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क्या ईश्वर है?

क्या ईश्वर की सत्ता और उसके अस्तित्व के प्रति मन में संदेह रखना बुद्धि का परिचायक है? ईश्वर की सत्ता को नकारने वाला, कुतर्क युक्त ज्ञानाधिक्यता से ग्रस्त व्यक्ति वस्तुतः कहीं निरा जड़मति तो नहीं होता? आइये, विचार करें इस बिंदु पर।  मैं कोई नयी बात बताने नहीं जा रहा, केवल उपरोक्त विषय पर अपने विचार व्यक्त करना चाहता हूँ। हम जीव की उत्पत्ति से विचार करना प्रारम्भ करेंगे। इसे समझने के लिए हम मनुष्य का ही दृष्टान्त लेते हैं।  एक डिम्बाणु व एक शुक्राणु के संयोग से मानव की उत्पत्ति होती है। बाहरी संसार से पृथक, माता के गर्भ में एक नया जीवन प्रारम्भ होता है। जीव विज्ञान उसके विकास को वैज्ञानिक रूप से परिभाषित तो करता है, किन्तु जीवन प्रारम्भ होने के साथ भ्रूण का बनना और उससे शिशु के उद्भव की प्रक्रिया जितनी जटिल होती है, इसे पूर्णरूपेण स्पष्ट नहीं कर सकता। शिशु का रूप लेते समय विभिन्न अंगों की उत्पत्ति व उनका विकास प्रकृति का गूढ़ रहस्य है। शिशु के हाथ वाले स्थान पर हाथ निर्मित होते हैं व पाँव वाले स्थान पर पाँव। आँखें, कान व नाक भी चेहरे पर ही बनते हैं, किसी अन्य स्थान पर नहीं। यदि प्राणी जगत

मुझसे रूठी मेरी कविता (लघु कविता)

                 'मुझसे रूठी मेरी कविता'                                                                                              नैन  तुम्हारे किससे उलझे, क्यों पास मेरे तुम ना आती?  तुम ऐसी छलना नारी हो, डगर-डगर फिरती मदमाती।  हर दिन औ' हर रात-सवेरे, नई  राहों  से निकल जाती।  मैं तुम्हारा  सन्त  उपासक, तुम औरों  के दर इठलाती।  रातें  कितनी  भी  गहराएँ, आँखों  में  नींद  नहीं आती।  काव्य-कविता नाम तुम्हारा,तुम रसिकों का मन बहलाती। बाट जोहती कलम हमारी, क्यों हमको इतना तरसाती? चाहे तुम कितना भी रूठो,लेकिन मुझको अब भी भाती।                                       *******

संवेदना

   कदम-कदम पर जब हम अपने चारों ओर एक-दूसरे को लूटने-खसोटने की प्रवृत्ति देख रहे हैं, तो ऐसे में इस तरह के दृष्टान्त गर्मी की कड़ी धूप में आकाश में अचानक छा गये घनेरे बादल से मिलने वाले सुकून का अहसास कराते हैं। मैं चाहूँगा कि पाठक मेरा मंतव्य समझने के लिए सन्दर्भ के रूप में अख़बार से मेरे द्वारा लिए संलग्न चित्र में उपलब्ध तथ्य का अवलोकन करें। एक ओर वह इन्सान है, जिसने एक व्यक्ति के देहान्त के बाद उससे अस्सी हज़ार रुपये में गिरवी लिये मकान पर अपना अधिकार कर उसकी पत्नी सोनिया वाघेला को परिवार सहित सड़क पर  बेसहारा भटकने के लिए छोड़ दिया और दूसरी ओर वह दिनेश भाई, जिन्होंने उस पीड़ित महिला की स्थिति जान कर अपनी संस्था एवं वाघेला-समाज के लोगों की मदद से सेवाभावी लोगों से चन्दा एकत्र कर आवश्यक धन जुटाया और उस परिवार का  घर वापस दिलवाया। धन्य है यह महात्मा, जिसने अपने नेतृत्व में अन्य सहयोगियों को भी मदद के लिए उत्साहित कर यह पुण्य कार्य किया।  सोनिया बेन घरबदर होने के बाद छः माह से फुटपाथ पर रह कर कबाड़ बीन कर अपने चार बच्चों के साथ गुज़र-बसर कर रही थी। इस लम्बी अवधि में कई और लोग भी उस महिला के हा

