा है मेरी प्रतिक्रिया को सकारात्मक लेंगे । आपके उचित मार्गदर्शन की प्रतीक्षा रहेगी ।
जिज्ञासा सिंह
आ. जिज्ञासा जी, आपकी प्रतिक्रिया देख प्रसन्नता हुई, बहुत आभार आपका! कमोबेश मैंने वही कुछ कहने का प्रयास किया है जो आपने यहाँ कहा है, मतभेद जैसी स्थिति तो नहीं ही है।
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