मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है- मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!
(इस कविता में निहित पीड़ा के भाव को समझने के लिए इसका personification समझा जाना वाञ्छनीय है।)
(इस कविता में निहित पीड़ा के भाव को समझने के लिए इसका personification समझा जाना वाञ्छनीय है।)

"नदी और किनारा"
एक दिवस मैंने देखा था-
वह उड़ती-उड़ती आई।
सिहरन बनी स्वयं थी मानो,
प्यार भरी वह अंगड़ाई।
तनिक लिपट कर उससे बोली-
“क्यों प्रियतम तुम रूठे हो ?
बात-बात में गुस्सा होते,
तुम भी देव अनूठे हो।”
तब वह बोला- ”तुम छलना हो,
कभी नहीं टिक कर रहती।
कभी इधर तो, कभी उधर को,
निश-दिन ही बहती रहती।
चाहे आंधी उमड़ पड़े पर,
मैं खामोश पड़ा रहता।
चाहे गर्मी हो या सर्दी,
सब कुछ ही सहता रहता।
मुझको मत गुमराह करो अब,
व्यर्थ करो परिहास नहीं।
अपने हाल मुझे रहने दो,
तुम पर अब विश्वास नहीं।”
हँसी, विषमतम 'हँसी' हँसी वह,
नयनों में कटुता भर कर।
नागिन हो कोई ज़हरीली,
या कोई विष की गागर।
“तुम निश्चल हो, तुम क्या जानो,
गति ही जीवन कहलाती,
तुम में वह सामर्थ्य कहाँ?"
-बोली वह जाती- जाती।
*****
वह उड़ती-उड़ती आई।
सिहरन बनी स्वयं थी मानो,
प्यार भरी वह अंगड़ाई।
तनिक लिपट कर उससे बोली-
“क्यों प्रियतम तुम रूठे हो ?
बात-बात में गुस्सा होते,
तुम भी देव अनूठे हो।”
तब वह बोला- ”तुम छलना हो,
कभी नहीं टिक कर रहती।
कभी इधर तो, कभी उधर को,
निश-दिन ही बहती रहती।
चाहे आंधी उमड़ पड़े पर,
मैं खामोश पड़ा रहता।
चाहे गर्मी हो या सर्दी,
सब कुछ ही सहता रहता।
मुझको मत गुमराह करो अब,
व्यर्थ करो परिहास नहीं।
अपने हाल मुझे रहने दो,
तुम पर अब विश्वास नहीं।”
हँसी, विषमतम 'हँसी' हँसी वह,
नयनों में कटुता भर कर।
नागिन हो कोई ज़हरीली,
या कोई विष की गागर।
“तुम निश्चल हो, तुम क्या जानो,
गति ही जीवन कहलाती,
तुम में वह सामर्थ्य कहाँ?"
-बोली वह जाती- जाती।
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