पड़ोसी की बदहाली (व्यंग्य लेख)

           पता नहीं, आप क्रिकेट के मैदान में रन कैसे बना लेते थे इमरान साहब! सियासत के मैदान पर तो आप लगातार क्लीन बोल्ड हो रहे हो। वैसे तो आपके मुल्क के अभी तक के सभी हुक्मरान उल्टी खोपड़ी के ही देखने में आए हैं। आप लोगों की हालत ऐसे आदमी जैसी है जिसके पास एक बीवी को खिलाने की औकात नहीं है और दो-तीन निकाह के लिये उतावला रहता है। तो, बड़े मियां, मानोगे मेरी एक सलाह? मौके का फायदा उठा कर ज़बरदस्ती कब्जाया POK लौटा दो हमारे भारत को। वैसे भी कड़की भुगत रहा इन्सान अपने घर की चीजें बेच कर अपनी ज़रूरतें पूरी करने को मजबूर हो जाता है। ... और फिर POK तो आपका अपना माल भी नहीं है, देर-सवेर हम वापस ले ही लेंगे आपसे। एक बात और कहूँ आप बुरा न मानें तो! देखिये, अमेरिका ने आपको घास डालनी बन्द कर दी है और आपको भी अच्छे-से पता है कि आपका वो गोद लिया पापा है न, क्या नाम है उसका, हाँ याद आया, 'चीन', तो वह तो मतलब का यार है आपका।...अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा आपके लिए! भुखमरी के आपके इन हालात में मैं आपको बमुश्किल दो-तीन हज़ार रुपये की अदद मदद कर सकता हूँ। सौ-पाँचसौ की बढ़ोतरी और भी करता, मगर क्या करूँ पें

'क्या पुरुष स्वभावतः क्रूर है?'

                                          इन दिनों कतिपय लेखिकाओं की कुछ ऐसी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है जिनसे प्रतीत होता है जैसे  महिला-वर्ग एक सर्वहारा वर्ग है। अधिकांश रचनाओं में उन्हें शोषित व पुरुष-वर्ग को शोषक के रूप में प्रक्षेपित किया जा रहा है। उन रचनाओं को पढता हूँ, किन्तु कितना भी अच्छा लिखा गया हो, यथासम्भव अपनी टिप्पणी देने से परहेज करता हूँ। उन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महिलाओं के सभी कष्टों का मूल पुरुष मात्र है। कुछ लेखिकाएँ निरन्तर किसी प्रताड़ित महिला के संपर्क में रही हों, ऐसा भी सम्भव है। उन रचनाओं में स्त्रियों को निरीह गाय व पुरुषों को क्रूर भेड़िये का प्रतीक बना दिया जाता है। कहीं-कहीं तो उनमें आक्रोश इस कदर नज़र आता है जैसे स्त्रियों को पुरुष का वज़ूद ही स्वीकार्य न हो। मन व्यथित हो उठता है यह सब देख कर!    हमें मनन करना होगा कि क्या सच में ही पुरुष स्वभाव से इतना आक्रान्ता है?    स्त्री विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, पुरुष के सहयोग से जीवन की उत्पत्ति की कारक है, वाहक है। अपने हर रूप में वह स्नेह व प्रेम के साथ ही शक्ति का अजस्र स्रोत है। वह स्वयं को

'रात्रि-कर्फ्यू'

