दि. 19-12-1969 को लिखी गई थी मेरी यह कविता। यह समय वह था, जब निजलिंगप्पा के रुतबे को ध्वस्त कर इंदिरा गांधी ने अपना वर्चस्व कायम किया था। (उन दिनों 85/- रुपये मायने रखते थे।)
भूतपूर्व मिनिस्टर
कमिश्नर के घर तक
कई बार भटका था,
कई बार भटका था,
क्योंकि बी.ए. की परीक्षा में
कई बार अटका था-
कि कहीं मिल जाय
नौकरी चपरासी की,
कि कहीं बंध जाय
तनखा पिच्यासी की।
... दरवाज़े पर-
हुक्म के पाबन्द,
बेवकूफ ज़्यादा, कुछ अक़लमंद,
चपरासी ने
साहब के बुलडॉग को
धीरे से दुलार लिया,
चूम कर प्यार किया;
और हमारी अर्जी को
हाथों में मसल कर,
कुछ ऐसे दुत्कार दिया-
"जाओ-जाओ,
अभी साहब को
फुर्सत नहीं है,
क्योंकि
पास में तुम्हारे
किसी मिनिस्टर का,
उनके खुदा का
ख़त नहीं है।"
मुँह लटकाए
लौट आया बाहर,
यूँ ही आवारा
घूमता रहा सड़क पर।
धूल उड़ाते,
गुज़रे तभी
कार में एक मिनिस्टर।
देखता रहा एकटक,
जाती हुई
कार की चमक;
पहले यह गप्पा के चमचे थे,
अब हैं
इंदिरा के सेवक।
..."बाबू, भूखा हूँ,
कुछ दे दो"-
एक भिखारी बोला
जो पास ही खड़ा था,
जाने कितनी देर से
यहीं पर अड़ा था।
आगे बढ़ा,
तो एक और राहगीर,
पीछे से आकर,
भिखारी पर रहम खाकर,
बोला-
"कुछ दे दो बेचारे को,
मुसीबत के मारे को,
अभागे ने
आधा पेट खाया है,
दो दिन पहले ही
जेल से आया है।
मैं इसे जानता हूँ,
बरसों से पहचानता हूँ-
भाग्य का चक्कर है,
यह भूतपूर्व मिनिस्टर है।"
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