मैं अपने स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक कभी नहीं रहा हूँ, लेकिन जब डॉक्टर ने कहा कि अब बढ़ती उम्र के साथ मुझे कुछ सावधानियाँ अपने खान-पान में बरतनी होंगी तथा नित्यप्रति आधे घंटे का समय सुबह या शाम को भ्रमण के लिए निकालना होगा, तो मैंने पिछले एक सप्ताह से अपने शहर की झील 'फतहसागर' की पाल पर नियमित भ्रमण शुरू कर दिया। जुलाई माह समाप्ति की ओर था सो मौसम में अब गर्माहट नहीं रही थी। भ्रमण का भ्रमण होता, तो झील के चहुँ ओर प्रकृति की सायंकालीन छटा को निहारना मुझे बेहद आल्हादित करता था। मंद-मंद हवा के चलने से झील में उठ-गिर रही जल की तरंगों का सौन्दर्य मुझे इहलोक से परे किसी और ही दुनिया में ले जाता था। मन कहता, काश! डॉक्टर ने मुझे बहुत पहले इस भ्रमण के लिए प्रेरित किया होता!
मैं फतहसागर झील की आधा मील लम्बी पाल के दो राउण्ड लगा लेता था। इस तरह दो मील का भ्रमण रोजाना का हो जाता था। पिछले दो-तीन दिनों से मैं वहाँ टहलते एक बुजुर्ग को नोटिस कर रहा था। वह सज्जन, जो एक पाँव से थोड़ा लंगड़ाते थे, पाल के एक छोर से दूसरे छोर तक जाते, कुछ देर वहाँ विश्राम करते और फिर वापस लौट जाते थे। आते-जाते दोनों वक्त वह पाल पर बैठे या घूमते लोगों द्वारा कुछ खा-पी लेने के बाद फेंके गये कागज़, पॉलीथिन, आदि को उठा कर अपने साथ लाये एक थैले में इकठ्ठा करते थे और जाते समय एकत्रित कचरा नगर-निगम द्वारा रखवाये गये कचरा-पात्र में डालने के उपरान्त अपनी साइकिल लेकर अपने रास्ते चले जाते थे।

मेरा और उनका पाल पर आने का समय तक़रीबन एक ही था। पाल की बैंच पर बैठे लोगों के द्वारा गैरज़िम्मेदारी से वेस्ट फेंका जाना वह देखते थे तो भी उन्हें कुछ न कह कर अपना यह काम वह यंत्रवत् किया करते थे।
आज जब वह सज्जन आये, कुछ दूरी रखते हुए मैं भी उनके पीछे-पीछे पाल पर चलता रहा। हवा आज कुछ तीव्र गति से चल रही थी अतः पाल पर बैठे लोगों द्वारा फेंके गये कागज़ के टुकड़े व अन्य वेस्ट उड़ कर झील में भी गिर रहे थे इसलिए वह सज्जन और भी अधिक तत्परता से पाल पर पड़ा हुआ कचरा बदस्तूर उठाते चले जा रहे थे। मैंने ध्यान दिया तो पाया कि कई लोगों पर तो इस बुज़ुर्ग के कार्य-कलाप का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था, किन्तु कुछ लोगों ने उन्हें वहाँ से कचरा उठाते देख अपने द्वारा प्रयुक्त पदार्थ का वेस्ट वहाँ न फेंक कर अपने हाथ में ही रख छोड़ा था (शायद बाद में कचरा-पात्र में फेंकने के उद्देश्य से)। मुझे यह देख कर प्रसन्नता हुई कि चलो कुछ लोगों को तो शर्म महसूस हुई।
"आप कब से यहाँ आ रहे हैं श्रीमान?"- कुछ बेतकल्लुफी से मैंने पूछा।
हल्की सी स्मित चेहरे पर ला कर वह सज्जन बोले- "मेरा नाम मानवेन्द्र शर्मा है। आप मुझे 'मानव' कह कर पुकार सकते हैं। आपका शुभ नाम क्या है?"
अपने प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही पा कर भी असहज नहीं हुआ मैं, मुस्कराते हुए बोला- "जी, मेरा नाम अविनाश है, अविनाश त्रिवेदी!... वैसे ,मानव जी, नाम तो आपका मानव है ही, मानव कहलाने का पूरा हक़ भी रखते हैं आप!"
