अपनी सरलता, सादगी पूर्ण शालीनता और विद्वता के लिए कभी नहीं भुलाये जा सकने वाले अद्वितीय अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कल प्रधानमंत्री पद से त्याग-पत्र दे दिया। शासन की अपनी प्रथम पारी की प्रशंसनीय सफलता के कारण ही पुनः प्रधानमंत्री मनोनीत हुए डॉ. सिंह अपनी पहली सफलता को दोहराने में असमर्थ रहे। इस असफलता के नैपथ्य में कई स्थानीय तो कई वैश्विक कारण जिम्मेदार रहे हैं।
डॉ. सिंह के प्रथम कार्यकाल की अवधि में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जिस गति से विकास हुआ उससे भारत को अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अत्यधिक प्रशंसा एवं सम्मान मिला। उनकी आर्थिक उदारीकरण की नीति ने कई क्षेत्रों में कामयाबी दिलाई तो कई में वह नाकाम भी रही। उनके शासनकाल में परमाणु मोर्चे पर सफलता की कड़ियाँ जोड़ने वाली उपलब्धि तो हासिल हुई, लेकिन बेरोजगारी और मंहगाई जैसी मूलभूत समस्याओं के निराकरण की कोई सार्थक नीति देश को नहीं मिल सकी। तथापि डॉ. सिंह की के समय की इस उपलब्धि को नहीं नकारा जा सकता कि उच्च आर्थिक विकास दर बनी रहने के कारण ही वर्ष 2007-08 के समय के वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में भी देश की स्थिति अन्य कई विकसित देशों की अपेक्षा बेहतर रही। लेकिन इसके बाद अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा के के चुनाव के दौरान एन्टी आउटसोर्सिंग अभियान का भारत पर प्रहारात्मक प्रभाव पड़ा। ऐसी कई परिस्थितियां रही हैं उनके समय की जिनके सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव से देश प्रभावित हुआ। इसके अलावा सम्भवतः वह कई बार अपनी इच्छा और क्षमता के अनुरूप काम कर भी नहीं पाये।
बहरहाल यह कहना समीचीन होगा कि डॉ. सिंह ने अपने उत्तरदायित्व के पहाड़ को ढ़ोने के दौरान विवशता के जिन क्षणों को जीया है उसके लिए संप्रग में शामिल सहयोगी दल भी काम जिम्मेदार नहीं हैं। हाँ, इस सीधे-सच्चे इंसान ने घुटा-घुटा सा यह विवश समय गुजारने की अपेक्षा अपने पद से त्यागपत्र बहुत पहले दे दिया होता तो अधिक सम्मान के साथ इसे याद किया जाता जिसका वह वास्तव में हक़दार है।
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