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'कुछ मन की बात...' (लेख)

 


एक अन्तराल के बाद मित्र त्रिलोचन जी घर आये थे। हम दोनों बाहरी दालान में बैठे थे। कुछ बातचीत शुरू हो उसके पहले मैंने पूछा- "क्या लोगे मित्र, चाय या कॉफी?"

"नहीं यार, कुछ भी नहीं। बस पानी पिला दो, बहुत प्यास लग रही है।"

मैं गिलास में पानी ले कर आया, तो त्रिलोचन जी बोले- "यह क्या? तुम तो यह पानी गाय के तबेले से निकाल कर लाये हो। यह क्या बेहूदगी है?"

"अरे, तुमने देखा नहीं, मैंने इसका संक्रमण मिटाने के लिए इसमें कुछ कण पोटेशियम परमेंगनेट के डाल दिए हैं। थोड़ी बदबू ज़रूर है, लेकिन नाक बन्द कर के पी सकते हो।"

"बहुत हो गया। कौन-सी दुश्मनी निकाल रहे हो? मैं चलता हूँ।" -नाराज़ हो कर वह उठ खड़े हुए। 

"बैठो, बैठो मित्र, नाराज़ मत होओ। पहले यह बताओ, इसे पीने से तुम्हारी प्यास तो बुझ जाती न?" 

"तो क्या प्यास बुझाने के लिए कुछ भी पी लूँगा?" -अनमने ढंग से कुर्सी पर वापस बैठते हुए त्रिलोचन जी ने कहा।

"यार, एक बात बताओ। तुम्हारे व्हॉट्सएप मैसेज में कल जब मैंने हिन्दी की दो अशुद्धियाँ बताई थीं, तो तुमने कहा था कि अशुद्धि होने से क्या होता है, मतलब तो समझ में आ जाता है न?"

"तो?" -उन्होंने आश्चर्य से मेरी और देखा। 

"तो यह कि जैसे प्यास बुझाने के लिए वह तबेले का पानी ग्राह्य नहीं है, वैसे ही अशुद्ध हिन्दी भी हमारे लिए स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए, भले ही समझ में आ जाती हो। काम चलने की भद्दी सोच ने ही तो हमारी इस सुन्दर, वैज्ञानिक भाषा की प्रगति को बाधित कर दिया है, इसकी नैसर्गिकता को नष्ट करने का प्रयास किया है।"

त्रिलोचन जी के ज्ञान-चक्षु अब खुल चुके थे। 

"क्षमा करना यार, मुझसे भूल हो गई थी।... लेकिन अब तो शुद्ध पानी पिला दो।" -हौले से मुस्कुरा कर वह बोले। 

मैं हँसते हुए उठा और उनके लिए पानी ले कर आया। इसके बाद हमने चाय भी पी। कुछ देर की गप-शप के बाद वह गले मिले और दुबारा क्षमा मांग कर चले गए। 

मेरी बात मात्र त्रिलोचन जी से ही सम्बन्ध नहीं रखती। टंकण-त्रुटि की बात पृथक है (यद्यपि लिखने के बाद अपने लेखन का सम्पादन वांछनीय है), किन्तु त्रिलोचन जी के जैसी ही धारणा व मान्यता के पोषक कई और लोग भी हैं। सभी लेखक मित्रों में से उन लेखकों से, जो मेरे निम्नाङ्कित लेख से कहीं न कहीं अपना अप्रिय जुड़ाव पाते हैं, क्षमा चाहते हुए अपनी बात कहना चाहता हूँ। 

 मैंने मीडिया के कुछ पटलों पर, बाजार की दुकानों पर, बस स्टैण्ड, आदि कई स्थानों पर लिखे हिन्दी के कई शब्दों में अशुद्धियाँ देखी  हैं। और तो और, मात्रा और अनुस्वार के सही प्रयोग की जानकारी की जो अपेक्षा उच्च प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों से की जाती है, उसका अभाव सामान्य जानकारी रखने वाले हिन्दी-भाषी लोगों में दृष्टिगोचर हो, तो समझा जा सकता है, किन्तु मीडिया पर स्वयं को कवि और कहानीकार कहला  कर 'अद्भुत', 'बहुत खूब', 'क्या बात है' आदि शब्दों से वाहवाही पाने वाले महानुभाव ऐसी त्रुटियाँ कर के भी क्योंकर आत्ममुग्ध होते हैं, यह बात समझ से बाहर है। 

एक दृष्टान्त-

 ऐसे लोग लिखते हैं- 'में चाहता हु की आज कूछ नसा कर के खुब नाचु।'

इस वाक्य में बहुत अशुद्धियाँ हैं। अतिशयोक्ति न मानें, वाकई कुछ लोग ऐसी ही कुछ तो ग़लतियाँ किया करते हैं। आप समझ ही सकते हैं, सही वाक्य होना चाहिए था-  'मैं चाहता हूँ कि आज कुछ नशा कर के खूब नाचूँ।' 

और भी देखिये-

'मैंने पिया' लिखने वाला लेखक 'मेरे पिया' लिखना चाहता था या 'मैंने पीया', पढ़ने वाला पाठक यह बात कैसे जाने? 'पिया' और 'पीया' शब्दों का तो अर्थ ही भिन्न है। 'पिया' पति को कहते हैं और 'पीया' पीने की प्रक्रिया है। इसी प्रकार कपड़ा सीया जाता है, न कि सिया जाता है। अरे भई, सिया तो भगवान श्रीराम की भार्या थीं। 

ऐसे दृष्टान्त प्रस्तुत करता रहा, तो एक ग्रन्थ तैयार हो जाएगा। वैसे शत-प्रतिशत सही और शुद्ध लिखने का दावा मैं स्वयं के लिए भी नहीं करता। हो सकता है, कभी मुझसे भी कोई ग़लती हो जाए, पर अपना सौ प्रतिशत प्रयास तो हम कर ही सकते हैं।

अपने हाथ में कागज़ व कलम थाम कर या मोबाइल पर उंगलियाँ दौड़ा कर हर घर में कवि/ कहानीकार कुकुरमुत्ते की तरह पैदा हो रहे हैं। जनगणना जिस तरह से की जाती है, उस तरह से यदि ऐसे तथाकथित साहित्यकारों की गणना हो, तो भी वर्तमान में उनकी संख्या पचास-साठ लाख से कम नहीं होगी और यदि सत्यनिष्ठा से गणना की जाय, तो सम्भवतः यह संख्या एक करोड़ के आँकड़े को पार कर जायगी। 

उधर, अतुकान्त कविता तो बेचारी अपनी दशा पर जार-जार रो रही है। कुछ उच्च (😜) कोटि के कवि गद्य की एक पंक्ति (मैं जब बगीचे में गया तो देखा, कुछ पौधों की शाखाओं पर विभिन्न प्रकार के सुन्दर, सुगन्धित पुष्प लहलहा रहे थे) को जिस तरह से अतुकांत कविता में बदल कर लिखते हैं, उसकी बानगी देखिये-

 'मैं जब 

बगीचे में गया 

तो देखा, 

कुछ पौधों की 

शाखाओं पर 

विभिन्न प्रकार के 

सुन्दर, 

सुगन्धित 

पुष्प 

लहलहा रहे थे।'

लीजिये साहब, बन गई अतुकान्त कविता 😁।  

तो मेरे प्रिय मित्रों, लेखन के क्षेत्र में पदार्पण की शीघ्रता मत करो और पहले कुछ अच्छे रचनाकारों को पढ़ो। मन का अंधियारा छँट जायगा और धीरे-धीरे आप भी सही और अच्छा लिखने लगोगे। 

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