"ऐसा क्यों लगा आपको?"
"मैं आपको दो-तीन दिन से लगातार देख रहा हूँ कि लोगों के द्वारा पाल पर फेंके गये कचरे को आप रोज़ाना उठाते हैं व ले जा कर कचरा-पात्र में डालते हैं। समर्पित भाव से रोज़ ही ऐसा करने वाला व्यक्ति सही मायने में मानव ही कहलायेगा न!"
मेरे स्वर में उनके लिए आये सम्मान से कुछ विचलित से लगे वह, कुछ क्षण मौन रह कर विषय बदल कर बोले- "आपने पूछा था, मैं यहाँ कब से आ रहा हूँ?... मैं छः माह पूर्व ही उदयपुर शिफ़्ट हुआ हूँ और लगभग तभी से यहाँ घूमने आ रहा हूँ।"
बातचीत से मानवेन्द्र जी सौम्य व अच्छे परिवार के लग रहे थे।
"यदि आप अन्यथा न लें तो जानना चाहूँगा कि छः माह पूर्व आप कहाँ थे।"
"मैं अजमेर का रहने वाला हूँ, पहले हम लोग वहीं रहते थे। अब मेरा बेटा भारतेन्दु , जो पिछले बीस वर्षों से अमेरिका में जॉब कर रहा था, भारत लौट आया है। यहाँ उदयपुर में उसने अपना स्वयं का काम शुरू किया है अतः मैं भी सपत्नीक यहाँ आ गया हूँ।"
"ओह! अच्छा लगा जान कर।... मानव जी, एक बात बतायेंगे आप? आप चुपचाप यहाँ की पाल पर लोगों के द्वारा फेंके गये कचरे को उठाते हैं, उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह क्यों नहीं देते?"
"ह ह ह... जब मैं अजमेर में रहता था तब वहाँ की आनासागर झील पर भी इसी तरह टहलने जाया करता था। वहाँ मैंने एक दिन कुछ लड़कों को नहाने के बाद झील में कपड़े धोने से रोकने की कोशिश की थी, किन्तु उनमें से एक लड़का मेरे साथ बहुत ही असभ्यता से पेश आया था। तब से मैंने किसी को भी टोकने से तोबा कर ली। हमें यह तो पता ही है अविनाश जी कि हमारी गंगा नदी सहित कितनी ही नदियों का पानी हम सब की लापरवाही के चलते हद दर्जे तक दूषित हो चुका है। जल-प्रदूषण के कारण जलीय जीवों और जलीय पौधों पर ही नहीं, मानव-जीवन पर भी कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, यह भी हम अच्छी तरह से जानते हैं। जल-प्रदूषण के अलावा हम लोग कारखानों का धुआँ व अन्य कारकों के जरिये वायु को भी खतरनाक दर्जे तक प्रदूषित कर रहे हैं। हमारे देश की राजधानी दिल्ली में वायु-प्रदूषण के कारण लोगों का जीना किस कदर दूभर हो रहा है, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। तो अविनाश जी, केवल सरकार को दोष दे कर हम अपने दायित्व से बचने की कोशिश कब तक करेंगे? मैं जो कुछ कर सकता हूँ, कर रहा हूँ और मुझे इससे संतोष मिलता है। अन्य लोग मुझसे प्रेरणा लें या न लें, मुझे तो अपना काम करना है।"
मैं इस मनस्वी की इच्छा-शक्ति के आगे निःशब्द था।
"आपके पाँव में तकलीफ़ क्या बचपन से ही है मानव जी?"- अनायास ही मेरा ध्यान उनके पाँव की ओर गया।
मेरा प्रश्न सुन कर मानवेन्द्र जी के चेहरे पर विषाद की रेखाएँ खिंच आईं। उनकी नज़रें अनायास ही आकाश की ओर उठ गईं।
"क्षमा करें, मैंने व्यक्तिगत प्रश्न पूछ कर आपको व्यथित कर दिया।"
"नहीं अविनाश जी, आप परेशान न हों। दरअसल इसके पीछे मेरे जीवन का एक दर्दनाक वाक़या छिपा है। एक ऐसा वाक़या, जिसने हमारे परिवार में तबाही ला दी थी।" -मानवेन्द्र जी की मुखमुद्रा अब अपेक्षाकृत शांत दिख रही थी पर उनकी आँखें बता रही थीं कि उनके मस्तिष्क में कई तूफ़ान उमड़ आये थे।
"आपके बेटे ने किस तरह का व्यवसाय शुरू किया है यहाँ?" -उनकी मनःस्थिति देख मैंने विषय बदलने का यत्न किया।
