
मधुमास में,
नवीनता का आभास,
जीवन और उल्लास,
लिये हुए-
उमंग में पागल,
अनंग का स्वरूप,
वह मधुप,
खोया-खोया
चल पड़ा
उसी उद्यान में,
जहाँ,
नव किशोरी,
रूप-प्रतिमा,
नव कलिका ने-
कल उससे
मुस्कुरा कर,
कुछ लजा कर
कहा था-
‘‘प्रिय,
अभी ठहरो,
धीरज धरो,
प्रतीक्षा करो,
कुछ समय तक।’’
‘’क्या गाऊँगा,
क्या कहूँगा,
जो प्रिय होगा,
प्रियतमा को!’’
-यही सोचता,
वह मधुकर,
आ पहुँचा
उसी उद्यान में,
जहाँ-
प्रतीक्षा कर रही थी
वह किशोरी
कलि-
"वह आयेंगे’
कुछ गायेंगे,
मैं हौले-हौले
झूम उठूंगी।’’
उसी समय-
मदमस्त पवन की
एक लहरी ने
सूचना दी
प्रियतम के आगमन की।
उसी उद्यान में,
मिले
दोनों प्रेमी।
भूल गया मधुकर
गाना,
गुंजारना,
देखता रहा
उसी को-
जो खो गई थी,
निहार रही थी-
अनंग के स्वरूप को
अपलक,
उन्मन, अथक-सी।
मधुकर ने
मुस्कुरा कर
कह ही तो दिया-
"प्रिये,
खोल दो अवगुण्ठन,
जिसमें आवृत
तुम्हारा आनन,
मादक यौवन!’’
और...
कलिका ने
हटा ही तो दिया
वह आवरण-
अवगुण्ठन का।
अनावृत मुखड़ा,
यौवन से गदराया,
लज्जा से अरुणिम!
यौवन-भार से
दबी यौवना,
झुकी कलि को
अलि ने देखा,
निकट आकर
ज्यों हाथ बढ़ाये
आलिंगन के लिए;
उसी क्षण,
उसी उद्यान में,
आंधी चली,
और हवा के
तीव्र झौंके ने
अवरोध किया
उस मिलन का।
झौंके के प्रहार से
गिरी,
वह यौवना
धरती पर।
लुट गया
वह भ्रमर,
ठगा-सा
देखता रहा-
नियति की क्रूरता को,
अतृप्त साध,
धूमिल साधना को।
मधुर मिलन पर
यह आघात!
तड़प कर
क्रन्दन करता
मंडराने लगा-
चारों ओर
उसी कलि के,
जो कर चुकी थी
महाप्रयाण!
बीत चले दिन,
पवन ने उड़ा दी
एक-एक अस्थि,
उसी कलि की,
जिसे कभी
उसी पवन ने
झुलाया था
पत्रों के अंक में।
किन्तु,
विरही मधुकर
मंडराता है,
अब भी,
उसी जगह पर,
उसी उद्यान में।
अन्य भ्रमरों ने
उपहास किया,
जब
उसके एक चिंतन का,
नष्ट होते यौवन का,
तब विरही ने
क्षीणता से
मुस्करा कर
केवल इतना ही कहा-
"यह यौवन,
यह जीवन,
क्षण-भंगुर है;
मैं साधना कर रहा हूँ
प्रेम की,
जो यौवन का,
जीवन का,
चिर प्रतीक है।’’
नहीं सुना
किसी ने भी;
गूँज कर रह गए
यह शब्द,
वहीं,
उसी उद्यान में।
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