मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था। खामोशी में रहने वाले, घुट-घुट आहें भरने वाले, नफरत सबसे करने वाले, प्यार तुझे सिखला दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफरत की, कब तूने खुद को जाना है? तू क्या है, तुझमें क्या है, तुझको मैंने पहचाना है होठों पर उल्लास बहुत है. आँखों में विश्वास बहुत है, तेरे दिल में प्यार बहुत ह यह भी मैं दिखला दूँगा।। ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर थोड़ा सहस तुझमें है, दुनिया जो चाहे कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-रस ना बहने दे। देख, अभी तुझको जीना है, कभी-कभी विष भी पीना है, दुनिया में फिर भी रहना है, गम तेरे अपना लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” तुझसे कब चाहा है मैंने, जीवन का मृदुहास मुझे दे बस यही चाहता मैं तुझसे, तू अपना विश्वास मुझे दे। दिल के ज़ख्मों में पीर भरे, कुछ भाव गहन-गंभीर भरे, आँखों में थोड़ा नीर भरे, मैं खुद को बहला लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” *********