"वह आईटी क्षेत्र में काम कर रहा है।... आपने बात बदलने की कोशिश की है, किन्तु आपने जब पूछा ही है तो मैं बताऊँगा आपको कि क्या गुज़रा था हमारे साथ।"
मैं उत्सुकता से उनकी ओर देख रहा था।
दो मिनट की ख़ामोशी के बाद मानवेन्द्र जी ने कहना शुरू किया- "भारतेन्दु उन दिनों अमेरिका से अवकाश पर आया था। तब वहाँ वह अपना पी.जी. कर रहा था। वहाँ की ज़िन्दगी और रहन-सहन के विषय में वह यदा-कदा हमें बताता रहता था। मेरी बिटिया और छोटा बेटा साकेत बड़े ध्यान से उसे सुनते थे। साकेत सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था उन दिनों और बिटिया बारहवीं में थी। उन्हें बहुत अच्छा लगता था अमेरिका की संस्कृति और अनुशासित जीवन के बारे में जान कर। सबसे अच्छी बात जो साकेत के मन में घर कर गई थी, वह थी पर्यावरण के प्रति वहाँ के लोगों में चेतना व जागरूकता। भारतेन्दु दस दिन का अवकाश ख़त्म होने पर अमेरिका वापस लौट गया। उसके जाने के बाद से तो साकेत के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आ गया। वह कभी भी कोई कागज़-कचरा या खाद्य-अपशिष्ट इधर-उधर सड़क पर नहीं फेंकता था। अपने हाथ में ही थाम कर ऐसे वेस्ट को वह कचरादान जैसा कोई उपयुक्त स्थान मिलने पर ही डालता था। यहाँ तक कि वह अपने साथियों व अध्यापकों को भी इसके लिए प्रेरित करता। कभी-कभी तो इसके लिए वह साथियों से झगड़ा भी कर बैठता था। उसके कुछ बिगड़ैल दोस्त सिगरेट पीने की लत रखते थे। वह नन्ही जान उनको समझाता कि सिगरेट का धुँआ न केवल हवा को दूषित करता है, बल्कि उनके स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचाता है। जो नहीं समझते थे, साकेत ने उनके साथ रहना ही छोड़ दिया था। उसे हरियाली से भी बहुत लगाव हो आया था। उसने न केवल हमारे घर के लॉन में, बल्कि अपने स्कूल में भी कई पौधे अपने हाथ से लगाए थे।"
मैं शांति से उन्हें सुन रहा था। कुछ पल रुक कर उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई- "उस दिन मैं साकेत को एक पुस्तक दिलवाने बाज़ार अपने साथ ले कर गया था। सड़क पर वाहनों की आवाजाही बहुत अधिक थी। हम सड़क के किनारे-किनारे चल रहे थे। उसी दौरान एक सिटी-बस सड़क से गुज़री। हमने देखा, बस में बैठी एक महिला ने केले का छिलका सड़क पर फेंका।
'देखो तो पापा, उस औरत ने क्या किया है।'-कहते हुए साकेत छिलका उठाने बीच सड़क की ओर दौड़ पड़ा लेकिन छिलके तक पहुँचने से पहले ही तेज़ी से आती एक कार ने उसे लपेटे में ले लिया। साकेत की दर्दनाक चीख वातावरण में गूँज उठी।
'साSSSSकेत!'- चिल्लाते हुए मैं उसकी तरफ लपका, किंतु साइड से आती बाइक ने मेरे पाँव को कुचल दिया और मैं वहीं गिर पड़ा। कार वाला तो बिना रुके वहाँ से भाग गया, लेकिन बाइक वाला मुझसे टकराने के बाद बाइक सहित नीचे गिर गया। गिरते-गिरते मैंने देखा, साकेत कार के पहिये के नीचे आ जाने से बुरी तरह घायल हो कर सड़क पर पड़ा था। दहशत के मारे मैं तुरंत बेहोश हो गया।
होश आने पर मैंने स्वयं को हॉस्पिटल के पलंग पर पाया। मैंने पास में बैठी पत्नी से साकेत के बारे में पूछा तो उसने कहा- 'वह ठीक है, दूसरे वॉर्ड में भर्ती है।'
उसे झूठ बोलना नहीं आता था। साकेत के बारे में बताते हुए उसकी आवाज़ भरभरा गई थी। मैंने व्यग्रता से पुनः पूछा- 'बताओ शशि, क्या हुआ? सच बताओ, कैसा है वह?'
