कल ही की तो बात है। कल प्रातः मैं अपने घर के अहाते में बैठा चाय की सिप लेता हुआ अखबार की ख़बरें टटोल रहा था कि अचानक वह हादसा हो गया।
एक तीखी चुभन मैंने अपने पाँव के टखने पर महसूस की। देखने पर मैंने पाया कि एक डरावना, मटमैला काला मच्छर मेरे पाँव की चमड़ी में अपना डंक गड़ाए बैठा था। मेरी इच्छा और सहमति के बिना हो रहे इस बलात्कार को देखकर मेरा खून खौल उठा और मैंने निशाना साधकर उस पर अपने दायें हाथ के पंजे से प्रहार कर दिया। बचकर उड़ने का प्रयास करने के बावज़ूद वह बच नहीं सका और घायल हो कर नीचे गिर पड़ा।
इस घटनाक्रम के दौरान दूसरे हाथ में पकड़े चाय के कप से कुछ बूँदें अखबार के पृष्ठ पर गिरीं। आम वक्त होता तो उन अदद अमृत-बूंदों के व्यर्थ नष्ट होने का शोक मनाता, लेकिन उस समय मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण था धरती पर गिरे उस आततायी को पकड़ना। मैंने चाय का कप टेबल पर रखकर उस घायल दुष्ट को पकड़ कर उठाया और बाएं हाथ की हथेली पर रखा। मेरी निगाहों में उसके प्रति घृणा और क्रोध था पर फिर भी मेरे मन के विवेक ने कहा कि कानून हाथ में लेना ठीक नहीं है। फिर विवेक ने ही इसका प्रतिवाद किया और कहा कि कमज़ोर कानून इसे या तो संदेह का लाभ देकर छोड़ देगा या कुछ समय की सज़ा के बाद यह आज़ाद होकर फिर किसी निर्दोष पर अपना खूनी डंक गड़ाएगा। सभी जानते हैं कि अधिकांश अपराधी जेल में रहते हुए सुधरने के बजाय नए अपराधों की योजना बनाते रहते हैं। इस विचार ने मुझे आश्वस्त किया कि स्वयं ही इसे सज़ा देना न्यायसंगत होगा।
उपरोक्त विचार-श्रंखला मेरे क्रोध को तनिक भी शान्त न कर पाई थी। मैंने उस घायल मच्छर को बाएं हाथ की उंगलियों में पकड़ा और उसका एक पंख उखाड़ा। मैंने उसे ध्यान से देखा, वह कातर निगाहों से रहम की भीख मांग रहा था। 'छोड़ दूँ इसे अब' - मन में विचार आया, लेकिन दूसरे ही पल उसके द्वारा की गई क्रूरता का दृश्य आँखों के सामने तैर गया। मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा था, ख़ामोशी से अखबार पढ़ रहा था, चाय पी रहा था। मेरे उन सुनहरे पलों को उसने मुझसे छीन लिया था, मुझे शारीरिक और मानसिक वेदना दी थी। मैंने अपने मन को दृढ कर लिया और ...और उसका दूसरा पंख भी उखाड़ दिया। चेहरे पर विजयी मुस्कराहट के साथ मैंने उसे पुनः धरती पर फैंक दिया- तड़पने के लिए और तड़प-तड़प कर मर जाने के लिए।
हमारे पड़ोसी का पाँच वर्षीय बेटा (कितनी सुकुमार होती है यह उम्र) भी इसी दौरान मेरे पास आ गया था। उसने पहले तो मुझे उस मच्छर को सज़ा देते देख अजीब सा मुँह बनाया, लेकिन जब मैंने उसके काटने से हुआ ज़ख्म (लाल निशान ) दिखाया तो बोल पड़ा- 'अच्छा किया अंकल आपने।'
मैं जानता हूँ कि अहिंसावादी और मानवतावादी मेरी आलोचना करेंगे, मुझे बुरा-भला कहेंगे, लेकिन मेरा उनसे यही कहना है कि मुझ पर जो बीती थी, उसे महसूस करने की कोशिश करें, क़ानून को इतना सशक्त बनवायें कि कोई भी आततायी किसी निरीह व्यक्ति पर अपना खूनी पंजा गड़ाने का दुस्साहस न कर सके। यदि कानून और कानून-रक्षक पीड़ित के मन में विश्वास पैदा कर सकेंगे तो कोई क्यों इनके अपवित्र खून से अपने हाथ दूषित करेगा !
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