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सही समय, सही कदम.…



    प्रधानमंत्री मोदी जी के द्वारा राजकार्य में मातृभाषा हिंदी के अधिकतम प्रयोग पर बल दिया जाना स्वागत योग्य है। प्रारम्भ में जनता की सुविधा के लिए सम्बंधित क्षेत्र की क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद संलग्न किया जाना भी वांछनीय है। कालान्तर में देश-विदेश के मंचों पर मात्र हिंदी का ही प्रयोग अनिवार्य किया जा सकेगा। जिस प्रकार कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष विदेशों में अपनी मातृभाषा का प्रयोग करते हैं व दुभाषिये उसका सम्बंधित देश की भाषा में या अंग्रेजी में रूपान्तरण कर देते हैं, ठीक उसी तरह हम भी हिंदी का प्रयोग अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आसानी से कर सकते हैं। हिंदी को गौरवान्वित करने वाले इस कदम की जितनी भी प्रशंसा की जाये, कम है। हाँ, क्षेत्र-विशेष में क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी को द्वितीय भाषा के रूप में मान्यता दी जा सकती है। हिंदी का अधिकतम प्रयोग देश को एक सूत्र में बांधे रखने और मात्र क्षेत्रीय सोच की संकीर्णता के उन्मूलन में सहायक होगा। राष्ट्र-भाषा या ऐसा कोई भी मुद्दा जो राष्ट्र-भावना से सम्बन्धित हो, का विरोध करने वाले हर वक्तव्य को राष्ट्र-द्रोह के समकक्ष माना जाकर कार्यवाही की जानी चाहिए- ऐसी मेरी मान्यता है। जय हिन्द !

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बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********