'साकेत नहीं रहा, ईश्वर ने उसे हमसे छीन लिया है।' -वह फफक पड़ी।
मेरी आँखें फटी की फटी रह गई और मैं फिर बेहोश हो गया।
दो-ढ़ाई घंटे बाद मुझे होश आया।"
मानवेन्द्र जी दो मिनट के लिए फिर रुके। उनकी आँखें भर आई थीं।
"मानव जी, आप की मनःस्थिति ठीक नहीं है। मैं आप का कष्ट देख नहीं पा रहा हूँ। हम कल फिर मिलेंगे तब आप आगे की बात बताइयेगा प्लीज़।" -मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा। मुझे उनकी कहानी सुन कर बहुत दुःख हो रहा था।
"नहीं अविनाश जी, मुझे कह लेने दो। दिल में उभर आये दर्द को बाहर निकल जाने दो।"
अपराध-बोध से ग्रसित था मैं, नाहक इनकी सुप्त पीड़ा को जगा दिया मैंने, निःशब्द उनके चेहरे की और देखने लगा।
"होश आने पर शशि ने मुझे बताया कि मेरे पाँव का ऑपरेशन किया जाना था और यह भी कि मैं बिस्तर से उठने की स्थिति में नहीं था।" -मानवेन्द्र जी के भीतर का दर्द शब्दों में ढल कर बाहर आ रहा था -"मैं अपने साकेत के अन्तिम दर्शन भी नहीं कर सका अविनाश जी! इधर मैं अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा था और उधर उस मासूम को आग के हवाले कर दिया गया। उस मनहूस हादसे में ज़ख्मी हुआ मेरा पाँव तो ऑपरेशन के बाद काफी-कुछ ठीक हो गया, किन्तु मेरा बच्चा नहीं रहा। बस में बैठी उस महिला की गैरज़िम्मेदाराना हरकत ने मेरे बच्चे के प्राण लील लिये।" -बहती अश्रुधारा को पोंछते हुए मानवेन्द्र जी ने अपनी बात पूरी की।
"उस बाइक वाले को तो लोगों ने पकड़ा होगा न?" -मैंने उनसे प्रश्न किया।
"मेरे एक परिचित ने, जो उस घटना के वक्त वहाँ से गुज़र रहा था और हम दोनों को कुछ लोगों की मदद से अस्पताल भी पहुँचाया था, मुझे बाद में बताया कि बाइक वाले को वहाँ इकठ्ठा हुए कुछ लोगों ने पीटा था, लेकिन अविनाश जी, सच कहा जाय तो न तो कार वाले का ही उस घटना में कोई दोष था और न ही बाइक वाले का। सड़क पर अचानक यूँ भाग कर जाने से ही तो हमारे साथ यह हादसा हुआ था, होनहार ही था यह सब!"

उनकी कहानी सुन कर मेरा मन खिन्न हो उठा था।
"उफ्फ़! बहुत बुरा हुआ आपके साथ।" -मैंने कहा उनसे।
यंत्रवत मानवेन्द्र जी कह रहे थे- "साकेत चला गया, लेकिन मुझे जीने का मकसद दे गया। उसके जाने के बाद से मैं निरन्तर उसकी सोच को अपने अभियान से आगे बढ़ा रहा हूँ। मैं वायु-प्रदूषण का भागी न बनूँ, इसके लिए मैंने स्कूटर चलाना बंद कर दिया। मैं बाद में वृक्षारोपण के कार्यक्रमों से भी जुड़ गया। अपने जीवित रहने तक, मैंने पर्यावरण-सुरक्षा व उसके उन्नयन सम्बन्धी कार्यों में जुटे रहने का व्रत लिया है। प्रकृति-संरक्षण में योगदान के आत्म-संतोष के अलावा अपने बच्चे के प्रति भी शायद यही मेरी सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी।"
मैं मन ही मन मानवेन्द्र जी व उस अनदेखे बच्चे साकेत के प्रति नतमस्तक था।
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