सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

डायरी के पन्नों से ... "नील सरोवर"

       एक और प्रस्तुति मित्रों...


             पलकों की छाया में सुन्दर,
            आँखों का यह नील सरोवर।   

 इन नयनों से जाने कितने,
 दीवानों  ने  प्यार  किया।
 देवलोक  से आने  वाली,
 परियों ने अभिसार किया।
 कुछ गर्व से, कुछ शर्म से,
 छा जाती लाली मुख पर।
                "पलकों की..."
                                   
              सांझ  हुई जब  दीप जले,
              वीराने  भी  चमक  उठे।
             दम भर को लौ टिकी नहीं
              कुछ ऊपर जब नयन उठे।
              पलकें उठ, झुक जाती हैं,
              कुछ कह  देने को तत्पर।
                             "पलकों की..."

जब भी पलकें उठ जाती हैं,
वक्त  वहीं  रुक  जाता  है।
हँस  उठती  हैं  दीवारें  भी,
ज़र्रा   ज़र्रा   मुस्काता  है।
किन्तु  प्रलय भी हो जाता,
देखें  जब  तिरछी  होकर।
                "पलकों की..."
             
               पलकों की  कोरों से शायद,
               बादल  ने  श्यामलता  पाई।
               शायद इनको निरख-निरख,
               फूलों   में  कोमलता  आई।
               सागर  भी  खारा  होता  है,
               निकला जो  इनसे बहकर।
                                 "पलकों की..."

आँखें  जो  तेरी  मुस्काएं,
तो  एक  नया संसार बसे।
केवल इतनी अभिलाषा है,
बस  इनमें मेरा  प्यार बसे।
इन आँखों  में खो जाऊं मैं,
सब-कुछ ही अपना खोकर।
                "पलकों की..."

                 *****

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********