Skip to main content

Posts

Showing posts from 2017

डायरी के पन्नों से..."शेष है..."

सन्  2017 जाने को है, महज़ कुछ घंटे ही शेष हैं और मेरे द्वारा आज प्रस्तुत की जा

डायरी के पन्नों से ..."हर पत्थर से ठोकर खाई"

यह रचना भी मेरे प्रथम वर्ष, टी.डी.सी. (महाराजा कॉलेज, जयपुर) में अध्ययन (किशोरावस्था व यौवन की वयसंधि ) के समय  की है...प्रस्तुत है बंधुओं- 'हर पत्थर से ठोकर खाई'!       *********

अनुशासन की अनुशासनहीनता

      स्मरण है मुझे श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय का आपातकाल! कई विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित कर दी गई थी; यहाँ तक कि टार्गेट के दबाव के चलते गैरशादीशुदा युवकों की

अंध-भक्ति

         अच्छा है कि वह एक पूर्व न्यायाधीश हैं, अभी तक अगर पद पर होते और वहाँ होते, जहाँ आसा राम का इंसाफ होना है, तब तो आसा राम की बल्ले-बल्ले हो जाती। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थान के पूर्व न्यायाधीश

डायरी के पन्नों से ..."प्यार अधूरा रह जाएगा"

दिल में जब तक तड़पन पैदा न हो, प्यार का रंग कुछ फीका-फीका ही रहता है। कई महानुभावों ने इसे महसूसा होगा। तड़पन का कुछ ऐसा ही भाव आप देखेंगे प्यार की मनुहार वाली मेरी इस कविता में - "प्यार अधूरा रह जाएगा  ..."      (महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष के अध्ययन के दौरान हमारी वार्षिक पत्रिका 'प्रज्ञा' में यह कविता प्रकाशित हुई थी।)            "प्यार अधूरा रह जाएगा"  पली नहीं ‘गर पीर हृदय में, प्यार  अधूरा  रह  जाएगा।  आया   हूँ   तुम्हारे  दर पर, शब्द-पुष्प  का  हार लिये। इसको कहो विरह प्रेमी का, या  विरही  का  प्यार  प्रिये।  मत ठुकराना प्रिय तुम इसको, हार  अधूरा   रह  जाएगा।  पली नहीं गर पीर ह्रदय में, प्यार अधूरा  रह  जाएगा।। मैं गाता  हूँ, साज उठा लो, स्वर  खो जाएँ  स्वर में ही।  तंत्री  से मत  हाथ  हटाना, बिखर  पड़ेंगे  भाव  कहीं।  स्वर को अगर मिला न सहार...

डायरी के पन्नों से ...'दो मुक्तक'

प्रिय मित्रों, प्रस्तुत हैं दो मुक्तक ...  जहाँ   भी   रहो,  तुम  मुस्कुराओ, चंदा औ'  सूरज  भी  ले लें बलाएँ।  गुलिस्ताओं  से निकल-निकल कर, बहारें  तुम्हारी  महफ़िल  सजाएँ।  *** उल्फ़त  करने  वालों  की भी, कितनी   बात  अजब  साकी, धड़कन तो  सौ बार रुकी पर, फिर  भी  मौत   नहीं  आती।  *****

डायरी के पन्नों से ..."लो चाँद उगा..."

       वृन्दावन लाल वर्मा का प्रसिद्ध उपन्यास 'मृगनयनी' मैंने तब पढ़ा था जब मैं पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी था। कितना मैं उस उम्र में उस उपन्यास को समझ पाया था, मुझे स्मरण नहीं, लेकिन यह अवश्य ध्यान में है कि मुझे बहुत आनंद आया था पढ़कर। नट-नटनियों की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास की कुछ घटनायें मेरी स्मृति में आज भी हैं।               इसके बाद सातवीं कक्षा में आने पर मैंने जय शंकर प्रसाद की कालजयी कृति 'कामायनी' को पढ़ा- 'हिमगिरि के उतुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह, एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।' - इस पुस्तक की वह प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं जो मेरे मन-मानस में कविता घोल गईं। हिंदी का ठीक-ठाक ज्ञान होने के बावज़ूद भी इस काव्य की भाषा-शैली व भावात्मक सृजनशीलता मुझे उस समय बहुत कठिन लगी थी और यही कारण था कि मैं उसे आधा-अधूरा ही पढ़ सका।       नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी होने तक मैंने उपन्यास-सम्राट मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' तथा 'कायाकल्प' पढ़ डाले थे।      ...

