18 वर्षीया स्कूली लड़की एक पार्टी में अपनी दोस्त के साथ जाती है। पार्टी के दौरान एक बदमाश नशेड़ी लड़का उसे जबरन डांस के लिए प्रोपोज़ करता है, लेकिन लड़की इन्कार कर देती है। उसके रवैये से परेशान लड़की पार्टी छोड़कर अपने घर जाने के लिए बाहर निकल आती है। वह लड़का भी बाहर निकल कर अपने तीन साथियों के साथ लड़की को वहीं दबोच लेता है और चारों मिल कर उसे कार में डाल कर ले जाते हैं। चारों कार में ही उसका रेप करते हैं और बीच राह एक गंदे नाले में फेंक कर चले जाते हैं। लड़की का पिता उसी दिन विदेश गया होता है अतः लड़की की माँ (सौतेली, लेकिन अच्छी) देवकी लड़की को खोजने के लिए पुलिस का सहारा लेती है। लड़की को जख़्मी हालत में बरामद कर अस्पताल के ICU में भर्ती कराया जाता है। सूचना पर लड़की का पिता भी विदेश से लौट आता है। कुछ समय में लड़की स्वस्थ हो जाती है और उधर पुलिस लड़कों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश करती है। जैसा कि कई मामलों में होता है, कुछ समय बाद अदालत पुख्ता सबूत न होना मानकर चारों अपराधियों को रिहा कर देती है।
कहानी आगे चलती है और क़ानून और न्याय से निराश देवकी अपने पति की गैर जानकारी में उन चारों बदमाशों को अपने तरीके से उनके अंजाम तक पहुंचाती है। कहानी पूरी नहीं कहूंगा, यदि पूरी जानना चाहते हैं तो मूवी 'मॉम' देखें। मैंने भी आज ही देखी है।
कहानी फ़िल्मी है और नायिका देवकी (श्रीदेवी) बदले के अपने मक़सद में पूरी तरह कामयाब होती है, लेकिन आम माँ तो इतनी साहसी और निपुण नहीं हुआ करती। यदि क़ानून सही काम कर जाये और पीड़ित को न्याय मिल भी जाये तो भी क्या होगा, गुनहगार को अधिक से अधिक सजा 'फाँसी' ही तो मिलेगी। अधिक अच्छा हो कि संविधान में ऐसे अपराधी के लिए ऐसी सजा तज़वीज़ की जाये कि उसे उसके हाथ-पैर बाँध कर पीड़ित के अभिभावकों के सामने छोड़ दिया जाये ताकि वह अपने तरीके से उसे सजा दे सकें।
मूवी देखने से उपजे मेरे इस आक्रोश को 'श्मशान- वैराग्य' न समझें, निजी तौर पर अपराधियों के प्रति क्रूरतम सज़ा का हिमायती हूँ मैं।
कहानी आगे चलती है और क़ानून और न्याय से निराश देवकी अपने पति की गैर जानकारी में उन चारों बदमाशों को अपने तरीके से उनके अंजाम तक पहुंचाती है। कहानी पूरी नहीं कहूंगा, यदि पूरी जानना चाहते हैं तो मूवी 'मॉम' देखें। मैंने भी आज ही देखी है।
कहानी फ़िल्मी है और नायिका देवकी (श्रीदेवी) बदले के अपने मक़सद में पूरी तरह कामयाब होती है, लेकिन आम माँ तो इतनी साहसी और निपुण नहीं हुआ करती। यदि क़ानून सही काम कर जाये और पीड़ित को न्याय मिल भी जाये तो भी क्या होगा, गुनहगार को अधिक से अधिक सजा 'फाँसी' ही तो मिलेगी। अधिक अच्छा हो कि संविधान में ऐसे अपराधी के लिए ऐसी सजा तज़वीज़ की जाये कि उसे उसके हाथ-पैर बाँध कर पीड़ित के अभिभावकों के सामने छोड़ दिया जाये ताकि वह अपने तरीके से उसे सजा दे सकें।
मूवी देखने से उपजे मेरे इस आक्रोश को 'श्मशान- वैराग्य' न समझें, निजी तौर पर अपराधियों के प्रति क्रूरतम सज़ा का हिमायती हूँ मैं।
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