                                                                      हमारे देश के कुछ प्रांतों के कुछ शहरों में कोरोना में हो रही बढ़ोतरी के कारण रात्रि का कर्फ्यू लगाया गया है। नहीं समझ में आ रहा कि रात्रि-कर्फ्यू का औचित्य क्या है? अब कर्फ्यू है तो आधी रात को बाहर जा कर देख भी तो नहीं सकते कि कौन-कौन सी दुकानें, सब्जी मंडियाँ व सिनेमा हॉल रात-भर खुले रहने लगे हैं या फिर लोग झुण्ड बना कर सड़कों पर कीर्तन कर रहे हैं। सरकार या प्रशासन, कोई भी जनता को इस रात्रि-कर्फ्यू का औचित्य या उपयोगिता नहीं बता रहा है।     जैसा कि टीवी में देखते हैं, दिन के समय पूरे देश में सड़कों पर, सब्जी मंडियों में और बाज़ारों में लोगों की रेलमपेल लगी रहती है। न तो लोगों के मध्य दो गज की दूरी होती है और न हर शख़्स ने मास्क पहना हुआ होता है। प्रशासन यह देख नहीं पाता, इसे रोक नहीं पाता। प्रशासन को लगता है, हमारे देश की जनता समझदार है, स्व-अनुशासित है। प्रशासन की इसमें शायद कोई ग़लती नहीं है क्योंकि यह देखने के लिए कि कोई कर्फ्यू तोड़ तो नहीं रहा है, वह रात को जागता है, परिणामतः दिन में उसे सोना पड़ता है। दिन-प्रतिदिन कोर

'नई चुनौती'

                                                                  अभी-अभी की ताज़ा खबर है कि लद्दाख में भारतीय व चीनी सैनिकों के पीछे हटने की प्रक्रिया के दौरान हुई एक झड़प में हमारी सेना का एक अफ़सर तथा दो सैनिक शहीद हो गये हैं। एक ओर दोनों देशों के फौजी उच्चाधिकारियों के मध्य स्थिति को सामान्य बनाने की प्रक्रिया के लिए बातचीत हो रही है वहीं दूसरी ओर लद्दाख में इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना होना चिंता का विषय है।    हमारा शान्तिप्रिय देश जहाँ एक ओर कोरोना के कारण उत्पन्न हुई विषम परिस्थितियों से जूझ रहा है तो दूसरी ओर सीमाओं पर विस्तारवादी चीन और आतंकपोषी पाकिस्तान जैसे कुटिल दुश्मनों के साथ एक नया नाम नेपाल का भी जुड़ गया है। वह नेपाल, जिसकी संस्कृति हमारे देश के अधिक निकट की रही है, गुमराह हो कर सम्भवतः चीन की शह पर ही हमें आँखें दिखाने लगा है।    स्थिति गम्भीर होती जा रही है। हमने देश के तीन सपूतों को खो दिया है। राजनैतिक स्तर पर हमारी सरकार व सीमा पर डटी हमारी बहादुर सेना, दोनों ही, स्थिति के समाधान के लिए मोर्चे पर डटी हुई हैं। अब हमें अपने स्तर पर यह सोचना चाहिए कि हम अपनी

कोरोना पर विजय

   कोरोना से कैसे जीत सकेंगे ?.... शासन को मेरा सुझाव - मुख्य बिन्दु :- 1) चिकित्सकों व अन्य स्वास्थ्य-कर्मियों तथा पुलिस-कर्मियों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें सभी उपकरण व सुविधाएँ दी जाएँ क्योंकि एक चिकित्सक सौ व्यक्तियों को व एक पुलिस-कर्मी दस व्यक्तियों को संक्रमण से बचा सकता है। यह दोनों वर्ग जी-जान से अपने कार्य-क्षेत्र में जूझ रहे हैं। राजनीति व धर्म दोनों को एक ओर रखा जा कर दोनों वर्गों के कार्य में व्यवधान डालने का प्रयास करने वालों को तुरंत कठोर दण्ड दिया जाये।  2) दुग्ध-उत्पादकों तथा अन्य खाद्य व जीवनोपयोगी आवश्यक पदार्थों के उत्पादकों के उत्पादन उनसे क्रय किये जा कर जनता को उपलब्ध कराने की समुचित व्यवस्था की जावे। इस कार्य की सही पालना हो, इस बात का कठोरता से सुपरविज़न किया जावे।  3) लॉक डाउन की अवधि आवश्यक रूप से और आगे बढ़ाई जावे और इसकी सख्ती से पालना कराई जावे।  यह असम्भव नहीं है, यदि सरकार अपनी पूरी इच्छा-शक्ति से इस पर अमल करेगी तो कोरोना (कोविड-19) समूल रूप से नष्ट हो सकेगा।

कल क्या होगा...???

