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अब मैं भी क्या कहता...

    मुझे एक समाज-सेवक ने शहर के कारागृह में भेज दिया। उससे पहले उसने कारागृह के जेलर को अच्छी तरह ताक़ीद कर दी थी कि वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार करे तथा जेल की व्यवस्था सम्बन्धी सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाए। समाज-सेवक मेरा तो परिचित था ही, जेलर का भी अच्छा मित्र था। मेरी जिज्ञासा के अनुरूप जेलर ने कैदियों की सभी कोठरियाँ दिखाईं। एक कोठरी कुछ बड़ी और साफ-सुथरी थी तथा विशेष सुविधाओं से युक्त थी। इसमें पांच बिस्तर थे, जिनमें से तीन पर तीन कैदी लेटे हुए हंस-हंस कर बतिया रहे थे और सामने ही एक मेज पर रखे टीवी पर चल रहे कार्यक्रम को भी देख रहे थे।
    यह नज़ारा देख कौतुहलवश जेलर से पूछा कि इस कोठरी में कैदियों को इतनी सुविधाएँ क्यों मिल रही हैं तो उसने जवाब दिया कि यह कोठरी उसके परिचितों के लिए आरक्षित है। मुझे यह जानकर कुछ हैरानी हुई पर कुछ प्रतिक्रिया दिए बिना ही जेलर को धन्यवाद कह कर लौट आया।
    दो दिन बाद वही समाज-सेवक मुझे एक सरकारी अस्पताल में ले गया। वहाँ एक वरिष्ठ डॉक्टर के वॉर्ड में गए तो देखा कि तीन पलंगों के अलावा सभी पलंगों पर रोगी थे और दो रोगी वॉर्ड में फर्श पर लगे बिस्तर पर सोये थे। पूछने पर वॉर्ड-नर्स ने बताया कि खाली पड़े तीन पलंग डॉक्टर साहब के मिलने वालों के लिए आरक्षित हैं। अस्पताल से लौटते वक्त समाज-सेवक को मैंने जेल का वाक़या भी बताया और पूछा कि दोनों जगह इस तरह का भेदभाव क्यों हो रहा है तो समाज-सेवक मित्र ने बताया कि कुछ अन्य सरकारी संस्थाओं में भी ऐसा ही चल रहा है।
    मैं हतप्रभ था, पुनः पूछा- 'पर ऐसा चल कैसे रहा है ? क्या कोई कहने-सुनने वाला नहीं है ?'
मित्र ने मुस्कराते हुए प्रत्युत्तर दिया- 'मैंने एक-दो जगह पूछा था तो उन लोगों ने जवाब दिया कि भाई साहब आपने कुछ दिन पहले अखबार में  नहीं पढ़ा क्या कि राजस्थान के चिकित्सामंत्री ने उनके जयपुर के मालवीयनगर क्षेत्र के निवासियों के लिए सरकारी  बड़े अस्पताल में प्राथमिकता से इलाज का प्रावधान करवाया है। तो हम ऐसी ही कोई व्यवस्था अपने स्तर पर क्यों नहीं कर सकते? अब बताओ भाई, मैं उन्हें क्या कहता ?'
 अब मैं भी क्या कहता ... मेरे पास भी कहने को कोई शब्द नहीं थे।
   

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