कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से (आखिर हर कवि तो व्यवसाय-निपुण हो नहीं सकता) क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी एक और अध्ययनकालीन रचना -
"उसकी दीपावली"
आज घरों में दीप सजे थे,
वैभव भी झलका पड़ता था।
अमा-निशा थी बनी सुन्दरी,
यौवन भी छलका पड़ता था।
कोई ठहाके लगा रहे थे,
बेकाबू हो कर मनमाने।
लिये हुए थे कुछ बेचारे,
होठों पर नकली मुस्कानें।
यही देखता इधर-उधर मैं,
एक राह से गुज़र रहा था।
कोट गरम पहने था फिर भी,
सर्दी से कुछ सिहर रहा था।
युवती एक चली आती थी,
देखा मैंने पीछे मुड़ कर।
रुक-रुक कर चलता था उसका
बच्चा उंगली एक पकड़ कर।
अस्त-व्यस्त कपड़े थे उसके,
पैबन्दों से सजे हुए थे।
सीने में थी विषम वेदना,
अरमां उसके जले हुए थे।
एक नज़र में उसे देख कर,
आँखें कुछ ऐसा कहती थीं।
औरत थी कुछ अच्छे घर की,
नहीं भिखारिन वह लगती थी।
दो दिन से भूखी थी शायद,
फिर भी चेहरा निखर रहा था।
माँ-माँ, मुझको भूख लगी है,
बच्चा उसका बिलख रहा था।
चल दी दुखिया एक ओर को,
जहाँ दुकानें बिछी पड़ी थीं।
सुन्दर, मीठे पकवानों की,
कई कतारें वहाँ खड़ी थीं।
अबला बोली विक्रेता से,
'क्या चने मिलेंगे भुने हुए?'
हँसे तुरत ही ऐसा सुन कर,
कुछ लोग वहाँ पर खड़े हुए।
अपमान भरा यह दर्द लिये,
वह लौट पड़ी आँसू पी कर।
'बेटा, तू है बड़ा अभागा,'
तड़प उठी वह, बोली रो कर।
तिरस्कार की विषम आग से,
बच्चे के आँसू सूख चले।
'माँ, मुझको बिल्कुल भूख नहीं',
कुछ दर्द भरे ये स्वर निकले।
पूछा मैंने उस युवती से,
'पिता बच्चे का क्या करता है?'
चौंकी, नज़र उठा कर बोली-
'कवि है वह, कविता लिखता है।'
*****
वैभव भी झलका पड़ता था।
अमा-निशा थी बनी सुन्दरी,
यौवन भी छलका पड़ता था।
कोई ठहाके लगा रहे थे,
बेकाबू हो कर मनमाने।
लिये हुए थे कुछ बेचारे,
होठों पर नकली मुस्कानें।
यही देखता इधर-उधर मैं,
एक राह से गुज़र रहा था।
कोट गरम पहने था फिर भी,
सर्दी से कुछ सिहर रहा था।
युवती एक चली आती थी,
देखा मैंने पीछे मुड़ कर।
रुक-रुक कर चलता था उसका
बच्चा उंगली एक पकड़ कर।
अस्त-व्यस्त कपड़े थे उसके,
पैबन्दों से सजे हुए थे।
सीने में थी विषम वेदना,
अरमां उसके जले हुए थे।
एक नज़र में उसे देख कर,
आँखें कुछ ऐसा कहती थीं।
औरत थी कुछ अच्छे घर की,
नहीं भिखारिन वह लगती थी।
दो दिन से भूखी थी शायद,
फिर भी चेहरा निखर रहा था।
माँ-माँ, मुझको भूख लगी है,
बच्चा उसका बिलख रहा था।
चल दी दुखिया एक ओर को,
जहाँ दुकानें बिछी पड़ी थीं।
सुन्दर, मीठे पकवानों की,
कई कतारें वहाँ खड़ी थीं।
अबला बोली विक्रेता से,
'क्या चने मिलेंगे भुने हुए?'
हँसे तुरत ही ऐसा सुन कर,
कुछ लोग वहाँ पर खड़े हुए।
अपमान भरा यह दर्द लिये,
वह लौट पड़ी आँसू पी कर।
'बेटा, तू है बड़ा अभागा,'
तड़प उठी वह, बोली रो कर।
तिरस्कार की विषम आग से,
बच्चे के आँसू सूख चले।
'माँ, मुझको बिल्कुल भूख नहीं',
कुछ दर्द भरे ये स्वर निकले।
पूछा मैंने उस युवती से,
'पिता बच्चे का क्या करता है?'
चौंकी, नज़र उठा कर बोली-
'कवि है वह, कविता लिखता है।'
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