                                                                मानव-समाज के विनाश के लिए कोविड-19 का विष-पाश जिस तरह से सम्पूर्ण विश्व को जकड़ रहा है उससे उत्पन्न होने वाली भयावह स्थिति की कल्पना मैं कर पा रहा हूँ। विशेषतः मैं अपने देश भारत के परिप्रेक्ष्य में अधिक चिंतित हूँ, क्योंकि यहाँ कई लोग इस महामारी की गम्भीरता का सही आंकलन नहीं कर पा रहे हैं।    ईश्वर करे, मेरा यह चिन्तन निरर्थक प्रमाणित हो, किन्तु कहीं तो अज्ञानवश व कहीं धर्मान्धता के कारण जो हठधर्मिता दृष्टिगत हो रही है वह एक अनियंत्रित दीर्घकालीन विनाश के प्रारम्भ का संकेत दे रही है।    कोरोना-संक्रमण के परीक्षण के अपने नैतिक कर्तव्य की पालना के लिए कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों और उनकी सुरक्षा के लिए सहयोग कर रहे पुलिस कर्मियों पर बरगलाये गए एक धर्मविशेष के कुछ लोगों द्वारा जिस तरह से पथराव कर आक्रमण किया गया, वह घटना कुछ ऐसा ही संकेत देती है। दिल्ली में निजामुद्दीन में  एकत्र हुए तबलीग़ी   जमात के लोग, जिनमें से 1०० से अधिक लोग कोरोना-संक्रमित चिन्हित भी हुए, देश के अन्य राज्यों में अनियंत्रित रूप से प्रवेश कर गए हैं। क

कश्मीरियत सुरक्षित रहे - 'एक चिन्तन'

                                                 हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित धारा 370 को समाप्त/अप्रभावी किये जाने के विषय पर साहसिक निर्णय ले ही लिया। दिनांक 5 अगस्त, 2019 को  देश की जनता की चिरप्रतीक्षित साध पूरी हुई। कुछ मंद-बुद्धि व भ्रमित या यूँ कहें कि निहित स्वार्थ से ग्रसित व्यक्तियों के अलावा भारत देश के हर शहर, हर गाँव में समस्त जन-समुदाय ख़ुशी से चहक रहा था, सब का चेहरा गर्व और सन्तोष की आभा से दसमक रहा था। अन्ततः पुरानी, परिस्थितिजन्य भूल का परिमार्जन हो गया व जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के दूषित बन्धन से मुक्त कर उससे लद्दाख को पृथक किया गया तथा दोनों को केन्द्र-शासित राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा गया जो राज्य-सभा में उसी दिन पारित हो गया। कल लोक-सभा में भी इसे बहस के बाद पारित कर दिया गया तथा राष्ट्रपति जी के हस्ताक्षर के बाद वैधानिक रूप से मान्य हो गया है।      धारा 370 के प्रभावी रहते देश के जम्मू-कश्मीर राज्य को कुछ ऐसी शक्तियाँ मिली हुई थीं कि भारत का राज्य होते हुए भी भारतीय संविधान के कई प्रावधान वहाँ अ

डायरी के पन्नों से ... "चुनावी मौसम आ रहा है..."

