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डायरी के पन्नों से ... "उसी उद्यान में..."

     प्राप्त करना ही प्रेम की अंतिम परिणिति हो, ऐसा सदैव नहीं होता। प्रेम एक साधना है, एक उपासना है, एक सम्पूर्ण जीवन है- यही दर्शाने का प्रयास किया है मैंने अपनी इस कविता में। कविता कुछ लम्बी अवश्य है किन्तु मेरे रसग्राही मित्रों को इसे पढ़कर आनन्द की एक अलग ही अनुभूति
होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। स्नेही पाठक-गण से मेरी गुज़ारिश है कि इस कविता के एक-एक शब्द को पढ़ें और आत्मसात करने का प्रयास करें।
    (मेरी किशोरावस्था एवं युवावस्था के वयःसन्धिकाल में यह कविता उस समय की रचना है जब मैंने महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष, बी. एससी. में प्रवेश लिया था। उसी वर्ष मेरी यह रचना कॉलेज की मैगज़ीन 'प्रज्ञा' में प्रकाशित हुई। केवल एक वर्ष का मेरा उस कॉलेज में ठहराव रहा और फिर परिस्थितिवश मैंने वहाँ से अध्ययन छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में प्रवेश लिया, जहाँ से मैंने विज्ञान में स्नातक कोर्स (graduation) किया।)
                                             



                                                         







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