डायरी के पन्नों से ... "मन की व्यथा"

मेरे अध्ययन-काल की एक और कविता ...प्रस्तुत है मित्रों- "मन की व्यथा" :- "मन की व्यथा" मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? अन्तर  के आँसू, मैं  कैसे छुपा सकूँगा? अन्तर के ये गीले स्वर, कहते यों रो-रो कर। पथ के हमदर्द साथी, जाना न नाराज़ होकर। सूना-सा जीवन, मैं कैसे बिता सकूँगा? मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? रे उपवन के समीर, इक पुष्प तोड़ लाना। गम मेरा दूर करने, उसे यहाँ छोड़ जाना। दर्द कुछ दिल का, मैं उसे बता सकूँगा। मन की  ये व्यथा  मैं, कैसे भुला सकूँगा? ओ सागर की लहरों, ये सन्देश भेज देना। फिर यहाँ आकर मुझे, सुख  की  सेज देना। उत्पीड़न के गीत, मैं तुममें गा सकूँगा। मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? ओ विरहिणी बदलिया, कहीं दूर जा गरजना। अभितप्त अश्रुधारा  से, कहीं और जा बरसना। जान ले दिल का हाल, कथा न कह सकूँगा। मन  की  ये व्यथा मैं,  कैसे भुला सकूँगा? ********

डायरी के पन्नों से ..."भूतपूर्व मिनिस्टर"

दि. 19-12-1969 को लिखी गई थी मेरी यह कविता। यह समय वह था, जब निजलिंगप्पा के रुतबे को ध्वस्त कर इंदिरा गांधी ने अपना वर्चस्व कायम किया था। (उन दिनों 85/- रुपये मायने रखते थे।)                                                                                  भूतपूर्व मिनिस्टर  कमिश्नर के घर तक                        कई बार भटका था, क्योंकि बी.ए. की परीक्षा में  कई बार अटका था- कि कहीं मिल जाय  नौकरी चपरासी की, कि कहीं बंध जाय तनखा पिच्यासी की।  ... दरवाज़े पर- हुक्म के पाबन्द, बेवकूफ ज़्यादा, कुछ अक़लमंद, चपरासी ने  साहब के बुलडॉग को धीरे से दुलार लिया, चूम कर प्यार किया; और हमारी अर्जी को  हाथों में मसल कर,  कुछ ऐसे दुत्कार दिया- "जाओ-जाओ, अभी साहब को...

'झाँसी की रानी'- "कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान"

         स्वाधीनता-संग्राम से सम्बद्ध यह रचना बहुत लुभाती है मुझे। मैं नहीं समझता कि झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की वीरता विषयक इससे अधिक अच्छी कविता किसी और कवि/कवयित्री द्वारा लिखी जा सकती थी। तो मित्रों, आपकी सुषुप्त यादों और संवेदनाओं को

अपने तरीके से ...

     18 वर्षीया स्कूली लड़की एक पार्टी में अपनी दोस्त के साथ जाती है। पार्टी के दौरान एक बदमाश नशेड़ी लड़का उसे जबरन डांस के लिए प्रोपोज़ करता है, लेकिन लड़की इन्कार कर देती है। उसके रवैये से परेशान लड़की पार्टी छोड़कर अपने घर जाने के लिए बाहर निकल आती है। वह लड़का भी बाहर निकल कर अपने तीन साथियों के साथ लड़की को वहीं दबोच लेता है और चारों मिल कर उसे कार में डाल कर ले जाते हैं। चारों कार में ही उसका रेप करते हैं और बीच राह एक गंदे नाले में फेंक कर चले जाते हैं।  लड़की का पिता उसी दिन विदेश गया होता है अतः लड़की की माँ  (सौतेली, लेकिन अच्छी) देवकी लड़की को खोजने के लिए पुलिस का सहारा लेती है। लड़की को जख़्मी हालत में बरामद कर अस्पताल के ICU में भर्ती कराया जाता है। सूचना पर लड़की का पिता भी विदेश से लौट आता है। कुछ समय में लड़की स्वस्थ हो जाती है और उधर पुलिस लड़कों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश करती है। जैसा कि कई मामलों में होता है, कुछ समय बाद अदालत पुख्ता सबूत न होना मानकर चारों अपराधियों को रिहा कर देती है।      कहानी आ...

डायरी के पन्नों से ... "नील सरोवर" (कविता)

          मेरे अध्ययन काल की ही एक रचना -                 "नील सरोवर"                पलकों की  छाया में सुन्दर,               आँखों का यह नील सरोवर।     इन नयनों  से जाने कितने,  दीवानों   ने  प्यार   किया।  देवलोक  से  आने  वाली,  परियों ने अभिसार किया।  कुछ गर्व से, कुछ शर्म से,  छा जाती  लाली मुख पर।                 "पलकों की..."                                                    सांझ   हुई  जब  दीप जले,                वीराने   भी   चमक  उठे।               ...