चुनाव से पहले एक बार फिर सावधान करता हूँ दोस्तों!  दस  आगे,  दस  पीछे  लेकर, वह  तुम्हें  रिझाने  आयेंगे।  चिकनी-चुपड़ी बातें कह कर, कुछ सब्ज बाग़ दिखलायेंगे। कौन सही है, कौन छली है, सोच-समझ कर निर्णय करना, भस्मासुर  पैदा  मत   करना, अब  हरि  न  बचाने  आयेंगे।।

डायरी के पन्नों से ... "कविता क्या है?"

  कविता क्या है? -  चार पंक्तियों में मेरी अभिव्यक्ति (नई रचना)---  छोटे गड्ढे, कुछ नालों से, नहीं कभी सरिता बनती। कुछ शब्दों की तुकबंदी से, कभी नहीं कविता रचती। पत्थर-दिल को  पिघला दे जो, रोते को बहलाती है। कायर दिल में शोला भर दे,वह कविता कहलाती है।।

डायरी के पन्नों से ... शौर्य-गान- "यह कश्मीर हमारा है"

    देश  के दुश्मनों के विरुद्ध आह्वान है मेरा देश के हर नौनिहाल से, क्योंकि दिन-ब-दिन सीमा पर जान गंवाने वाले शहीदों का लहू मुझे उद्वेलित करता है, मुझे चैन से सोने नहीं देता! समर्पित है उनको मेरी यह कविता- "यह कश्मीर हमारा है" कण-कण से आवाज़ उठी है,    यह कश्मीर हमारा है।। दया दिखाते दुश्मन को पर,  सीना वज्र भयंकर है। हर बच्ची वीर भवानी है, हर बच्चा शिवशंकर है। जितेन्द्रिय है,अविनाशी है, मृत्युंजय,  प्रलयंकर है। हमने उसे उबार लिया है, जिसने हमें पुकारा है।             "कण-कण से... " नहीं कभी हम डिगने वाले, आतंकी  फुफकारों  से। नहीं कभी हम डरने वाले, गोली  की  बौछारों  से। नहीं  कटेंगे वक्ष हमारे, बरछी, तीर, कटारों से। जान लगा देंगेअपनी हम, देश जान से प्यारा है।             "कण-कण से..." कश्मीर को तो भूल ही जा, हम पीओके भी ले लेंगे।  हमारे नन्हे-मुन्ने कल को, लाहौर कबड्डी खेलेंगे।  दिन दूर नहीं जब हम तेरे  चीनी अब्बा को पेलेंगे।  देख हमारी आँखों में अब, दहक रहा अंगारा है।  &q

तुम्हें निर्धारित करना है...

    कलर टीवी पर प्रसारित किये जा रहे धारावाहिक 'चक्रवर्ती अशोक सम्राट' के मेधावी  किशोर नायक अशोक के साथ चाणक्य के आज के संवाद का एक अंश, जिसने मेरे मन-मस्तिष्क को कुछ आन्दोलित-सा कर दिया है, प्रस्तुत कर रहा हूँ। चाणक्य अशोक को इस कहानी में परिस्थिति की तत्कालीन विषमता को समझाते हुए निम्नांकित वाक्य के साथ अपना उद्बोधन समाप्त करते हैं -     ' तुम्हें निर्धारित करना है कि आने वाली पीढ़ियों को तुम कैसा राष्ट्र सौंप कर जाओगे!'       क्या आज की परिस्थिति में या किसी भी देशकाल में किसी भी राष्ट्र के लिए यह बात सन्दर्भ नहीं रखती? अवश्य रखती है, बस देश व देशवासियों को प्यार करने वाला, संकल्पित व्यक्तित्व का स्वामी एक.…एक अशोक होना चाहिए और होना चाहिए दूरदर्शी, समर्पित और नीतिवान कुशल राजनीतिज्ञ एक चाणक्य!    ऐसा हुआ, तो क्या मौर्यकालीन 'स्वर्ण-युग' पुनः लौट कर नहीं आ जायेगा !    मेरे देश के कर्णधार! आज की युवाशक्ति! तुम्हें...यह तुम्हें निर्धारित करना है....

सज़ा-ए-मौत ...

