प्रथमेश शनिवार को हाफ डे की ड्यूटी कर जैसे ही ऑफिस से घर आया, बेटे अनमोल व बेटी रुचिता ने मूवी देखने थिएटर जाने की फरमाइश कर दी। प्रथमेश ने समझाया कि कल रविवार है, कल चलेंगे, पर दोनों बच्चों ने ज़िद पकड़ ली कि नहीं, मूवी तो आज और अभी ही देखेंगे। गर्मी का मौसम था, अभी ढ़ाई बज रहे थे, बाहर धूप भी तेज थी पर बच्चों के आगे तो माता-पिता को झुकना ही पड़ता है सो आकांक्षा ने पति से आग्रह किया- "बच्चे कह रहे हैं तो मान जाओ न, 'रोज़ थिएटर' में मूवी भी अच्छी लगी है। अभी फर्स्ट शो में भीड़ भी कम होगी। मूवी देखने के बाद डिनर भी बाहर ही ले लेंगे।" "अच्छा भई, जब सारी जनता की एक ही आवाज़ है तो अकेला यह बन्दा क्या कर सकता है! चलो, चलते हैं।" थिएटर पहुँचे तो बला की भीड़ थी। तीन बज रहे थे, मूवी का समय हो चुका था। लाइन में लग कर टिकिट मिलना मुश्किल था, अतः आपस में विचार-विमर्श करने लगे कि शाम के शो में आ जायेंगे। लौटने लगे तो अनमोल उदास हो गया। सब लोग लौटने वाले ही थे कि 'पान्सो में बालकनी , पान्सो में बालकनी...' -किसी ब्लेकिये की हाँक सुनाई दी। आकांक्षा ने सुझाव दिया