चलचित्र 'पद्मावती' का दूषित कथानक- एक समीक्षा

        प्राप्त जानकारी के अनुसार चलचित्र 'पद्मावती' में दर्शाए गये नराधम सुल्तान अल्लाउद्दीन और प्रातःस्मरणीया रानी पद्मिनी (पद्मावती) के अन्तरंग दृश्यों को कुत्सित विचारधारा वाले कुछ व्यक्ति यह कह कर समर्थन दे रहे हैं कि वह सभी दृश्य चलचित्र में अल्लाउद्दीन की कल्पना में होना दर्शाया गया है न कि हकीकत में।      यह भी कहा जा रहा है कि पद्मिनी या पद्मावती की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है, इस तरह की रानी का कोई वजूद होना इतिहास में प्रामाणिक नहीं है।      इस सम्बन्ध में मेरा तर्क

'कौन बनेगा करोड़पति'

'कौन बनेगा करोड़पति'       जी हाँ, मैं अमिताभ बच्चन जी के हाल ही समाप्त हुए शो 'कौन बनेगा करोड़पति' के विषय में अपने कुछ विचार रखने जा रहा हूँ। इस बार के शो को मैं पिछले लगभग एक माह से देख रहा था।      मित्रों, आपने भी सब नहीं तो, कुछ एपिसोड तो देखे ही होंगे। वैसे तो इस महानायक या इस लोकप्रिय शो के विषय में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के सामान है, पर मेरा भी अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व है सो कुछ कहने का

डायरी के पन्नों से ... 'नई रचना'

पेश हैं मेरी दो नई रचनायें मेरे दोस्तों...  बेवफ़ा तेरी बेवफ़ाई  का,                                 कब तुझसे हमने शिकवा किया है, उम्मीदेवफ़ा में जिए जायेंगे क़यामत तक,                                 गर ज़िन्दगी ने हमें धोखा न दिया।                          -------------         आरज़ू हो तुम, मेरी चाहत हो, दिल का इक अरमान हो तुम।         ज़र्रा  नहीं  हो, सितारा नहीं  हो,  मेरे लिए, मेरी जां हो तुम। 

अहंकार क्यों झलकने लगता है?

     सन् 2016 में रियो  डि जेनेरियो में  ग्रीष्मकालीन   ओलम्पिक में  बैडमिंटन के फाइनल में  अपने जीवट खेल के बावजूद भी स्पेन की  कैरोलिना मैरिन से हारने के बाद भारतीय स्टार खिलाड़ी पी.वी.सिन्धु ने 

आप 'पन्ना धाय' को जानते हैं...?

      'पन्ना धाय' राजस्थान में ही नहीं, सम्पूर्ण भारत में गर्व और श्रद्धा से लिया जाने वाला वह नाम है जिसके समकक्ष विश्व में कोई भी नाम बौना हो जाता है जब चर्चा होती है स्वामिभक्ति व त्याग की।       पन्ना धाय, एक माता, जिसने राजद्रोही बनवीर के सम्मुख अपने स्वामी-पुत्र (राजकुमार उदय सिंह) की रक्षा हेतु अपने ही पुत्र को मरने के लिए प्रस्तुत कर दिया। ऐसा उदहारण विश्व में न कभी इससे पहले देखा गया है और सम्भवतः न ही कभी देखा जा सकेगा। भारतीय इतिहास को जानने वाले महानुभाव इस पवित्र नाम से अपरिचित नहीं हो सकते, अतः मेरा यह आलेख 'पन्ना धाय' से अनभिज्ञ जिज्ञासु व्यक्तियों के लिए केवल पठनीय ही नहीं होगा, अपितु वह उस महान अलौकिक आत्मा का परिचय पाकर स्वयं को धन्य भी समझेंगे।       यहाँ, मेरे शहर उदयपुर में गोवर्धन सागर तलैया किनारे  सन् 1914 में निर्मित एक भवन में पन्ना धाय की गाथा कहती स्थायी प्रदर्शनी स्थापित की गई है। इस प्रकोष्ठ में पन्ना धाय से सम्बंधित एक डॉक्यूमेंट्री मूवी भी प्रदर्शित की जाती है। कल मैंने वहाँ जाकर पन्ना धाय को पुनः...

डायरी के पन्नों से ... "नदी और किनारा"

    मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है- मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!    (इस कविता में निहित पीड़ा के भाव को समझने के लिए इसका personification समझा जाना वाञ्छनीय है।)

डायरी के पन्नों से ... "उसकी दीपावली"

   कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से (आखिर हर कवि तो व्यवसाय-निपुण हो नहीं सकता)  क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी एक और अध्ययनकालीन रचना -             "उसकी दीपावली" आज  घरों  में  दीप  सजे थे, वैभव भी झलका पड़ता था। अमा-निशा  थी बनी सुन्दरी, यौवन भी छलका पड़ता था। कोई  ठहाके  लगा रहे  थे, बेकाबू  हो  कर  मनमाने। लिये  हुए  थे  कुछ बेचारे, होठों पर नकली मुस्कानें। यही देखता  इधर-उधर मैं, एक राह से गुज़र रहा था। कोट गरम पहने था फिर भी, सर्दी से कुछ सिहर रहा था। युवती  एक  चली आती थी, देखा  मैंने  पीछे  मुड़ कर। रुक-रुक कर चलता था उसका बच्चा उंगली एक पकड़ कर। अस्त-व्यस्त कपड़े थे उसके, पैबन्दों  से  सजे  हुए  थे। सीने में थी  विषम वेदना, अरमां उसके जले हुए थे। एक नज़र में उसे देख कर, आँखें  कुछ ऐसा कहती थीं। औरत थी कुछ अच्छे घर की, नहीं भिखारिन वह लगती थी। दो...

कल फिर बलात्कार हुआ...

       कल ही की तो बात है। कल प्रातः मैं अपने घर के अहाते में बैठा चाय की सिप लेता हुआ अखबार की ख़बरें टटोल रहा था कि अचानक वह हादसा हो गया।           एक तीखी चुभन मैंने अपने पाँव के टखने पर महसूस की। देखने पर मैंने पाया कि एक डरावना, मटमैला काला मच्छर मेरे पाँव की चमड़ी में अपना डंक गड़ाए बैठा था। मेरी इच्छा और सहमति के बिना हो रहे इस बलात्कार को देखकर मेरा खून खौल उठा और मैंने निशाना साधकर उस पर अपने दायें हाथ के पंजे से प्रहार कर दिया। बचकर उड़ने का प्रयास करने के बावज़ूद वह बच नहीं सका और घायल हो कर नीचे गिर पड़ा।          इस घटनाक्रम के दौरान दूसरे हाथ में पकड़े चाय के  कप से कुछ बूँदें अखबार के पृष्ठ पर गिरीं। आम वक्त होता तो  उन अदद अमृत-बूंदों के व्यर्थ नष्ट होने का शोक मनाता, लेकिन उस समय मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण था धरती पर गिरे उस आततायी को पकड़ना। मैंने चाय का कप टेबल पर रखकर उस घायल दुष्ट को पकड़ कर उठाया और बाएं हाथ की हथेली पर रखा। मेरी निगाहों में उसके प्रति घृणा और क्रोध था पर फिर भी ...

डायरी के पन्नों से... 'कविता मैं कैसे लिखूँ ?'

   सन् 2012 में दामिनी (निर्भया) का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, सन् 2017 में मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, सन् 2019 में डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुआ हादसा, धर्मांध भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फँसा कर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले भ्रष्ट बाबा...और ऐसे सभी दुराचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन व्याकुल होकर पूछता है- 'जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही राम और कृष्ण की वह धरती है?'     ...इन सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार... 'कविता मैं कैसे लिखूं?'         दामिनी  की चीख अभी  भी, गूँजती  हवाओं  में,   प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में,  नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख़्वाब नहीं  मिलते,  कविता  मैं  कैसे  लिखूँ , अलफ़ाज़ नहीं  मिलते।   डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानो...

डायरी के पन्नों से ..."पांच सूत्री कार्यक्रम"

     विषय भी पुराना है, सन्दर्भ भी पुराना है और मेरी यह व्यंग्य-रचना भी पुरानी है- स्व. श्री संजय गांधी (स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के पुत्र ) के समय की....लेकिन आज भी लोगों में कहीं-न-कहीं वही सोच काम करती है।                        

डायरी के पन्नों से..."प्यार तुझे सिखला दूंगा"

मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी युवावस्था में इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था।                 ख़ामोशी   में    रहने  वाले, घुट-घुट  आहें  भरने  वाले, नफ़रत  सबसे  करने वाले, प्यार  तुझे   सिखला  दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफ़रत की, कब तूने  खुद को जाना है? तू  क्या  है,  तुझमें  क्या  है, तुझको   मैंने   पहचाना  है।  होठों  पर उल्लास  बहुत है, आँखों  में  विश्वास  बहुत  है, तेरे  दिल  में  प्यार बहुत है, यह   भी   मैं  दिखला दूँगा।                           ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर  थोड़ा साहस  तुझमें है, दुनिया  जो चाहे  कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-...

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं, जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।... कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान) लगभग हो चुकी थी, लेकिन सभी लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में अपनी यह कविता सुनाई। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में। उन सभी का नाम (गहरे अंकित शब्द) आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में। ... और मैं चुनाव जीत गया था ।                 'एक रात...' मैं पर्वत की एक शिला पर, कुछ बैठा, कुछ सोया था। अब कैसे तुमको बतलाऊँ, किन सपनों में खोया था ? नीलगगन पर चमकी  अलका , बन...