 प्रबुद्ध मित्रों,  निम्नलिखित आलेख यद्यपि कुछ विस्तार ले गया है फिर भी चाहूंगा कि आप इसे पढ़ें और मेरे विचारों से सहमति / असहमति से अवगत करावें।    जघन्य अपराधी को भी फांसी न दी जाय और फांसी के दंड का प्रावधान ही समाप्त कर दिया जाये, इस मत के समर्थकों को गहन चिकित्सा सहायता की आवश्यकता है। यदि चिकित्सा से भी उपचार न हो पाये तो ऐसे रोगियों में से कुछ के दिमाग को सर्जरी के द्वारा खोला जाकर गहन अध्ययन किया जाना चाहिए कि कौन से कीटाणुओं ने इनकी सोच को विवेकहीन बना दिया है।     मुझे बहुत उद्वेलित कर दिया है उन दिग्भ्रमित लोगों के comments ने, जो आतंककारी याकूब की फांसी के मसले में मूलतः अपनी-अपनी  रोटी सेंकने के मकसद से किये गये हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसे  comments उन लोगों ने भी किये हैं जो कानून की बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ने के बाद अरसे तक न्यायालयों को अपने तर्कों से विचारने को विवश करने की क्षमता रखते हैं। अपराधियों को बचाने के लिए कानून को तोड़ने-मरोड़ने की रणनीति का उपयोग करना और झूठ से आच्छादित व्यूह-रचना कर सत्य को असत्य और असत्य को सत्य में तब्दील करना इनके पेशे की मज

फिर लौट के आना...

   हरदिल-मसीहा कलाम साहब!     स्वार्थ और छलावे से भरी इस बेमुरब्बत दुनिया को छोड़ जाने का आपका निर्णय कत्तई गलत नहीं कहा जा सकता। मुझे याद आता है वह गुज़रा हुआ कल जब आपको दूसरी बार राष्ट्रपति बनाने के प्रस्ताव का कुछ मतलबपरस्त लोगों ने विरोध किया था। वैसे भी आपने तो निर्लिप्त भाव से कह ही दिया था कि सर्वसम्मति के बिना आप दुबारा राष्ट्रपति बनना नहीं चाहते। आप जैसे निष्पक्ष और स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खुदगर्ज राजनीतिबाजों ने पुनः अवसर देने से रोक कर आपको फिर से राष्ट्रपति के रूप में दे खने से देश को महरूम कर दिया था। उन लोगों ने भी आपके चले जाने पर मगरमच्छी आंसू ज़रूर गिराये होंगे पर क्या आपके प्रति कृतज्ञ यह देश उन्हें क्षमा कर सकेगा?    आप चले तो गए हैं पर हर देशभक्त भारतवासी के मनमन्दिर में फ़रिश्ते की मानिन्द ताज़िन्दगी मौजूद रहेंगे।    फिर लौट के आना कलाम साहब,अब आपकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं होने देंगे हम !!!  frown emoticon   frown emoticon   frown emoticon

राजनीति ने एक खूबसूरत करवट ली है...

 दिल्ली की प्रबुद्ध जनता ने 'मफ़लरमैन' को अपना नेता चुन लिया है- एक बुद्धिमतापूर्ण, दूरदर्शिता से परिपूर्ण चयन। हार्दिक बधाई ! यह कहते हुए मैं गर्व अनुभव कर रहा हूँ कि मेरा सम्पूर्ण विश्वास जिसके साथ  खड़ा था, वह नायक जीत गया। मेरे मित्र कह रहे हैं- 'करिश्मा हो गया', लेकिन मैं इससे सहमत नहीं क्योंकि हुआ वही है जो होना था, होना चाहिए था। पूर्व में अनुशासित कही जाने वाली पार्टी के एक असभ्य नेता ने इस नायक के लिए 'हरामखोर' तथा शीर्ष पर विराजमान नेता ने 'बाज़ारू' शब्दों का जब प्रयोग किया था, उस पार्टी की हार तभी तय हो गई थी। किरण बेदी जो कभी केजरीवाल की हमराह थीं, वह भी केजरीवाल को 'भगोड़ा' कहने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने यह भी कहा था कि केजरीवाल का स्तर उनसे बहस करने लायक नहीं हैं। खैर, बेदी तो मोहरा बनाई गई थीं, यह हार तो बीजेपी की समग्र हार है। अहंकार कभी विजयी नहीं हो सकता। केजरीवाल को भगौड़ा, नौटंकी, खुजलीवाल, जैसे अभद्र सम्बोधन देने वाले कटुभाषी भी अवाक् हैं, उनकी वाणी स्पंदन खो चुकी है।     देश भर से बुलाये गए अपने नेताओं की सम्पूर्ण शक्ति लगा

