मेरे देश के कुछ अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में किसी हिन्दीभाषी व्यक्ति को ढूंढ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है, जबकि हिन्दी हमारी मातृभाषा है। पूर्णतः वैज्ञानिक, तार्किक एवं साहित्यिक समृद्धि से परिपूर्ण हमारी हिंदी भाषा हमारे ही देश में इस तरह तिरस्कृत हो रही है, इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है! वहीं, यह बात कुछ सांत्वना देने वाली है कि अभी हाल के दिनों में 'हिन्दी' के प्रति रुझान बढ़ाने हेतु इसके प्रचार-प्रसार का उच्चतम प्रयास सरकारी स्तर पर किया जा रहा है।
आज खुशनुमा दिन है, आज 'हिन्दी-दिवस' है!
मेरे महाविद्यालयीय अध्ययन के प्रारम्भिक काल में मेरे द्वारा लिखी गई यह कविता आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ---
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सिमटी-सी वह खड़ी धरा पर
मानो चाँद उतर आया।
पतझड़ मानो बीत चला हो,
नया बसंत निखर आया।
या ऊषा ने ली अंगडाई,
नया प्रभात उभर आया।
नदिया कोई उमड़ पड़ी या
झरना कोई झर आया।
परी एक उतरी नभ से या
कण-कण ने सौरभ पाया।
या फूल बाग़ में महक उठे,
प्यार पराग बिखर आया।
जैसे कोई निबिड़ तमस में,
दीपक एक नज़र आया।
या कोई फूलों में छुप कर,
धीमे - धीमे मुस्काया।
छवि अंकित है मन में इसकी,
मैं अभिनन्दन करता हूँ।
चित्र लिए पलकों में प्रतिपल,
इसका वन्दन करता हूँ।
माँ इसकी देवों की भाषा,
यह जननी सारे जग की।
और सभी भाषाएँ ऐसी,
'खग जाने भाषा खग की'।
इसके खातिर ही जीने की
और मरण की अभिलाषा।
नारी की तस्वीर नहीं यह,
है मेरी हिन्दी भाषा।
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