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डायरी के पन्नों से ..."कविता मैं कैसे लिखूं"

       डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुए हादसे के बाद आज दि. 5-12-2019 को मैंने चार नवरचित पंक्तियाँ मेरी इस पूर्व -प्रकाशित कविता में और जोड़ी हैं।...
   दामिनी का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, धर्मांध और भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले 'राम-रहीम' जैसे बाबा ...और ऐसे अनाचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन अपने-आप से पूछता है- जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही वह राम और कृष्ण की धरती है?
    ...इस सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार..."कविता मैं कैसे लिखूं"
     

दामिनी  की चीख अभी  भी, गूंजती  हवाओं  में,
प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में,
नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख्वाब नहीं  मिलते,
कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़ नहीं  मिलते।

डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानों ने,
हर बस्ती को नर्क बनाया,कुछ पागल शैतानों ने। 
लहू से भीगी धरती पर, फूल खिला नहीं करते,
कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अल्फ़ाज़ नहीं मिलते।

तुलसी  और रैदास  जैसे  सत्पुरुषों  के देश  में,
घूमते  अब   कई  भेड़िये, बाबाओं  के  वेश में,
दर्द  मेरा  कर सकें बयां, वो साज़ नहीं  मिलते,
कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़  नहीं मिलते।

बेड़ियों में  जकड़ा हुआ, न्याय  तो  मदहोश है,
दम  भरता  विकास का,शासन क्यों खामोश है?
जहन  में उठते  सवालों के जवाब  नहीं मिलते,
कविता मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़ नहीं  मिलते। 

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