जनता को तलाशना होगा ...

    'जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए' -  प्रजातन्त्रीय शासन की यह परिभाषा मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह परिभाषा अपना अर्थ खो चुकी है। 'जनता के द्वारा' चुन कर निर्मित हुआ शासन-तंत्र अब 'जनता का' नहीं होकर, कुछ लोगों का शक्ति-केंद्र बन जाता है और 'जनता के लिए' नहीं होता, अपितु एक वर्ग-विशेष को साधन-संपन्न बनाने के लिए काम करता है। दुर्भाग्य से जनता इसे अपनी नियति मान लेती है और पांच वर्षों तक प्रतीक्षा करती है अगले चुनाव की, पांच वर्षों तक दुबारा ठगे जाने के लिए। यह सिलसिला अब तक यूँ ही चलता आया है। राजनैतिक दल एक ही विषैले साँप के बदले हुए रूप हैं जो अपनी केंचुली बदल कर क्रम से आते और जाते हैं।    दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद शुक्ल की नैतिकता एवं अटल बिहारी बाजपेयी की ईमानदारी और राजनैतिक उदारता आज के वरिष्ठ बीजेपी के नेताओं में ढूंढे से भी नहीं मिलती। इसी प्रकार लाल बहादुर शास्त्री की चारित्रिक दृढ़ता व सरलता तथा प्रियदर्शिनी इंदिरा गाँधी के नेतृत्व की ओजस्विता को आज के शीर्ष कॉन्ग्रेसी नेताओं में खोजना समय को जाया करना मात्र है। इंदिर

आओ, कुछ अच्छा करें …

    नव वर्ष में सब-कुछ अच्छा-अच्छा हो, इस सुखद कामना के साथ ही एक पुराना दर्द जहन में उभर आया....गोधरा-काण्ड !     गोधरा हत्या-काण्ड का दर्द कभी भुलाया नहीं जा सकता। हमारे भाइयों ने जिस तरह की पीड़ा भोग कर अपने प्राण गंवाए होंगे, उस पीड़ा के जिम्मेदार बहशी राक्षसों को कैसे कोई क्षमा कर सकता है ? यह भी न्यायसंगत होता कि ऐसे पिशाचों को पहचान कर उन्हें भी ऐसी ही मौत दी जाती, भले ही सभ्य समाज का कानून इसकी इज़ाज़त नहीं देता। लेकिन उनके समाज के लोगों में से जिनको ऐसी ही यातनापूर्ण मौत बदले की परिणिति में मिली, उनमें से भी तो कई लोग निर्दोष रहे होंगे। क्या ऐसा बदला जिसमें एक के अपराध की सज़ा किसी दूसरे निर्दोष व्यक्ति को मिले, किसी भी दृष्टिकोण से न्यायोचित कहा जा सकता है ? अपराधी का कोई धर्म नहीं होता और किसी भी धर्म में सभी अपराधी नहीं होते। हमें प्रयास करना होगा कि नफरत के इन अंगारों को हमेशा-हमेशा के लिए दफ़न कर दिया जाये और हम मिल-जुल कर प्यार के साथ रहना सीखें। हमें और मुस्लिम समाज को इस देश में जब साथ-साथ ही रहना है तो वैमनस्य की आग को बनाये रखना क्या दोनों ही सम्प्रदायों के लिए आत्मघात